हिंदी - हमारी मातृ-भाषा, हमारी पहचान

हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए अपना योगदान दें ! ये हमारे अस्तित्व की प्रतीक और हमारी अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है !

सोसल नेटवर्किंग लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
सोसल नेटवर्किंग लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

मंगलवार, 5 अक्टूबर 2010

सोसल नेटवर्किंग

 

Social_network_film_poster फेसबुक के ऊपर बनी फिल्म ‘सोसल नेटवर्क' दृढ इच्छाशक्ति, और अर्जुन की तरह एकाग्र मार्क जकरबर्ग के आसपास घूमती है,  किस तरह हार्डवर्ड भारत के आई आई टी की तरह हीरे पैदा करता है, (गौर करने की बात है कि मैं कभी भी उल्टी तुलना नहीं करता, आई आई टी  और आई आई एम जैसे संस्थानों से निकलने वाले भी ऑक्सफोर्ड और हार्डवर्ड से कमजोर नहीं होते ! )  एक विलक्षण प्रतिभा वाला कंप्यूटर प्रोग्रामर कैसे ४० बिलियन की एक संस्था खड़ी करता है और कैसे वो नयी और अद्वितीय सोच के साथ सब रंगरेलियों से दूर अर्जुन की तरह एकाग्र हो ५०० मिलियन से भी अधिक लोगों को एक प्लेटफोर्म देता है जहाँ वो रोज कई बार फेस बुक पर लोगिन कर उसकी मार्केटिंग शक्ति को दिनों दिन बढाते जा रहे हैं , पर खुद ये अर्जुन अपने आप को कितना अकेला पाता है ! विद्वान कहते हैं न कि - ‘कुछ पाने के लिए कुछ खोना पडता है’  - पर कभी कभी हम कितना कुछ खो देते हैं सफलता की सीढियाँ चढते चढ़ते !  शायद बहुत दिनों बाद किसी फिल्म को पांच में से पांच अंक देने का मन कर रहा है !

इन सब सफलताओं और हमारे दिनों दिन बढ़ते हुए सामाजिक संरचनात्मक दायरे पर एक नजर दौडायें तो मन में विचारों की उद्वेलन होना स्वाभाविक है. कुछ विशेष उदाहरणों के जरिये हमारी सम्पर्क क्षमता के वेग और बढते दोस्तों की संख्या का विश्लेषण करते हैं !

काफी दिन पहले अनुराग जी ने अपने फेस बुक पर अपने स्टेटस में लिखा था – “I have so many friends that I can't count. Can I count on them?”  - सामाजिक नेटवर्क के कितने साधन हैं, ऑरकुट, फेसबुक, ट्विटर और बज्ज से लेकर ब्लॉग तक कितने दोस्त हम रोज बनाते हैं, अनगिनत अनजाने चेहरे आपसे रोज जुडते हैं, बहुतों को पुराने स्कूल के और कोलैज के मित्र भी इन नेटवर्क के जरिये एक उपहार के रूप में बहुत दिनों के बाद मिले, पर कितने लोग आपके इतने पास हैं इनमें से कि जो आज आपके सुख दुःख में साथ हैं और जिनके साथ आप वास्तव में अपना दिल की बातें अभिव्यक्त कर अपने आपको हल्का महसूस कर सकते हैं या फिर आप उन दोस्तों का कितना ख्याल इमानदारी से रख पाते हैं ?  मैंने अनुराग जी के स्टेटस पर जो जबाब दिया, उससे मैं खुद संतुष्ट नहीं हूँ - बस उस समय जो दिमाग में आया लिख दिया था - शायद ये मेरी किसी (छोटी - या बड़ी - जैसे भी परिभाषित करें) विशेष सोच का द्योतक रहा होगा,  ये रहा अनुराग जी का सवाल और उनके कुछ फेसबुक दोस्तों के जबाब भी -

image

मेरे हिसाब से अनुराग जी ने बहुत ही महत्वपूर्ण मुद्दा उठाया जिस पर विचार अत्यंत आवश्यक है, ये सवाल हमें सोचने पर विवश करता है कि क्या वो दिन ही सही थे जब कुछ ही दोस्त थे पर वो वाकई में, और सच्चे अर्थों में अपने थे,  मैं ये कहकर अपने दोस्तों का दिल दुखाना नहीं चाहता और न ही किसी की विश्वशनीयता पर प्रश्नचिन्ह लगाना चाहता हूँ, पर उनके इस जबाब ने मुझे सोचने पर विवश किया, स्वनिरीक्षण और अन्तरविश्लेषण करना ही होगा कि क्या हम वाकई में अपने हर दोस्त का ख़याल रख पाते हैं ?

