हिंदी - हमारी मातृ-भाषा, हमारी पहचान

हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए अपना योगदान दें ! ये हमारे अस्तित्व की प्रतीक और हमारी अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है !

भारत की दशा लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
भारत की दशा लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शनिवार, 20 नवंबर 2010

शोध का सोच और आत्मनिर्भरता पर प्रभाव - भाग ३

शोध का सोच और आत्मनिर्भरता पर प्रभाव - भाग १

शोध का सोच और आत्मनिर्भरता पर प्रभाव - भाग २

पिछले दो लेखों में आपने भारत में शोध की दशा, राजनीतिक उदाशीनता और इसका शिक्षा पर असर के बारे में पढ़ा,  उसी क्रम को थोडा और आगे बढाता हूँ -

भारत में सबसे बड़ी समस्या है हर क्षेत्र में ज्यादा शोध न होने की ! बिना शोध के हम पुरानी पगडंडियों पर बिना सुधार और उन्नयन के चलते रहते हैं और हाथ लगता है तो बस कठिन परिश्रम - आईडिया तो शोध से ही आते हैं , उन्नयन तो शोध से ही आता है अन्यथा मानसिक तनाव और कठिन परिश्रम के दो किनारों के बीच झुलसते रहते हैं हम !!

अब देखिये कि कोई भी काम करना हो तो कारीगर को जरूर बुलाना पड़ेगा,  खिड़की का शीशा हटाना हो या नया दरवाजा लगाना हो, हर चीज  के लिए किसी न किसी को बुलाना पडता है पर पश्चिमी देशों में क्यूंकि मजदूर बुलाना आसान नहीं, और जैसा कि बोलते हैं कि “आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है”  इस बात की आवश्यकता ने कि खुद ही कैसे घर का रख रखाव किया जाये - यहाँ की सरकारों ने और विभिन्न निजी संस्थाओं ने नए नए तरीके खोजने के लिए अपने अपने स्तर पर प्रयास किये और इसका नतीजा है कि आज यहाँ दरवाजा भी आप खुद फिट कर सकते हैं और खिड़की के शीशे भी कुछ ही समय में आप खुद फिट कर सकते हैं और बाकी का काम यू ट्यूब इत्यादि ने सरल बना दिया , हर चीज के विडियो आप यू ट्यूब पर देख सकते हैं कि कैसे कौन सा काम किया जाये !

मैं चाहता हूँ की यू ट्यूब का आईडिया, ऐसे खिड़की और ग्लास बनाने के आईडिया हमारे भारत से आये, क्रियान्वयन तो हो ही जाता है, जरूरत है दिमाग में ये नुकीलापन लाने की जिससे हम सोच सकें कि करना क्या है ! 

AIR_SU_30K_India_Landing_COPE_India_2004_lg

आज भारत को अपनी सुरक्षा जरूरतों के लिए उच्च तकनीक के लिए कई गुना कीमत चुकानी पड़ती है,  देश आजाद ६० साल पहले हुआ पर अब भी हम विदेशों के गुलाम हैं, अब भी हमारा अधिकतर विदेशी मुद्रा भण्डार तेल और रक्षा प्रणाली की जरूरतों में खर्च हो जाता है,  प्राकृतिक संसाधनों के आधुनिक संसाधन हमारे पास नहीं हैं और हालत ये है कि हम सिर्फ सूचना तकनीक में आई आंधी से खुद को विकसित समझ रहे हैं, आँधियाँ जितने वेग से आती हैं उतने ही वेग से चली भी जाती हैं , हमें विकास का सुनामी नहीं बल्कि एक सुव्यवस्थित, क्रमबद्ध और स्वनियंत्रित वाहक बनना होगा अन्यथा हम आजादी के बाद से हो रहे प्रतिभा के पलायन को रोक नहीं पायेंगे !

एक पत्रिका में लिखे लेख के अनुसार -

“While defence trade in the region is dominated by China, in terms of both exports and imports, India is becoming increasingly significant as an importer. “

चीन दोनों तरफ से अपना संतुलन बना कर रखता है , कहीं अपनी चीजें बेच रहा है तो कहीं वो खरीद रहा है , अगर हम (केवल) खरीददार ही बने रहे तो कैसे संतुलन का गणित हमें सफल करेगा ?

