न्यूयार्क यात्रा के पिछले अंक – १ २
बात दूर दूर तक फैल चुकी है, रोज समाचारों में भी खूब बहस चल रही है, एलीवेटर टॉक का हिस्सा भी है और भारत में भी अब तो शायद इस पर बहस चल रही होगी, जैसे कहते हैं ना - बात चली है तो दूर तलक जायेगी …..
पर चलो पहले कुछ और बात करके मूड हल्का किया जाए …
ग्राउंड जीरो - वह जगह जहाँ २००१ में वर्ल्ड ट्रेड सेण्टर के सबसे ऊंचे दो गगनचुम्बी टावर आतंकवादी हमले में गिरा दिए गये थे और उसको अमेरिका की सरकार ने ग्राउंड जीरो नाम दिया, यहाँ फिर से एक इमारत बनाने की तैयारी है!!
जब तक न्यूयार्क में हूँ तब तक रोज सुबह और शाम को इसके चारों और होकर गुजरना पडता है जैसे परिक्रमा दे रहा हूँ किसी समाधि के चारों और। हालांकि ऐसी कभी भावना नहीं आई पर कितने लोगों ने अपनी जान गँवा दी थी बिना वजह इस स्थल पर :( !! दिन में तो काम चलता ही है पूरे जोर से, रात में और भी गति बढ़ जाती है काम की, शहर की सबसे व्यस्त जगह होने की वजह से रात में ही मरम्मत का सामान शायद आ पाता होगा।
मुझे तो लोगों (- जो ८ से ६ के बीच के श्रमजीवी या वातानुकूली हैं ) का इतना हजूम दिखता है कि बस भीड़ में खड़े हो जाओ और शादी में स्टेज की तरफ आती नववधू की तरह तिल तिल कर कदम खिसकाते रहो, खुद ही पैरों की गति तेज हो जाती है भीड़ के रेलमपेल में !! चाहे लालबत्ती वाले साहब हों या फिर लालबत्ती के साहब का चपरासी - या फिर हजारों डॉलर के खर्चे पर पल रहे हम जैसे लोग जो दिन में १-२ लाइन कोड लिखने और मीटिंग मटरगस्ती में सारा दिन खस्ता कर देते हों, या फिर सिटीबैंक का सीईओ, आपका बॉस या फिर आपके नीचे काम करने वाले - सब इसी भीड़ में दौड़ते हुए पाये जायेंगे - चलो कहीं तो भेदभाव नहीं हैं - जमीन पर पैर कभी तो कहीं तो सब एक जगह रखते हैं! कितना भी उड़ लो, अंत में लैंड तो करना ही पड़ेगा :)
हमारी दिल्ली और मुम्बई से पश्चिम के शहर केवल सार्वजनिक परिवहन सेवा में आगे थे , पर अब तो दिल्ली में भी मेट्रो की चमक है - खैर लन्दन हो या पेरिस, बर्लिन हो या न्यूयोर्क - इन सब जगहों पर मेट्रो ने कई मीलो की दूरी कुछ मिनटों के फासलों की बना दी हैं, मुझे इन सब शहरों की मेट्रो सेवा उम्दा किस्म की लगी, बस आपको भीड़ भड़क्के की आदत होनी चाहिए और बच्चे सुबह और शाम के समय साथ में नहीं होने चाहिए। फ्री में पेपर बांटने वाले हर मेट्रो स्टेशन के बाहर खड़े होते हैं - बेचारे हर किसी को एक पेपर देने की कोशिस करते हैं - बचपन में रद्दी में पेपर बेचकर कुछ तो मिलता था और अब जल्दी से कोई recyle वाला डब्बा देख उसे फेंकने की कोशिस करते हैं, जब घर में पड़े पेपर, और मैग्जीन फेंकते हैं फोकट में तो रद्दी वाला जरूर याद आता है !! पश्चिम के लोग पर्यावरण के बारे में कितने नासमझ हैं :-)
आजकल जो समाचार पत्र में रोज पढने को मिल रहा है उसमें एक मस्जिद की चर्चा जरूर रहती है, अमेरिका में बहस तेज हो रही है इस मस्जिद के बारे में !!! ग्राउंड जीरो के आसपास एक पुरानी इमारत है जिसको अब कोर्ट ने हरी झंडी दे दी है उसको मिटाकर वहाँ कुछ और बनाने की, इसी इमारत की जगह जो कि WTC से कुछ ही मीटर की दूरी पर है - मुस्लिम समुदाय ने एक इस्लामिक केंद्र और भव्य मस्जिद बनाने की योजना बनायी है, इसके लिए कई मिलियन डालर का चंदा इकट्ठा किया जा रहा है ! न्यूयार्क और अमेरिका के मुसलमानों के लिए अब यह एक भावनात्मक मुद्दा बन गया है और टैक्सी ड्राईवर से लेकर हर किसी स्तर पर हर मुसलमान कुछ न कुछ अपना सहयोग देने को आतुर है !