कुछ दिन पहले जब परिवार को न्यूयार्क एक महीने के लिए लाया तो कुछ दोस्तों के यहाँ जाना हुआ,  हर कोई किसी न किसी माध्यम से एक सामजिक संरचना और नेटवर्क से जुड़ा हुआ था, कोई हर सप्ताह मंदिर जाता है जिससे लोगों से मिलना होता रहे तो किसी ने हिंदी संगीत का कोई क्लब ज्वाइन किया हुआ है जिससे शौक के साथ भारतीय लोगों से मिलना भी होता रहे पर इस सबके बाबजूद सबकी जिंदगी में एकाकीपन सा दिखा - एक तलाश दिखी ऐसे दोस्त की जिससे अंतरमन की बाते, ऑफिस का बोझ या फिर किसी निर्णय के लेने में हो रही जद्दोजहद से हुए भारी मन का बोझ बांटा जा सके !

एक दोस्त हमारे गृहजिले के रहने वाले थे, बहुत सालों से मुलाकात ही नहीं हुई थी,  पिछले साल जब में न्यूयार्क  में मैं एक एस्केलेटर से नीचे उतर रहा था तो उसने अचानक से मेरा नाम एक प्रश्नचिन्ह के साथ लिया - दोनों ने ही शरीर में बढोत्तरी कर ली थी, और करीबन १२ साल बाद मिले होंगे पर फिर भी पहचान लिया, बातचीत हुई,  ईमेल ले लिए गये, फेसबुक और तमाम नेटवर्कों पर उसने निमंत्रण भेजा जिससे कि रोजमर्रा में हम एक दूसरे के साथ संपर्क में रह सकें ! ध्यान देते वाली बात है कि एक दूसरे के स्टेटस पर वाहवाही और कमेन्ट करते रहने को संपर्क में रहना कहा जाता है !

जब इस साल परिवार को न्यूयार्क लाया तो उसका एक सन्देश देख मैंने पूछ लिया कि कब बुला रहे हो घर , तुम्हारे ही  शहर में परिवार के साथ हूँ मैं!  उसका कोई प्रत्युत्तर नहीं आया - कुछ दिन इन्तजार किया, एक - दो बार पिंग किया पर वापस पिंग का जबाब नहीं आया, तत्क्षण मुझे तनिक बुरा लगना स्वाभाविक था, पर थोड़े दिनों बाद मेरे दिमाग से भी ये बात निकल गयी ! 

तीन चार सप्ताह के बाद चैट पर ये महाशय हालचाल पूछने के बहाने से बात करने लगे और फिर एकदम से माँफी माँगने लगा, उसकी जब बात सुनी तो खुद ही को ग्लानित पाया ! उसने बताया कि उस समय वो परेशानी में था , नौकरी शिफ्ट कर रहा था या नौकरी तलाश कर रहा था , मजबूरी में घर की बजाय होटल में परिवार के साथ  रुरुकने पर मजबूर था, ऐसे में मुझे कैसे अपने घर बुलाता ?  उस समय वो एक अजीब तरह की मानसिक अवस्था से गुजर रहा होगा, वर्क वीसा पर आप अमेरिका में परिवार के साथ हो और नौकरी नहीं है या नौकरी परेशानी में है तो चिन्ता और निराशा और सामजिक दबाब बुरी तरह से आपको तोड़ सा देता है!  शायद ही किसी से वो अपनी दशा उस समय बाँट रहा होगा , इतने दोस्त होने के बाद भी कितना अकेला अपने आप को अनुभव कर रहा होगा !  क्या यही हमारे रोज के संपर्क में रहने का पर्याय है, क्या यही मेरे इतने नेटवर्क समूहों पर सक्रिय रहने का सत्य है - ये सब सवाल ऐसी घटनाओं के जरिये मानस पटल पर आपको जरूर सोचने पर मजबूर करते होंगे ! ये घटना सत्य हो न हो पर हम सब कभी न कभी ऐसी स्थिति से जरूर रूबरू हुए होंगे और तब मनःस्थिति इतनी भीड़ में भी खुद को अकेला सा पाने जैसी हो जाती है !!

जन्मदिन की शुभकामनाओं और कमेन्ट देने से आगे सोचने का समय ही कहाँ है , या फिर खुद को इतनी जगह व्यस्त कर रखा है कि किसी के साथ भी न्याय नहीं कर पा रहे  !  सूचना के आदान प्रदान तक सोसल नेटवर्किंग यथोचित है पर उसको अगर हम दोस्ती की जिम्मेदारी की पराकाष्ठा पर नापने लगे तो शायद ही उत्तीर्ण हों !  बाजारू व्ववस्था का मार्ग प्रशस्त करने वाले इन माध्यमों ने एकाकीपन सा पैदा कर दिया है, जहाँ बाहर से चमक दमक और सब महका सा दिखाई देता पर, कई लोग साथ दिखते है पर शायद ही कोई मुश्किल का हमराही हो ! अत्यधिक व्यस्तता, अनगिनत दोस्त, और हमारे अनचाहे स्वार्थ ने इतने संपर्क के साधनों के बाद भी और छटपटाहट और झुंझलाहट सी जिंदगी में ला खड़ी की है !

ये दार्शनिक और सार्थक सोच तो चलती रहेगी, काम की बात है कि फ़िल्म देखने लायक है :)