मंगलवार, 16 नवंबर 2010

शोध का सोच और आत्मनिर्भरता पर प्रभाव - भाग १

मैं अपनी पिछली कई पोस्ट में लिख चुका हूँ कि भारत में शोध पर बहुत कम पैसा खर्च किया जाता है और उसका असर इस बात से ही दिखता है कि हम उच्च तकनीक की प्रणाली के लिए, रक्षा उपकरणों के लिए और बड़ी परियोजनाओं के क्रियान्वयन के लिए हमेशा से ही विदेशों पर निर्भर रहे हैं और निर्भरता के इन आकडों में विगत कई वर्षों से कोई कमीं नहीं आई है. अपरोक्ष रूप से आत्मनिर्भर न होना विकास में सबसे बड़ा बाधक है.

चीन और भारत दोनों ही आने वाले दशक की महाशक्ति बोले जा रहे हैं, चीन की प्रगती आर्थिक स्तर पर तो उन्नत है ही, चीन अन्य स्तरों पर भी भारत को पीछे छोड़ रहा है, चीन की तेल और रक्षा उपकरणों के लिए विदेशों पर निर्भरता बहुत कम है और इसका कारण है कि चीन ने अपने सकल घरेलु उत्पाद का एक बड़ा हिस्सा अनुसंधानों पर खर्च किया है,  कोई भी बाहर की कंपनी चीन में व्यवसाय तभी कर सकती है जब वह कुछ हिस्सा चीन के बौद्धिक विकास में लगाए ! यही हाल अमेरिका, जापान,  जर्मनी, इस्रायल और अन्य विकसित देशों का है.

नीचे उल्लेखित ग्राफ भारत और चीन के बीच सकल घरेलु उत्पाद का शोध पर खर्च के प्रतिशत की तुलना दर्शाता है :

image17

पुराने आकंडो पर नजर दौडाई जाए तो पता चलता है कि जो देश विकसित है वो शोध और अनुसंधानों पर खर्च के प्रति हमेशा से ही गंभीर रहे, २००४ के आकंडो के अनुसार नीचे दिए गए पांच देश सकल घरेलु उत्पाद के ५ प्रतिशत के लगभग शोध पर खर्च कर रहे थे और इसलिए ही ये सभी  रक्षा उपकरणों और अन्य उच्च तकनीक के मामले में आत्मनिर्भर है :

 

image

इस श्रेणी में भारत का क्रम बहुत नीचे आता है क्योंकि २००४ में भारत अपने सकल घरेलू उत्पाद का सिर्फ ०.७ प्रतिशत के आसपास शोध कार्यक्रमों पर खर्च कर रहा था जो कि २००७ तक सिर्फ ०.८ प्रतिशत हो पाया.  ये आंकड़े इतनी तेजी से विकास कर रहे देश के लिए निराशाजनक है,  मनमोहन सिंह जी से अर्थशाश्त्र के विशेषज्ञ होने के नाते ये अपेक्षित नहीं था.

इस साल के शुरू में प्रथ्वीराज चव्हाण (जो कि उस समय विज्ञान और तकनीकी विभाग में राज्य मंत्री थे) ने भारत सरकार की और से एक बयान में कहा था कि इस साल भारत सरकार शोध पर खर्चे को  सकल घरेलु उत्पाद के १ प्रतिशत से बढाकर २ प्रतिशत पर लाना चाहेगी, इसका मतलब कांग्रेस के सरकार ने पिछले ६० सालों में ये जाकर २०१० के जनवरी में सोच पाया कि बाकी के विकसित देश आत्मनिर्भर क्यों है और हम क्यों अपना पैसा और बहुमूल्य प्रतिभाएं विदेशो को खोये जा रहे हैं !!

"Govt to increase its expenditure on R&D from 1% of GDP to 2%: Prtihviraj Chavan

Friday, 08 January 2010

New Delhi: We know that the next wealth generation and employment generation opportunity will come from science. Therefore the Government plans to increase its expenditure on R&D from 1% of GDP to 2%, said Dr Prithviraj Chavan, Minister for Science & Technology.”

गौरतलब है कि मुझे भारत सरकार से उम्मीद नहीं है  कि वो २ प्रतिशत का आंकड़ा हासिल कर पायेंगे, सबसे बड़े रोडे हैं हमारी तत्काल परिणाम पाने की सोच और लाल फीताशाई का नए विकास कार्यक्रमों में रोडे अटकाना और इसका परिणाम ये होता है कि आज भी उच्च तकनीक के लिए शिक्षा के लिए हमारे यहाँ के लोगों को विदेशों का ही रुख करना होता है, बड़े बड़े उद्योगपति,  राजनेता लोग तो अपने बच्चों को पैसे का बल पर बाहर भेजकर इस काम की भरपाई कर देते हैं पर आम नागरिक क्या करे ? जब तक शोध के जरिये हम आम विद्यालयों में दी जाने वाली शिक्षा को मजबूत नहीं करेंगे तब तक बुनियादी तौर पर शिक्षा के स्तर को उन्नत और उच्च कोटि की बनाना संभव नहीं है !

ऐसा मुझे तो कई बार अनुभव हुआ है कि हम लोग जो सरकारी विद्यालयों में पड़े हैं, मेहनत से अपनी मंजिल तो बना पाए पर हर मोड पर अब कठिन परिश्रम ही करना पडता है, सोच समस्या के हिसाब से विकसित नहीं हो पायी, सेन्स ऑफ ह्यूमर को विकसित करने के लिए कोई कदम नहीं उठाये गए और हमने सिर्फ परीक्षा में अच्छे अंक लाने के लिए पढाई करी, जबकि पढाई समस्या को आगे रखकर उसके हल की दिशा में होनी चाहिए थी !

कुछ दिन पहले यहाँ के एक बच्चों के म्यूजियम द्वारा निकुंज के प्राथमिक विद्यालय में पहली और दूसरी कक्षा के विद्यार्थियों के लिए गणित पर एक कार्यशाला रखी गयी जिसमें विद्यालय के बाद शाम को बच्चे को अपने माता-पिता के साथ आकर भाग लेना था,  मैं भी बड़ा उत्सुक था इसलिए समय से ही निकुंज के साथ विद्यालय पहुँच गया !  

(जारी …)

भारत आने का समय नजदीक आ रहा है,  अगले सप्ताह इस समय शिकागो के अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर भारत के लिए उड़न खटोला पकड़ रहे होंगे - सबसे मिलने का बेसब्री से इन्तजार है !!

मंगलवार, 9 नवंबर 2010

अमेरिकन बाबू बेचे जात है ….

 

पिछले लेख में ओबामा की भारत यात्रा के कुछ पहलुओं के बारे में मैंने विश्लेषण किया था,  ये महत्वपूर्ण आलेख यहाँ पढ़ा जा सकता है -

एक विश्लेषण - ओबामा की भारत यात्रा के परिपेक्ष्य में

अब जबकि अंकल सेम बहुत कुछ बेच कर और हम भावुक भारतियों को लुभा कर चले गये हैं, एक बात पर गौर करना जरूर है जो मैंने उपरोक्त लेख में भी संदर्भित किया था कि भारत को अगर वाकई में विकसित देशों के श्रेणी में खड़ा होना है तो हमें अपनी सकल घरेलु उत्पाद का एक बहुत सारा भाग शोध पर खर्च करना होगा!

08slide1

जी ई और बोईंग जैसी कम्पनियाँ ओबामा के साथ बिलियन डॉलर का सामान एकतरफा बेच कर चले गये, जैसे ओबामा भारत से अमेरिका में रोजगार पैदा करने की बात करते हैं उसी तरह हमें भी अमेरिका से डील डन करते समय इस तरह की शर्तें रखना चाहिए के हमें सामान भारत में ही बना कर दीजिए ! इससे ये बड़ी बड़ी कम्पनियाँ कम से कम कुछ पैसा शोध पर भी भारत में खर्च करेंगी और उससे अप्रत्यक्ष रूप से आगे आने वाले वर्षों में भारत को ही फायदा होगा !  आई टी के क्षेत्र में ऐसा हो रहा है, अब ये सब अन्य क्षेत्रों में भी होना चाहिए. अगर एक आई टी  क्षेत्र में हमारी सक्रियता के जरिये इतने रोजगार, प्रतिष्पर्धा और सम्पन्नता आयी है तो सोचिये के अगर अन्य क्षेत्रों में भी ऐसा हो तो भारत कहाँ से कहाँ होगा !

अभी हम विशिष्ट तकनीक के लिए पूरी तरह से विदेशों पर निर्भर हैं , रक्षा बजट से लेकर उर्जा बजट तक देश का ५० प्रतिशत से ज्यादा पैसा विदेशों की झोली में चला जाता है ….क्या बिना आत्मनिर्भर हुए हम विकसित हो सकते हैं ?

पिछले आलेख में राज भाटिया जी ने बहुत अच्छा प्रश्न उठाया था -

राज भाटिय़ा जी ने कहा था … “इस बंदर बांट मे कुछ नही होने वाला, ओर अमेरिका ईस्ट ईडिया की तरह से एक कपनई ही बना कर जायेगा भारत मे, यह अपने बम पटाखे बेच कर जायेगा, ओबामा गाधी का पुजारी हे तो इस मै बडी बात क्या हे,सारे काग्रेसी भी तो इसी बापू के पुजारी हे, बाकी बात मै honesty project democracy जी से सहमत हुं, यह मामा हमारा कुछ भला नही करने वाला, “

रवीन्द्र प्रभात जी भी कुछ ऐसी ही व्यथा रखते हैं - “यह सही तथ्य है कि ओबामा ने महसूस किया है मार्टिन लूथर और गांधी को, किन्तु एक सच यह भी है कि ओबामा और हमारे देश के सफ़ेद पोश में यह एक समानता है दोनों महसूसते हैं गांधी को मगर करते वाही जो उनकी फितरत में शामिल होता है ! ओबामा की अग्नि परीक्षा वहीँ असफल हो जाती है जब वह पाकिस्तान और भारत को एक ही तराजू पर तौलने का प्रयास करते हैं अन्य अमेरिकी राष्ट्रपतियों की तरह. …”

वहीं जय कुमार झा भी बहुत झल्लाए दिखे…”अच्छे आकडे प्रस्तुत किये हैं आपने लेकिन एक बात तो तय है की लोकतंत्र ना तो अमेरिका में अब जिन्दा है और भारत में तो लोकतंत्र एक भयानक त्राशदी जैसा हो गया है | ओबामा की भारत यात्रा कोमनवेल्थ और आदर्श घोटालों से इस देश की जनता का ध्यान और उनके रोष को भटकाने और खयाली तथा कागजी विकाश के लोलीपोप चूसने को इस देश के लोगों को प्रेरित करने के सिवा कुछ भी नहीं करेगा ...”

समीर लाल और प्रवीण पाण्डेय भी कुछ ज्यादा आशावान नहीं दिखे ओबामा से !

 

ओबामा की इस यात्रा के अन्त में पीपली लाइव फ़िल्म का गाना सही फिट बैठता है:

 

भैया भारत लगता तो बड़ा संपन्न है

पर विदेशी लोग खाए जात हैं

और अमेरिकन बाबू अपनी चीजें बेचे जात है

जनता बेचारी कान पकडे ही जात है

और कांग्रेस पार्टी राज करे ही जात है

देश को घोटालों से लूटे ही जात है

अमेरिकन बाबू अपनी चीजें बेचे जात है

देश की प्रतिभा पलायन करे ही जात है

और एक प्रतिभा राष्ट्रपति बने ही जात है

पर कुछ करे नहीं पात है

देश गरीब होये जात है

अमेरिकन बाबू अपनी चीजें बेचे जात है

विपक्ष खूब सीटें जीते जात है

पर संसद में ये भी सोये रहत है

बात बात पर धक्का मुक्की होती रहत है

वोट करते में खुद ही बिक जात है

अमेरिकन बाबू अपनी चीजें बेचे जात है ….

 

इस दिवाली पर निकुंज ने यहाँ के एक मंदिर में अपना पहला स्टेज कार्यक्रम किया, चिन्ता की बात थी कि समय की कमी और प्रोग्राम में कुछ परिवर्तन की वजह से उसने तैयारी ज्यादा नहीं कर पायी पर खचाखच भरे सभागार की तालियों ने ये सब संशय दूर कर दिया , सोचा आपके साथ भी बाँट लिया जाए ये गर्वोनुभूति का पल -