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गुरुवार, 20 मई 2010

भोपाल गैस त्रासदी || नम आँखें तरसती न्याय को ...

 दिसम्बर २-३ की रात और १९८४ का साल - क्या कोई भूल पायेगा ? बहुत ही गंभीर और दिल दहला देने वाली ये वीभत्स घटना पता नहीं कितनों  के घर और जिंदगी उजाड़ गयी.  कुछ वहीं  धरासायी हो गए और कुछ जीवन भर के लिए खराब/अपंग और कुछ को वंशानुगत बीमारी का अभिशाप मिला.  अधिकारिक आंकड़ो के अनुसार ५००० से १५००० लोंगों म्रत्यु के शिकार हुये और इससे कहीं अधिक कभी ठीक न होने वाले बीमारी, अंधेपन और लाचारी के शिकार हुये. खतरनाक विषैली गैस methyl isocyanate के रिसाव की वजह से लगभग ५० हजार से ज्यादा भोपाली लोग प्रभावित हुये.  मुझे नहीं लगता की आजादी के बाद के भारत में ऐसी कोई ओद्योगिक त्रासदी हुई होगी.


सरकार और उस समय के कांग्रेसी मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह इतने कद्दावर नेता होते हुये भी उस समय और बाद में लोंगों को कुछ  भी न्याय नहीं दिला पाये. वो खुद भोपाल से उस दिन दूर भाग गए और ये भी भूल गए की वो प्रदेश के मुखिया है. और फिर तो ये सिलसिला लगभग २५ साल से ज्यादा चलता रहा, कोई उन हजारो लोंगों का सहायक न बना जिनकी जिंदगी और घर दोनों इस त्रासदी ने अपने राक्षसी संहार में समा लिए.  बर्बादी शब्द जैसे इस दिन के लिए ही रचा गया हो.  लोंगों की जानें और जिंदगी गयी, कुछ आश बची थी  वो भी ज्यादा दिन नहीं चली और उसका अनेक कारणों में से कुछ  कारण थे - "न्याय की लम्बी लड़ाई, भ्रष्टाचार की दर बदर ठोकरें ,  और नेताओ की सोची समझी अनभिज्ञता और अकर्मण्यता"

सुनाने में आया है की लगभग ४०० टन विषैली गैस को इस त्रासदी के बाद वहीँ दफना दिया गया था और वो अभी भी आसपास का पर्यावरण खराब कर रही है. प्रदूषित हवा तो शायद अब ना रही पर पानी अभी भी प्रदूषित है और इसकी वजह से अनेको बीमारियाँ फैल रही है.

ये कारखाना था यूनियन कार्बाइड का जो की अब डाऊ केमिकल के नाम से जाना जाता है,  अमेरिका की जानी मानी कंपनी है, मुझे नहीं लगता की इस पर कोई असर हुआ या इसकी क्रेडिट पर कोई असर हुआ.  पश्चिम के देश पर्यावरण पर तीसरी दुनिया के देशो को हमेशा भाषण देते रहते हैं पर जमीनी हकीकत कुछ और ही है.  अगर ये हादसा अमेरिका या यूरोप में होता तो शायद ये कंपनी आज बिज़नस में नहीं होती, पर "हू केयर्स अबाउट पूअर्स एंड थर्ड वर्ल्ड"

वारेन एन्डरसन जो उस समय CEO था,  ७ दिसम्बर १९८४ को मध्यप्रदेश सरकार ने  इन महाशय को गिरफ्तार भी किया पर ये जमानत पर ऐसे छूटे की फिर कभी भारत लौटने का नाम नहीं लिया और अमेरिका में तो इनका कोई बाल भी बांका नहीं कर पाया.  अभी अमेरिका में इनके पास कई घर है और शानो शौकत से बिना किसी रोकटोक के मस्त जीवन जी रहे है.  अर्जुन सिंह और उनकी फॅमिली भी मस्त जीवन जी रहे है और राहुल लाला अमेठी में विदेशी मेहमानों के साथ व्यस्त है.  लोग अभी भी इस अभिशाप से झूझ रहे है.  ये एक चक्रव्यूह है जिसमें से निकलना असंभव है, रोगों की इस रिकर्सिव श्रंखला में भोपाल के ये अभिशप्त  लोग तड़प तड़प कर हर दिन इश्वर से उस दिन को भूलने और न्याय पाने की गुहार कर रहे है. 