मैं ये तो नहीं कहूँगा कि एक और बाबरी मस्जिद जैसा कौतुहल और विवाद खड़ा हो रहा है पर हाँ इसने उस समय की यादें जरूर ताजा कर दी हैं - जहाँ हर कोई अपने अपने तर्कों से अपना अपना पक्ष रखने की कोशिस कर रहा है - एक और स्वतंत्र जीवन जीने का मौलिक अधिकार है वहीं दूसरी और तथाकथित दोगले पश्चिमी लोगों का असली रूप सामने आ रहा है । जो २००१ की दुहाई देकर इसे एक भावनात्मक मुद्दा करार दे रहे है। भारत क्या करे जहाँ हमने अनगिनत २००१ देखे है फिर भी एक सम्बल राष्ट्र बनकर खड़ा है धार्मिक स्वतन्त्रता के लिए !!
पहली बार भारत जैसा द्रश्य दिख रहा है जहाँ पर यहाँ के राजनीतिक लोग दोनों समुदायों को खुश करते दिख रहे हैं, ओबामा ने मुस्लिम समुदाय को जब डिनर पर बुलाया तो ओजस्वी होकर वक्तव्य दिया कि हर धर्म को पूरी तरह अपने धर्म की स्वतंत्र अभिव्यक्ति का अधिकार है और एक मस्जिद कहीं भी बनाई जा सकती है , सुबह जब डेमोक्रेट पार्टी में भूचाल आया तो ओबामा ने अपने बयान पर लीपापोती की ! यहाँ के मेयर ब्लूमबर्ग तो खुलकर मस्जिद के पक्ष में आ गये है वही डेमोक्रेट पार्टी के मैजोरिटी नेता रीड जो कि चुनाव का सामना कर रहे हैं और ओबामा के धुर समर्थक हैं, मस्जिद के विरोध में खड़े हो रहे हैं क्यूंकि अमेरिकन जनता वोट तभी देगी जब आप मस्जिद का विरोध करोगे …
खैर ये तो थी राजनीतिक पशोपेश - जो हर जगह स्वार्थ और वोट बैंक पर टिकी है, इनको सिद्धांतों और मानवीय संवेदनाओं से कोई दरकार नहीं !!
दो पहलू हैं –
१) क्या मुस्लिम समुदाय को समझौता नहीं कर लेना चाहिए ?- यहाँ मस्जिद बना कर क्या हो जाएगा, धर्म का अर्थ है सहिष्णुता और भाईचारा ! इस आधार पर क्या मस्जिद के सयोजक हटेंगे अपने हट से ? पर फिर मुद्दा आता है कि हर मुसलमान आतंकवादी तो नहीं हैं ना और WTC के टावर को गिराने के पीछे मुस्लिम धर्म तो नहीं था - कुछ कट्टरपंथी आतंकवादी थे जिन्होंने ऐसा किया, उनकी वजह से पूरे धर्म पर शंका क्यों ? क्या अगर चर्च बन रही होती तो भी ऐसा ही करते लोग - पर लोग कहने से कहाँ रुकेंगे क्यूंकि “लोगों का काम है कहना” !!
२) मस्जिद का निर्माण हो जाना चाहिए , पर यहाँ के अधिकाँश लोगों की भावनाओं और संवेदनाओं को देखकर लगता है कि मस्जिद की सुरक्षा एक बड़ी जिम्मेदारी होगी और कुछ असामाजिक तत्व इसे भविष्य में नुकसान पहुंचाने की भरपूर कोशिस करेंगे, जिससे सांप्रदायिक माहौल खराब हो सकता है - क्या ऐसा करके ये एक और बाबरी मस्जिद बनाने जा रहे हैं ? पर इस डर से धर्म के अनुयायियों पर अंकुश नहीं लगा सकते और ऐसा किया गया तो अरब से लेकर एशिया तक हर मुस्लिम आहत होगा !!
यानी - “भई गति सांप छछुन्दर जैसी “ अमेरिका के लिए…
ऐसा लग रहा है - इमारत बन रही है पर सम्वेदनाएं मर रही हैं - आप क्या कहते हैं ??
ये ठेले बहुत पसंद हैं सबको - इन विवादों से दूर: