बाईक चलाना तो जैसे भूल ही गया हूँ, क्लिच के साथ गियर पर नियंत्रण और इधर उधर से रेंडम क्रम में आने वाले व्यक्तियों और वाहनों की कस्साकस्सी में मैं जैसे फिर से शहर के लिए गांव से आने वाला एक सीधा साधा इन्सान बन गया हूँ, मेरे छोटे भाई मुझे बाईक पर बैठने नहीं देते कि कहीं मैं हाथ - पैर ना तोड़ लूं ! इतना बुरा भी नहीं चलाता पर लोगों की फीडबैक ऐसी है कि कोई सुन ले तो साथ पीछे बैठेगा ही नहीं, अर्धांगिनी तो पहले ही हाथ जोड़ बैठी कि हम तो ऑटो कर लेंगे … पर फिर भी मन है कि खुद को सर्वश्रेष्ठ मानता है, लगता है थोड़े प्रयास और भरसक अभ्यास की जरूरत है.
कार चलाना में भी वही संघर्ष, यहाँ भी क्लिच और गियर का मिश्रण और ऊपर से बाजारों की भीड़ मुझे अनियंत्रित सा कर देती है, भले ही अमेरिका और जर्मनी में गाडी की गति उड़न खटोले जैसी करके फिर भी नियंत्रण संभव है पर यहाँ वही हाथ डगमगा रहे हैं, सुविधा ने संघर्ष को मात दे दी और हम कुछ ज्यादा ही सरल जीवन जीने के आदी हो गए हैं, बाथरूम में से बदबू आती है तो धूल से छींक ही छींक - जैसे हम अपने ही घर में बेगाने से हो गए ! इस कहते हैं कि धोबी का कुत्ता न तो अब घर का रहने वाला है और न घाट का…अमेरिका में भारतीय जीवन जीते हैं और भारत में आकर जैसे स्पीड में कही पिछड़ रहे होते हैं, यहाँ आकर हर मोड पर मेरा और सबका बहाना होता है कि अब वो यहाँ नहीं रहते ना, तो आदत नहीं रही !!
ट्रेन और बस में धक्कामुक्की है पर अगले ही पल बातों में अपनापन लिए पुरानी सौंधी खुशबू लिए प्रेम झलक पड़ता है. सकल घेरलू उत्पाद की दर का प्रभाव लोगों के जीवन पर भी प्रतिलक्षित होता दिखता है, सब लोग व्यस्त है, बच्चे स्कूल के बोझ से पस्त हैं और हर कोई आगे बढ़ने की होड़ में मस्त है, हर हाथ की उँगलियाँ मोबाइल के पैड पर हैं, और शहरों के बाजारों की गलियाँ विदेशी रंग में रंगने के लिए उतावली हैं, देश परिवर्तन के लिए तेजी से आगे बढ़ रहा है और कहीं न कहीं मौलिकता बाजारू और दिखावे का साधन मात्र होकर रह गयी है, मैं स्तब्ध सा खड़ा मंहगी होती चीजों को बस निहारता रहता हूँ, खुद को गरीब अनुभव करता हूँ और असमर्थ भी यहाँ के बाजारों में ! इतनी महँगाई अगर प्रगति के साथ गेहूं के साथ खरपतवार की तरह आती रही तो क्या एक दिन ये देश बंजर नहीं हो जाएगा ?
कल दैनिक भास्कर समाचार पत्र में एक समाचार था, तानसेन समारोह जल्द ही ग्वालियर में शुरू होने वाला है, हर साल दिसंबर में ये समारोह होता है. अकबर के नवरत्नों में से एक तानसेन जी ग्वालियर के पास ४० कि मी दूर बेहट नामक गाँव में जन्मे थे और समाचार पत्र के अनुसार इस गाँव का बच्चा बच्चा ध्रुपद गायन जानता है, ये कला उनके खून में बसती है, पर सरकार की और से आज तक ना तो बेहट के लिए और ना ही इस गाँव के लोगों की कला को आगे लाने के लिए कुछ किया है ! मैं शिवराज सरकार और भाजपा से निवेदन करूँगा कि इस और कुछ ध्यान दें ! हो सकता है कि तानसेन समारोह को भी ग्वालियर से बेहट में ले जाकर इस स्थान पर एक उत्साह पैदा करे !!