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शनिवार, 20 नवंबर 2010

शोध का सोच और आत्मनिर्भरता पर प्रभाव - भाग ३

शोध का सोच और आत्मनिर्भरता पर प्रभाव - भाग १

शोध का सोच और आत्मनिर्भरता पर प्रभाव - भाग २

पिछले दो लेखों में आपने भारत में शोध की दशा, राजनीतिक उदाशीनता और इसका शिक्षा पर असर के बारे में पढ़ा,  उसी क्रम को थोडा और आगे बढाता हूँ -

भारत में सबसे बड़ी समस्या है हर क्षेत्र में ज्यादा शोध न होने की ! बिना शोध के हम पुरानी पगडंडियों पर बिना सुधार और उन्नयन के चलते रहते हैं और हाथ लगता है तो बस कठिन परिश्रम - आईडिया तो शोध से ही आते हैं , उन्नयन तो शोध से ही आता है अन्यथा मानसिक तनाव और कठिन परिश्रम के दो किनारों के बीच झुलसते रहते हैं हम !!

अब देखिये कि कोई भी काम करना हो तो कारीगर को जरूर बुलाना पड़ेगा,  खिड़की का शीशा हटाना हो या नया दरवाजा लगाना हो, हर चीज  के लिए किसी न किसी को बुलाना पडता है पर पश्चिमी देशों में क्यूंकि मजदूर बुलाना आसान नहीं, और जैसा कि बोलते हैं कि “आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है”  इस बात की आवश्यकता ने कि खुद ही कैसे घर का रख रखाव किया जाये - यहाँ की सरकारों ने और विभिन्न निजी संस्थाओं ने नए नए तरीके खोजने के लिए अपने अपने स्तर पर प्रयास किये और इसका नतीजा है कि आज यहाँ दरवाजा भी आप खुद फिट कर सकते हैं और खिड़की के शीशे भी कुछ ही समय में आप खुद फिट कर सकते हैं और बाकी का काम यू ट्यूब इत्यादि ने सरल बना दिया , हर चीज के विडियो आप यू ट्यूब पर देख सकते हैं कि कैसे कौन सा काम किया जाये !

मैं चाहता हूँ की यू ट्यूब का आईडिया, ऐसे खिड़की और ग्लास बनाने के आईडिया हमारे भारत से आये, क्रियान्वयन तो हो ही जाता है, जरूरत है दिमाग में ये नुकीलापन लाने की जिससे हम सोच सकें कि करना क्या है ! 

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आज भारत को अपनी सुरक्षा जरूरतों के लिए उच्च तकनीक के लिए कई गुना कीमत चुकानी पड़ती है,  देश आजाद ६० साल पहले हुआ पर अब भी हम विदेशों के गुलाम हैं, अब भी हमारा अधिकतर विदेशी मुद्रा भण्डार तेल और रक्षा प्रणाली की जरूरतों में खर्च हो जाता है,  प्राकृतिक संसाधनों के आधुनिक संसाधन हमारे पास नहीं हैं और हालत ये है कि हम सिर्फ सूचना तकनीक में आई आंधी से खुद को विकसित समझ रहे हैं, आँधियाँ जितने वेग से आती हैं उतने ही वेग से चली भी जाती हैं , हमें विकास का सुनामी नहीं बल्कि एक सुव्यवस्थित, क्रमबद्ध और स्वनियंत्रित वाहक बनना होगा अन्यथा हम आजादी के बाद से हो रहे प्रतिभा के पलायन को रोक नहीं पायेंगे !

एक पत्रिका में लिखे लेख के अनुसार -

“While defence trade in the region is dominated by China, in terms of both exports and imports, India is becoming increasingly significant as an importer. “

चीन दोनों तरफ से अपना संतुलन बना कर रखता है , कहीं अपनी चीजें बेच रहा है तो कहीं वो खरीद रहा है , अगर हम (केवल) खरीददार ही बने रहे तो कैसे संतुलन का गणित हमें सफल करेगा ?

गुरुवार, 18 नवंबर 2010

शोध का सोच और आत्मनिर्भरता पर प्रभाव - भाग २

 

शोध का सोच और आत्मनिर्भरता पर प्रभाव - भाग १

कुछ दिन पहले यहाँ के एक बच्चों के म्यूजियम द्वारा (निकुंज के) प्राथमिक विद्यालय में पहली और दूसरी कक्षा के विद्यार्थियों के लिए गणित पर एक कार्यशाला रखी गयी जिसमें विद्यालय के बाद शाम को बच्चे को अपने माता-पिता के साथ आकर भाग लेना था,  मैं भी बड़ा उत्सुक था इसलिए समय से ही निकुंज के साथ विद्यालय पहुँच गया !  वहाँ पहली और दूसरी कक्षा के विद्यार्थीगणों को (जो घर पर बात तक नहीं मानते)  मैंने उनके स्वनिर्मित चक्रव्यूह को हल करते पूरी संलग्नता से देखा तो समझ में आया कि अगर हम बच्चों को एक समस्या दें और उसमें खुद बच्चे के साथ लगकर हल करने की कोशिश करें तो बच्चा पूरी तन्मयता से और सक्रियता से सीखता है और ऐसा सीखा हुआ पाठ उसके मानस पटल पर उम्र भर अमिट रहता है. 