नेताओ की बात न करें तो बेहतर होगा पर इनके बिना बात भी तो पूरी नहीं होती, कांग्रेस और BJP के नेता इस त्रासदी की आड़ में अपनी अपनी राजनीतिक रोटियां सेकंते रहे,  संवेदना विहीन और स्वार्थी , कथित महान राजनीतिज्ञों ने अपने लिए महल बनवाये और गरीब न्याय की आस में रोता रहा, यहाँ तक की मुआवजे की राशि को डकारने में भी ये लोग सकुचे नहीं.  प्रभावित लोंगों को ना तो पुनः रोजगार मिला और न ही उनके हक का पैसा.  मिली तो बस दर दर भटकने और न्याय माँगने की सजा. 

ये फैक्ट्री १९६९ में भोपाल में स्थापित हुई और तब ५१ प्रतिशत यूनियन कार्बाइड का हिस्सा था और ४९ प्रतिशत भारतीय निवेशको का हिस्सा था.  इसने रोजगार भी प्रदान किये पर आंकड़ो और इसके इतिहास को देखें तो नहीं लगता की कभी भी ये कंपनी पर्यावरण के प्रति जागरूक थी

विकिपीडिया के अनुसार :
  • १९७६ में इसके प्रदूषण की वजह से दो ट्रेड यूनियन ने अपनी प्रतिक्तिया जाहिर की
  • १९८१ में एक कार्मिक जहरीली गैस का शिकार बना
  • १९८२ में भी कुछ २५ लोंगों को संक्रमण की वजह से अस्पताल में भर्ती किया गया
  • १९८२-८३-८४ में कई गैस रिसने की छोटी मोती घटनाएं हुई
समय रहते सावधानी नहीं बरती गयी,  १०० प्रतिशत लापरवाही का नतीजा थी ये दर्दनाक बीभत्स दारुण घटना.

२६ साल गिनने में भले ही आ जायें पर क्या असहनीय दर्द और असीमित पीड़ा सहकर भी जीने वाले लोंगों के लिए भी ये २६ बर्ष ही होंगे ?   ये अभिशाप पता नहीं कब टलेगा....हालांकि जून ७ को एक स्थानीय अदालत इस बारे में अपना फैसला सुनाने जा रही है.  जैसा की बोलते है की देर है पर अंधेर नहीं ...पर इतनी देर कि कोई इस शूक्ति के अर्थ पर विश्वास ही न करे.  केसुब महेंद्र, विजय गोखले, किशोर कामदार, ज मुकुंद, एस. पी. चौधरी, के वी शेट्टी आदि को कटघरे में खड़ा किया जाएगा पर क्या वारेन एन्डरसन को भी सजा मिलेगी ?  जब लाभ कमाने के एवज में बोनस मिलता है तो लापरवाही की सजा भी तो मिलनी चाहिए और ये तो ऐसी लापरवाही कि शब्द भी इस नर संहार को परिभाषित करने में शर्म महसूस करेंगे.


मेरी आँखे नम हैं, दिल में अजीब सा दर्द है और अंतर्द्वंद कई दिन और सालों से ...उंगलिया लिखती ही जायेंगी पर फिर भी उनका दर्द बयां नहीं कर पाएंगी.

फोटोग्राफर समीर जोधा कहते है की "हम सिर्फ इसलिए भोपाल त्रासदी को नहीं भूल सकते क्यूंकि ये गरीब के साथ घटी"  ..समीर जी BBC के एक प्रोजेक्ट पर काम कर रहे थे जो की इस त्रासदी के ऊपर केन्द्रित था.  उनके अनुसार उस टाइम मीडिया का उतना सक्रिय न होना भी एक कारण था की ये घटना विश्व के सामने सही प्रभावशाली तरीके से नहीं आ सकी. पर आज कि हमारी अतिसक्रिय मीडिया क्या कुछ कर रही है इस बारे में ?

कैसे दर्द को झेला होगा अनगिनत को गिनते गिनते
आंसू भी कम पड़ गए होंगे शब्दों की तो बात क्या
कहीं पालनहार न रहा तो कहीं बुझ गयी मासूम किलकारी
कोई जिन्दा तो रहा पर मरने से भी बदतर रहा
गरीबी में ही क्यों होता आटा गीला
शायद भगवान् से भी गलती हो गयी


कुछ विडियो जो की दिल दहला दें मेरा, विस्वास है की न्याय करने वालो ने भी महसूस किये होंगे संवेदना और दर्द के अहसास ..









 
 
- राम त्यागी
 
आवश्यक सूचना - चित्र और कुछ सामग्री गूगल, विकिपीडिया और रीडिफ़ वेबसाइट से ली गयी है.