अब सोचिये के इस गणित कार्यशाला का भले ही आज कोई परिणाम न मिले पर एक  दिन जब आप उस तरह की किसी समस्या का हल खोज रहे होंगे और आपका बालक अचानक से जबाब देगा तब आपको इस का जो सुख मिलेगा वो आनन्दमय होगा और ये ज्ञान बच्चे को अवश्य ही उसकी आगे चलकर उसकी तार्किक सोच में तीखापन लाने के लिए सहायक होगा.

इस कार्यशाला में जो प्रयोग किये गए उनमें से कुछ को में नीचे उल्लेखित कर रहा हूँ :

  1. एक बोर्ड रख दिया गया जिसको समुद्र या नदी बताया गया और उस पर बच्चे को पुल बनाना है,  कुछ अंक बोर्ड पर अंकित थे जो ५ के गुणा में थे,  इन १०-१५ अंको में से दो अंक चुनकर उनको जोड़कर जो अंक आएगा उस पर पहला स्तंभ खड़ा करना है और अगले स्तंभ के लिए ऐसे दो अंक बोर्ड में अंकित अंको से लेने होंगे जिनका जोड़ पिछले स्तंभ के आसपास हो, जिससे दो consecutive स्तंभों को जोड़ा जा सके. इस समस्या में बच्चे जल्दी से जल्दी अपना पुल इमानदारी से पूरा करने के चक्कर में पूरी इमानदारी और तन्मयता से लगे थे और हम पालक भी यथासंभव सहायता कर रहे थे.
  2. दीवाल पर हर अक्षर को एक सेंट या डॉलर अंकित कर दिया था, अब हर बच्चे को (जिसकी इच्छा हो ये समस्या हल करने की ) अपने नाम की कीमत बतानी थी, इस समस्या के जरिये डॉलर और सेंट को जोडने, सेंट को डॉलर में तब्दील करने और २ और ५, १० और २० के पहाडो के जरिये कैसे पैसो का हिसाब जल्दी किया जाए.  निकुंज को N, I, K, U, N और J पर लिखे डॉलर और सेंट को जोड़कर उसके नाम की कीमत बतानी थी.
  3. कुछ रंग बिरंगे पेपर रख दिए गए थे और दीवाल पर अलग अलग तरह के द्वि - विमीय और त्रि-विमीय आकार बनाने के तरीके लिखे थे, जिन बालको ने वहाँ पर वर्ग, त्रिकोण, क्यूब इत्यादी बनाए वो कैसे कभी भूल सकते हैं उन आकारों को!
  4. बच्चो को तराजू बनाने के लिए दिया गया और फिर दोनों तरफ उसको बेलेंस करने के लिए कुछ प्रयोग करने को बोला गया
  5. एक प्रयोग ऐसा था कि कुछ अंक एक बक्से में डाल दिए गए और फिर उनमें से जो ४ अंक आप निकालो उनमे से सबसे बड़ा अंक कैसे बना सकते हैं  इस प्रयोग से उनकी इकाई, दहाई और सैकडा में अंको को इधर उधर कर अंको के बदलाव की ज्ञान वृद्धि पर जोर दिया गया
  6. विभिन्न आकारों का उपयोग कर उन आकारों को अन्य आकारों में बदलने और उनसे चित्र में दी गयी कुछ तस्वीरें बनाने के लिए प्रयोग दिया गया

इस तरह के कई और भी प्रयोग थे, ये सब कार्यक्रम University of Chicago  के गणित विभाग द्वारा किये गए शोध पर आधारित थे,  विद्यालय की तरफ से ऐसे कई पुस्तिका घर पर भेजी जाती है जो University of Chicago  द्वारा तैयार की गयी है और बच्चों के ज्ञान को समृद्ध ही नहीं, तार्किक, तीखा, तीक्ष्ण और प्रायोगिक भी बनाती हैं, बच्चे समस्या के हिसाब से सोचते हैं, पहले समस्या और फिर हल !   ये एक छोटा सा उदहारण है शोध के बाद किसी चीज को बेहतर बनाने का, सरल बनाने का !

कैसे बिना दबाब के और बिना मानसिक तनाव के रोजमर्रा की चीजों के जरिये गणित और उससे सम्बंधित चीजें सिखाई जाए, ये सब एक दिन में निर्धारित नहीं हो सकता.  पर अगर आज शुरुआत की जाए तो हो सकता है कि हम भी भारत में आने वाले वर्षों में बस्ते का बोझ कम कर पायें.  हम अपनी शिक्षा प्रणाली से नौकरी करने लायक तो बन जाते हैं पर कहीं न कहीं वो आईडिया दुनिया को नहीं दे पाते जो फेसबुक, ऐपल इत्यादि के संस्थापक दुनिया को दे रहे हैं, ये स्वीकार करना ही होगा, ये प्रश्न खुद से पूछना ही होगा कि हम क्यों नोबल पुरुष्कारों को अपने घर नहीं ला पाते ! हम क्रियान्वयन में महारत रखते हैं क्यूंकि हम वो कर सकते हैं जो कोई पहले ही कर चुका है, हमें रास्ते तय करने वाले, रास्तों का निर्धारण करने वाले बच्चे विद्यालय से निकालने होंगे.  निश्चय ही भारत में परिवर्तन आ रहा है पर सरकार को और अधिक सक्रीय होना होगा जिससे हम वाकई में विकसित कहलाये जा सकें !  हम केवल विज्ञान, भौतिक और रसायन में ही प्रायोगिक परीक्षा न रखें बल्कि हमें हर विषय को प्रायोगिक बनाकर पढाने की व्यवस्था करनी होगी और प्रयोग को आम जिंदगी का हिस्सा बनाना ही होगा,  मुझे ध्यान है कि किस तरह १०वीं और १२वीं कक्षा में निर्धारित प्रायोगिक परिक्षा महज एक औपचारिकता होती थी.

यहाँ मैंने देखा है कि बच्चे पांचवे क्लास (अभी यहीं तक का पता है ) तक बिना बस्ते और बिना ड्रेस के विद्यालय जाते है पर ज्ञान के हिसाब से सिर्फ प्रोजेक्ट और रीडिंग के बल पर जो उच्च स्तर पढाई का दिखा उसे बेस्ट नहीं तो बेहतर जरूर कहूँगा !   कुछ मेरे दोस्त इसलिए भारत चले गए क्योंकि उनका बच्चा यहाँ किसी क्रमबद्ध कोर्स के जरिये नहीं पढ़ रहा था, बस्ते भरकर विद्यालय नहीं जा रहा था, पर कब तक हम नयी पीढ़ी पर ये दबाब डालेंगे गधे की तरह बस्ते ढोने का, ये बच्चे घोड़े से भी तेज मस्तिष्क रहते हैं इसलिए इन्हें बस्तों के बोझ से इन्हें मुक्त करना ही होगा, इन्हें बचपन को जीते जीते, आनंद करते करते ही सरलता से प्राथमिक शिक्षा की परिपाटी पर चलाना होगा !

छोटे छोटे बच्चे यहाँ अभी से लिखना सीख रहे हैं , लेखक बन रहे हैं और अपने रूचि के हिसाब से एक विषय विशेष में पारंगत बन रहे हैं पर इस तरह की स्वच्छंद पढाई में घर ध्यान न दिया जाए तो बच्चा पिछड भी सकता है क्यूंकि यहाँ बच्चे पर पढाई के लिए दबाब नहीं डाला जाता !  इसलिए यहाँ अमेरिका में स्कूल ड्रॉप आउट की समस्या बहुत है, घर पर और विद्यालय की गतिविधियों में पालक का सम्मिलित रहना अनिवार्य है अन्यथा ये स्वच्छंदता कई बुराइयों, आलसों और बहानों को जन्म दे देती है, पर गौर करने वाली बात है के शोध के जरिये कैसे बच्चे को सरलता से और सहजता से कठिन से कठिन बात सिखाई जा सकती है !!

ये बात में सरकारी विद्यालयों की कर रहा हूँ इसलिए अगर आप DPS या किसी अन्य विद्यालय से तुलना करेंगे तो फिर हम आम आदमी के बच्चे की बुनियादी शिक्षा की बात नहीं कर पायेंगे, ये बात में खुद के परिवेश ओर आज भी उसी ढर्रे पर चल रहे सरकारी विद्यालयों की कर रहा हूँ, क्या उन में परिवर्तन समय के साथ अपेक्षित नहीं ?  जब अमेरिका का सरकारी विद्यालय हमारे प्राईवेट विद्यालय से बेहतर है तो हमें ओर हमारी सरकारों को इस विषय में सोचना ही होगा अन्यथा हम विकासशील से विकसित होने का फासला तय नहीं कर पायेंगे!

भारत में सबसे बड़ी समस्या है हर क्षेत्र में शोध की ! बिना शोध के हम पुरानी पगडंडियों पर बिना सुधार और उन्नयन के चलते रहते हैं और हाथ लगता है तो बस कठिन परिश्रम - आईडिया तो शोध से ही आते हैं , उन्नयन तो शोध से ही आता है अन्यथा मानसिक तनाव और कठिन परिश्रम के दो किनारों के बीच झुलसते रहते हैं हम !!

(जारी …)

मंगलवार, 16 नवंबर 2010

शोध का सोच और आत्मनिर्भरता पर प्रभाव - भाग १

मैं अपनी पिछली कई पोस्ट में लिख चुका हूँ कि भारत में शोध पर बहुत कम पैसा खर्च किया जाता है और उसका असर इस बात से ही दिखता है कि हम उच्च तकनीक की प्रणाली के लिए, रक्षा उपकरणों के लिए और बड़ी परियोजनाओं के क्रियान्वयन के लिए हमेशा से ही विदेशों पर निर्भर रहे हैं और निर्भरता के इन आकडों में विगत कई वर्षों से कोई कमीं नहीं आई है. अपरोक्ष रूप से आत्मनिर्भर न होना विकास में सबसे बड़ा बाधक है.

चीन और भारत दोनों ही आने वाले दशक की महाशक्ति बोले जा रहे हैं, चीन की प्रगती आर्थिक स्तर पर तो उन्नत है ही, चीन अन्य स्तरों पर भी भारत को पीछे छोड़ रहा है, चीन की तेल और रक्षा उपकरणों के लिए विदेशों पर निर्भरता बहुत कम है और इसका कारण है कि चीन ने अपने सकल घरेलु उत्पाद का एक बड़ा हिस्सा अनुसंधानों पर खर्च किया है,  कोई भी बाहर की कंपनी चीन में व्यवसाय तभी कर सकती है जब वह कुछ हिस्सा चीन के बौद्धिक विकास में लगाए ! यही हाल अमेरिका, जापान,  जर्मनी, इस्रायल और अन्य विकसित देशों का है.

नीचे उल्लेखित ग्राफ भारत और चीन के बीच सकल घरेलु उत्पाद का शोध पर खर्च के प्रतिशत की तुलना दर्शाता है :

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पुराने आकंडो पर नजर दौडाई जाए तो पता चलता है कि जो देश विकसित है वो शोध और अनुसंधानों पर खर्च के प्रति हमेशा से ही गंभीर रहे, २००४ के आकंडो के अनुसार नीचे दिए गए पांच देश सकल घरेलु उत्पाद के ५ प्रतिशत के लगभग शोध पर खर्च कर रहे थे और इसलिए ही ये सभी  रक्षा उपकरणों और अन्य उच्च तकनीक के मामले में आत्मनिर्भर है :

 

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इस श्रेणी में भारत का क्रम बहुत नीचे आता है क्योंकि २००४ में भारत अपने सकल घरेलू उत्पाद का सिर्फ ०.७ प्रतिशत के आसपास शोध कार्यक्रमों पर खर्च कर रहा था जो कि २००७ तक सिर्फ ०.८ प्रतिशत हो पाया.  ये आंकड़े इतनी तेजी से विकास कर रहे देश के लिए निराशाजनक है,  मनमोहन सिंह जी से अर्थशाश्त्र के विशेषज्ञ होने के नाते ये अपेक्षित नहीं था.

इस साल के शुरू में प्रथ्वीराज चव्हाण (जो कि उस समय विज्ञान और तकनीकी विभाग में राज्य मंत्री थे) ने भारत सरकार की और से एक बयान में कहा था कि इस साल भारत सरकार शोध पर खर्चे को  सकल घरेलु उत्पाद के १ प्रतिशत से बढाकर २ प्रतिशत पर लाना चाहेगी, इसका मतलब कांग्रेस के सरकार ने पिछले ६० सालों में ये जाकर २०१० के जनवरी में सोच पाया कि बाकी के विकसित देश आत्मनिर्भर क्यों है और हम क्यों अपना पैसा और बहुमूल्य प्रतिभाएं विदेशो को खोये जा रहे हैं !!

"Govt to increase its expenditure on R&D from 1% of GDP to 2%: Prtihviraj Chavan

Friday, 08 January 2010

New Delhi: We know that the next wealth generation and employment generation opportunity will come from science. Therefore the Government plans to increase its expenditure on R&D from 1% of GDP to 2%, said Dr Prithviraj Chavan, Minister for Science & Technology.”

गौरतलब है कि मुझे भारत सरकार से उम्मीद नहीं है  कि वो २ प्रतिशत का आंकड़ा हासिल कर पायेंगे, सबसे बड़े रोडे हैं हमारी तत्काल परिणाम पाने की सोच और लाल फीताशाई का नए विकास कार्यक्रमों में रोडे अटकाना और इसका परिणाम ये होता है कि आज भी उच्च तकनीक के लिए शिक्षा के लिए हमारे यहाँ के लोगों को विदेशों का ही रुख करना होता है, बड़े बड़े उद्योगपति,  राजनेता लोग तो अपने बच्चों को पैसे का बल पर बाहर भेजकर इस काम की भरपाई कर देते हैं पर आम नागरिक क्या करे ? जब तक शोध के जरिये हम आम विद्यालयों में दी जाने वाली शिक्षा को मजबूत नहीं करेंगे तब तक बुनियादी तौर पर शिक्षा के स्तर को उन्नत और उच्च कोटि की बनाना संभव नहीं है !

ऐसा मुझे तो कई बार अनुभव हुआ है कि हम लोग जो सरकारी विद्यालयों में पड़े हैं, मेहनत से अपनी मंजिल तो बना पाए पर हर मोड पर अब कठिन परिश्रम ही करना पडता है, सोच समस्या के हिसाब से विकसित नहीं हो पायी, सेन्स ऑफ ह्यूमर को विकसित करने के लिए कोई कदम नहीं उठाये गए और हमने सिर्फ परीक्षा में अच्छे अंक लाने के लिए पढाई करी, जबकि पढाई समस्या को आगे रखकर उसके हल की दिशा में होनी चाहिए थी !

कुछ दिन पहले यहाँ के एक बच्चों के म्यूजियम द्वारा निकुंज के प्राथमिक विद्यालय में पहली और दूसरी कक्षा के विद्यार्थियों के लिए गणित पर एक कार्यशाला रखी गयी जिसमें विद्यालय के बाद शाम को बच्चे को अपने माता-पिता के साथ आकर भाग लेना था,  मैं भी बड़ा उत्सुक था इसलिए समय से ही निकुंज के साथ विद्यालय पहुँच गया !  

(जारी …)

भारत आने का समय नजदीक आ रहा है,  अगले सप्ताह इस समय शिकागो के अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर भारत के लिए उड़न खटोला पकड़ रहे होंगे - सबसे मिलने का बेसब्री से इन्तजार है !!

सोमवार, 5 जुलाई 2010

क्या ‘बंद’ ही असहमति की एकमात्र शशक्त अभिव्यक्ति है ?

 

बंद की घोषणा क्या हो जाए, पार्टी के छुटभैये नेताओं को गुंडागर्दी का जैसे लाइसेंस मिल जाता हो, जबरदस्ती सडकें जाम कराना, दुकानों को बंद कराना जैसे काम नेताओं के बायोडाटा में स्टार जोडने का काम जो करते हैं |  भारत में होने वाले बंद जहाँ देश के लिए अव्यवस्था का सबब बनते हैं वहीं नेताओं के लिए ये एक मटरगस्ती का जरिया. इसलिए बंद (भारत में)असहमति की हिंसात्मक अभिव्यक्ति मात्र बन कर रह गए हैं और नेताओं को यही एक कारगर जरिया लगता है असहमति व्यक्त करने का !

पिछली बार भारत यात्रा के दौरान भी एक ऐसे ही बंद का आयोजन था, स्थानीय स्तर के कार्यकर्त्ता सब जुगाड जमा रहे थे न्यूज़ में आने के लिए | हम उस दिन ग्वालियर के पास के एक छोटे से कस्बे में अपने घर पर थे, उसी दिन सुबह कार से ग्वालियर के लिए निकलना था | छोटे कस्बों में एक दूसरे को सब अच्छी तरह से जानते हैं तो कुछ अड़ोसी पड़ोसियों ने जो कि रिश्तेदार भी थे, समझाया कि आज मत जाओ,  चलो हमारे साथ बंद के मजे लेने चलो, आप तो बस साइड में बैठ जाना कार में और देखते रहना मजे | कल सबके साथ आपका भी नाम पेपर में आ जाएगा |  कुछ को तो पता भी नहीं था कि बंद हो क्यूं रहा है, ये तो शायद किसी को भी नहीं पता था कि बंद करवाने से हल क्या होगा | कुछ बुद्धिजीवी भी थे जो अपनी पार्टी के साथ वफा के चलते हर अपने तर्क से बंद को तर्कसंगत बता रहे थे |

खैर, मैंने उनके साथ जाने की हामी नहीं भरी,  हमें कुछ आवश्यक काम भी था ग्वालियर में , नहीं तो हम भी कुछ मजे ले लिए होते बेचारे किसी ‘आम' आदमी को परेशान होते देखके !  मैंने कहा कि हमें तो जाना है , कार कैसे निकलेगी ?  तो भाई लोग जो कि बंद को सफल बनाने के लिए कुछ भी करने तैयार थे, पहले तो बोले कि कायिको परेशान होते हो, इहाँ से हम निकलवा देंगे तो कोई मुरैना में रोक लेगा,  जगह जगह कोई न कोई रोक ही लेगा …बात तो सही थी, बाद में भाई लोगों ने एक रास्ता बता दिया जहाँ से हम जा सकते थे और कोई रोकने वाले भी कम मिलेंगे और साथ में एक लड़का बिठा दिया जो हर जगह उनका रेफेरेंस देकर हमें ग्वालियर तक पहुंचवा देगा, ग्वालियर हम पहुँच भी गए,  कुछ लोग तो बंद होने के नाम से ही डर जाते हैं और वास्तव में उतना विरोध रोड पर नहीं रहता |  पर इससे इन नेताओं की दोगली और हमारी अवसरवादी प्रवृत्ति तो सामने आ ही गयी,  छोटे स्तर के नेता बंद को सफल सिर्फ और सिर्फ दिखावे के लिए और अपने आकाओं की खुशी के लिए करते हैं और हम जैसे लोग अपनी सुविधा के हिसाब से इनके बुने जाल में ढल जाते हैं,  किसी न किसी तरह अपना काम बन जाए बस इस फिराक में पडकर इसके दूरगामी परिणामों के बारे में सोचने की जहमत ही नहीं उठाते |  ये नहीं सोचते कि कल के लिए अगर ऐसी जगह फँस गया जहाँ में अजनबी हूँ तो मेरा उस ‘बंद' के दौरान क्या होगा !!

मानसिक रूप से ‘बंद' आपके क्रियाकलापों पर एक विराम तो लगा ही देता है | कुछ लोगों के लिए यह एक बहाना भी हो जाता है, घर पर सोफे में धंसे रहने के लिए :)  जो आईटी की कंपनियाँ हैं वो ‘बंद' के दिन तो ऑफिस बंद रखती हैं, पर उसके एवज में शनिवार या इतवार को लोगों को काम करने बुला लेते हैं | तो इससे उनके धंधे पर तो कोई फर्क नहीं पडता पर देश की रेटिंग इससे कहीं न कहीं कम जरूर होती है, और अक्सर मैंने अंग्रेजों को यहाँ हमारे तथाकतित ‘बंद' का मजाक उड़ाते देखा है, क्या जबाब दें ? हम भी कुछ तर्क देते हैं, पर खुद का मन भी ग्लानी से भरा होता है क्यूंकि  ‘बंद' का मतलब सिर्फ और सिर्फ विपक्ष की तरफ से सत्ता पक्ष को नीचा दिखाना होता है और इससे खुद को जनता के सामने प्रचारित करने का मौका भी उन्हें मिल जाता है |  जब कांग्रेस सत्ता में होगी तो बीजेपी बंद रखेगी  किसी नीति के सम्पादन पर (बहस करने के बजाय) और जब बीजेपी सत्ता में आएगी तो बीजेपी भी वही करेगी जो कांग्रेस सत्ता में होने पर कर रही होती, पर इस समय चूंकि कांग्रेस विपक्ष में हैं; वो तोडफोड और अव्यवस्था फैलाएगी, इस तरह ये  सिक्वेल चलता रहता है और देश बदनाम होता रहता है |

जब हम विकसित होना चाहते हों, विदेशों की नक़ल पर आधुनिक बनना चाहते हों और अपने ढाँचे को विश्व स्तर का बनाना चाहने का सपना रखते हों तो क्या असहमति की ये हिंसक अभिव्यक्ति ‘बंद'  ये सब क्रियान्वयन होने में हमें मदद कर पायेगी  ??  मैंने भारत में होने वाले ज्यादातर बन्दों को हिंसक होते ही देखा है और उसमें पिसते हैं हम सब लोग !

बहुत पहले एक कहानी “श्रद्धांजलि“ लिखी थी (नीचे पढ़ें ) बंद के वीभत्स रूप पर, भगवान करे ऐसा किसी के साथ ना हो, पर अगर बंद होते रहे तो ऐसा होने का शक हमेशा दिमाग में बना रहेगा !!-

श्रद्धांजलि


गली में आज अजीब तरह का सन्नाटा छाया हुआ था, हर कोई स्तब्ध था. घटना ही ऐसी रोंगटे खड़े करने वाली थी. सोने से पहले मूला के छोटे लडके मुरारी ने सुनहरे कल के सपने देखे थे, वो जब अपना ठेला लगाकर शाम को घर लौटा तो उसकी बहन कमला ने भाई को पानी देते हुआ कहा की कल तो मेरा दिन है !! रखाबंधन है, मेरा भाई मेरे लिए क्या ला रहा है ? मुरारी बहुत खुश हुआ और तपाक से बोला की इस बार कुछ नही दूँगा तेरे को... और मन ही मन हँस रहा था, क्यूंकि उसने मन में कुछ सोच रखा था.

उसका धंधा आजकल कुछ कम हो रहा था, लोग नए नए बने मल्टीप्लेक्स बाजारों में ज्यादा जा रहे थे. सोचा कल सुबह जल्दी जागकर कुछ स्पेशल ऑफर अपने ठेले पर लगाऊंगा; जिससे कुछ ज्यादा भीड़ जुट सके, कई तरह के आईडिया उसने सोचे. सुबह जल्दी जागा, उसको परवाह नही कि क्या हो रहा है बाहरी दुनिया में, जल्दी से नहा धोकर अपने ठेले को लेकर उसमें सारा चाट का सामान रखने लगा, उसने सोचा कि कोई आवाज नहीं हो...नहीँ तो कमला उठ जायेगी, वो तो आज इसलिए ही इतना आनंदित है की रात को जब घर आएगा अपनी बहन के चहरे पर प्यारी सी मुस्कान देखेगा.

सब कुछ सामान्य सा ही था, आवारा कुत्ते घर के सामने पहरेदारी कर रहे थे, शर्मा जी ढूध लेने जा रहे थे, अभी कुछ लोगो के लिए बिस्तर पर और नीद लेने का टाइम था, पर मूला के घर में लोग इतना नही सो सकते थे, एक दिन भी अगर समय से अपने काम पर अगर वो नही जाते तो दूसरे दिन का खर्च कैसे चलेगा और ऊपर से कमर तोड़ती हुई महंगाई , उन लोगो के लिए सुकून नही था जीवन में, चाहे कोई भी मौसम हो, काम तो करना ही था.

मुरारी 10th में तो सक्सेना सर के लडके के बराबर अंक लाया था, अगर उसको प्रैक्टिकल में थोड़े और नम्बर मिले होते तो स्कूल में वही टॉप करता, लेकिन आगे वो नही पढ़ सका, उसने ठेले पर अपने पिता का हाथ बटाना शुरू कर दिया, उसको ठेला तो जैसे विरासत में मिला था.

कुछ दिनों बाद मुरारी का ठेला पूरे कस्बे में मशहूर हो गया था और कई कई बार तो सुबह का निकला हुआ वह देर रात तक अपनी दूकान बंद कर पाता. लोग उसके नाम से उसको जानने लगे थे. लोगो को लगता की उसने चाट इसलिए महँगी की क्यूंकि वह मशहूर हो गया है, पर उसके दाम बढाने के पीछे तो कमर तोडती महंगाई थी.

कड़ी मेहनत के बाद कुछ कर्ज चुकाने में सफल हो पाया था. मूला बहुत खुश था कि उसके लडके ने उसका काम बढिया तरीके से संभाल रखा है. एक बाप को इसके सिवाय और क्या चाहिए कि उसका बेटा उसके परों पर खड़ा हो गया है.

सब कुछ ठीक चल रहा था. पर जैसे कहते है की दिन के बाद रात और छाँव के बाद धूप जरूर आती है, इस गरीब घर की खुशियों के लिए भी ऐसा कोई तूफान जैसे इंतजार कर रहा हो. मुरारी के पास इतना समय नही था की वह रात को टीवी पर समाचार देख सके या फिर रियलिटी शो का लुत्फ उठा सके, उसके लिए तो उसके रोज के ग्राहक और चाट खाने वाले ही सब कुछ थे. उसकी बाहरी दुनिया उस कस्बे तक ही सीमित थी. गीत गुनगुनाते हुए अपने ठेले को लेकर वह चौराहे की और बढ़ रहा था.

आज उसे बाजार की सड़को पर रोज वाल्क के लिए आने वाले गुप्ता जी और शर्मा जी की जोड़ी नही दिखाई दी, सोचा की कही बाहर गए होंगे या फिर सोते रह गए होंगे, ऐसा सोचते सोचते उसने अपना स्टोव बाहर निकाला और उसमें हवा भरने लगा. कुछ आवारा कुत्ते ठेले के पास उसका सामान खाने की कोशिश करते उसके पहले ही उसने डेला उठाकर उनको भगाया.

आज उसको अपनी सारी उपलब्धियाँ याद आ रहीं थी, वो सोच रहा था की क्यों मेरे मन में ये सारी बातें आज आ रही है. बचपन, उसकी माँ की असहनीय अवस्था और फिर असमय मौत सब कुछ जैसे उसकी आँखों के सामने से गुजर रहा हो, और फिर अचानक से सोचता की मैं क्यों ये सब याद कर रहा हूँ ??

आज उसने कुछ स्पेशल मिठाई बनाई थी जो वह हर ५ रुपये के चाट पर फ्री देने वाला था, सोच रहा था की आज की सारी कमाई मेरी बहन के लिए होगी. वो उसके लिए आज सायकिल लाने की सोच रहा था, मूला ने एक दिन सायकिल की वजह से कमला को बहुत डांटा था और फिर वो सहम कर छत पर चली गई थी. उसके सपनों में वो सायकिल पर जा रही थी और अपने आप को परी समझ रही थी, बडबडा रही थी की देखो आज मेरे भाई ने सायकिल दिलवा दी , उसके सपने और बुदबुदाहट से मुरारी की नीद खुली और उसने उसको बोला सोने दे, सुबह उठना है मुझे. वह उस दिन की बात को उसी रात भूल गया था पर आज उसे वो सब याद आया और सोचा की रात को ठेले की कमाई को लेकर और कुछ और मिलाकर सायकिल लूँगा. यही सब सोचते सोचते एक - डेढ़ घंठा कब निकल गया, पता ही ना चला.

आज बाजार में उतनी चहल पहल नही थी. जैसे ही सूरज की किरणों ने उजाला बिखेरा, मुरारी भी आशान्वित होकर खड़ा हो गया की ग्राहकों के आने का टाइम हो चला. कुछ देर में ग्राहक तो नही पर कुछ कुरते पजामे वाले लोग आए और बोले, तेरे को पता नही आज बंद है और तुने दूकान खोल ली, कुछ ज्यादा ही अपने आप को हीरो समझ रहा है ये, इस तरह से उन लोगो ने उल्टा सीधा बोला और उसको धमका कर आगे बढ़ गए. उसने सोचा की कोई गुंडे लोग लग रहे है, मुझे इनको नजरअंदाज कर देना चाहिए. और वह फिर से अपने काम में लग गया. इस बार फिर से कुछ और कुरते पजामे वाले लोग आए पर कुछ दूसरी पार्टी के लग रहे थे, उन्होंने उसका उत्साह बढाया और बोले की तुम हो सही नागरिक जो ऐसे में अपनी दूकान खोलकर बैठे हो . उन लोगो के कुछ पोहा खाया और आगे बढ़ लिए.

मोरारी थोड़ा आशंकित हुआ और सोचा की बात क्या है, लग रहा है गुंडों के दो गुट उन आवारा कुत्तो की तरह घूम रहे है, सोचा की घर वापस चला जाए और फिर उसे अपनी बहन याद आई और उसने सोचा की नही आज तो मैं कहीं नही जाने वाला. एक आशा के साथ वह वहीं ग्राहकों के इंतजार मैं खड़ा रहा.

इस तरह से पसोपेश मैं कुछ सुबह के १०:३० बज गए थे. इतने मैं एक लड़का चाट खाने आया. मुरारी उसको चाट बना ही रहा था की कुछ लोग नारे लगाते हुए निकले की 'गरीबो की पार्टी कैसी हो, ... जैसी हो". फिर बोले की शान्ति से आप दुकाने बंद कर ले नही तो हमारे कार्यकर्ता आयेंगे और बंद करा देंगे. मुरारी तो जैसे अब हर चेतावनी नजरअंदाज ही करता जा रहा था, क्यों न करे, उसके मन मैं कुछ सुनहरे सपने जो पल रहे थे.

मुरारी का उद्देश्य था अपने पेट का पालन और घरवालो को खुशियाँ देना, जबकि उन नारे चिल्लाने वालों का तथाकथित लक्ष्य गरीबो की पार्टी को बंद के जरिये सफल बनाना था. इतने मैं ही कुछ लोगो में जो दूसरी पार्टी के थे, धक्का मुक्की होने लगी और एक चिल्लाया , मारो सालो को, छोडना मत, इससे अच्छा मौका नही मिलेगा .... लाठिया बाहर आ गई और शान्ति का वो मोर्चा हिंसक रूप लेने लगा, किसी ने बन्दूक निकाली और हवा मैं फायर किया, मुरारी ने ठेला वही छोड़ा और भागने लगा, पुलिस भी कहीं इक्का दुक्का दर्शक बनी घूम रही थी,  पुलिस पर भी पत्थर बरसने लगे और तभी पुलिस को आँसू गैस छोड़नी पड़ी , इतने में ही किसी ने एक और गोली चलाई और वो लगी भागते हुए मोरारी को…

...और ऐसे कई मुरारी इस तरह बंद का शिकार बने.


लोग कहते है की बिना बंद के सरकार नही सुनती, सब ठीक है, तर्कों का कोई अंत नही, पर अब मुरारी के परिवार का क्या होगा?? उसकी गली के सन्नाटे के पास भी इसका जबाब नही. क्या सरकार की राहत वो खुसी देगी जो उसकी बहन को उसकी सायकिल से मिलती ...??


जेहन मैं ऐसे सवाल हर पल आते रहते है
फिर भी हम इन्सान क्यों न रह पाते है
हर गली मैं ऐसे कई मूला और मुरारी मरते है
फिर भी ये बंद कैसे सफल होते है
हर तरफ सन्नाटा छाया रहता है
फिर भी राजनीती के दलाल व्यापार करते है
हर कोई सुनकर स्तब्ध रह जाता है
फिर भी ये बंद हर रोज होते है
जान और माल का नुकसान ये करते है
फिर भी ये बंद क्यों बंद नही होते है


- राम