गर्मी बहुत थी, घर में हमेशा की तरह बिजली नहीं थी तो घुटन सी हो रही थी तो मैं थोड़ी देर के लिए बाहर नीम के पेड़ के नीचे बैठने चला आया !
आजकल राष्ट्र मंडल खेल जोरों पर हैं और दिल्ली भी चमक रही है - हर जगह विश्व भर से आये मेहमानों का स्वागत करने के लिए चकमक व्यवस्था है! मुझे गर्व है, ‘डी डी वन’ से चिपका रहा था कल उद्घाटन समारोह के दौरान और गर्व से सीना तना देख बीबी बच्चे भी कह रहे थे कि चलो आज ये खुश तो दिखे किसी बहाने से ! मैं आजकल कुछ ज्यादा ही निराश रहने लगा हूँ, इस युवावस्था में भी शायद गर्मी को झेलने की ताकत नहीं बची है अब इस शरीर में !
शायद कुत्ते को बाहर शौचालय जाना था तो सक्सेना जी भी अपने वातानुकूलित बंगले से बाहर सैर पर निकलते हुए दिखे, कुछ दिनों से मेरी तरफ देखकर जैसे मुझे अनदेखा सा कर रहे थे!
मुझे ऐसी आशंका है कि शायद (हाल ही में) उन्होने मेरा ब्लॉग पढ़ लिया था, जिसमें मैं वरिष्ट सरकारी अफसरों की अकर्मण्यता पर सवाल उठा चुका था तो कुछ उकसे हुए से रहते थे और मुझे ऐसे घूरते थे जैसे में एक असफल, संघर्षमय इंसान जो अमीर बनने के सिर्फ ख्वाब ही देख सकता हूँ - और फिर निराशा में और लोग जो नौकरी से अच्छा भला कमा रहे हैं उनको अनायास ही कोसता रहता हूँ! पर में स्वाभिमान के वटवृक्ष की छाया में खुद को ये सोचकर खुश कर लेता था कि ‘सबकी अपनी अपनी सोच है' , और फिर मैं तो इस देश का एक गांधीवादी नागरिक हूँ तो मुझे गर्वान्वित होकर जीवन जीना चाहिए !
मैंने जब अभिवादन करने के लिए अपना हाथ हिलाया तो पता नहीं आज कैसे मेरी तरफ हलकी सी मुस्कान लिए शेर कि तरह झपट मारते हुए आ धमाके और बोले - तुम ऐसे ही नीम के नीचे बैठे रहो, देखो कलमाडी को कितना ऐंठ लिया और देश का सर भी ऊँचा कर दिया !! हम तो एक सीदा सादा सब-इंजिनीयर हूँ, रोज साईट पर जाता हूँ, पसीना बहा बहा कर सीमेंट की बोरियों और मजदूरों के संख्या को अडबड-गडबड करके ऐसे तैसे कुछ कमा लिए तो तुम्हे परेशानी हो गयी और चिल्ला दिए इधर – उधर, हमें भी कंप्यूटर चलाना आता है - तुम क्या समझे ! ऐसे ही सुभाष चंद्र बोस हो - तो कलमाडी और पवार के खाते खोलो - खामखा हम जैसे सरकारी कर्मचारियों पर अपनी भड़ास निकलते रहते हो, खैर तुम नहीं समझोगे ये सब बातें, बस गर्व से फूले बैठे रहो उद्घाटन समारोह की चकाचौंध के तले दबे दबे !
बोलते ही रहे, मेरा मौन जैसे उनका सम्बल बन गया था आज ! आगे और दुत्कारा मुझे - कभी हमारी परेशानियों के बारे में सोच है, चार पत्रकार लोग हैं - दैनिक टास्कर वाला, दैनिक प्वदेश वाला, आदरण वाला और जामरण वाला सब अपना अपना पेपर बान्धने को बोलते है और अलग से पैसा भी देना होता है नहीं तो कभी भी कुछ भी छाप देते हैं, ऐसा करते करते तुम अनुमान भी नहीं लगा सकते कि कितने लोगों को अपनी पसीने की कमाई बांटनी पड़ती है तब ये घर बंगला बन पाया है , और आजकल तो एक शाम के अखबार वाला जिसका तुमने नाम भी नहीं सुना होगा - आकर बोलता है कि अपनी सारे लेबर से बोलो के रोज मेरा अखबार खरीदे - हर तरफ गुंडागर्दी है , कभी इस नीम के पेड़ की छाया से बाहर निकल कर देखो और अहसास लो असली तपन का !
मेरा मौन और प्रखर होता गया और शरीर की भावभंगिमायें प्रतिक्रिया में चेहरे पर ग्लानी के प्रखर भाव मुखरित कर रही थीं! सक्सेना जी ने चेहरे पर मायूसी बिखेरकर बोला - सबसे आगे हैं गली गली में घूम रहे नेते, हर दल का कोई न कोई गुंडा रोज घर आकार धमकी देते लगता है, इनका भी पेट भरना पडता है और घर के खर्चे !!! तुमको पता है कि ए सी और इनवर्टर का बिल कितना आता है ? दिवाली आ रही है - पता है कितने लोगों के मुँह मीठे करने पड़ेंगे - कडवे भाव लेकर ? खैर छोडो - मैं भी किसको पूँछ रहा हूँ !! अब बताओ कि सडकें बनाए , बाँध बनाए या फिर इन लोकतंत्र के स्तंभों को रिश्वत दे देकर सींचू ?
मेरे मुँह से अनायास ही कुछ शब्द निकले - जैसे कि मैं उनके तीक्ष्ण वेग बाणों से घायल हो बदहवासी में कुछ शब्द बोल पा रहा हूँ - “जी आप बिलकुल ठीक कह रहे हैं !” इतना बोलना था कि - सक्सेना जी तपाक से चुटकी भरने लगे - चलो अब मेंढक निकला कुए से बाहर !
बोले, चलो फिर… टेक केयर !! हम निकलते हैं - ‘टोमी (कुत्ते) को यहाँ बहुत गर्मी लग रही है!! और तुम भी अंदर हो लो - कहीं लू न लग जाए‘
मैं तो जैसे सक्सेना जी के बारे में - उनके दो नंबर के पैसे के बारे में, उनकी तथाकथित अकर्मण्यता के बारे में लिखकर जैसे बहुत बड़ी भूल कर बैठा था, पश्चाताप के भाव मुझे और मेरे विचारों को उद्वेलित कर रहे थे कि सक्सेना जी बेचारे कितने परेशान हैं उन लुटेरों से - जिनका भी वही हाल होगा उनको लूटने वालो से जो सक्सेना जी का है ! देखो बेचारे कलमाडी जी भी तो अन्तराष्ट्रीय दबाब और राष्ट्र मंडल खेलो के विशाल आयोजन में कितने विवश और परेशान दिखाई देते हैं ! और मैं अक्सर ही इन लोगों को कोसता रहता हूँ - मुझे कोई और काम नहीं हैं क्या – बेकार – बेकाम – निराश – रोऊ - भारत का आम नागरिक - जैसे तपती गर्मी से आम की तरह पिलपिला हो सबके कपडे खराब करने पर आमादा हूँ !
विचारों की ये उद्वेलना, उत्प्रेरक बन मुझे बुद्धिजीवी बना सपनों में विचरण करा रही थी, पर अभी अभी ‘पी डब्लू डी विभाग के उप अभियंता’ सक्सेना जी ने विशेष गुरुत्वाकर्षण बल से (उड़ते हुए) मुझ अधमरे इंसान को जैसे जमीन पर ला पटका प्रायश्चित की अनन्त समाधी में खोने को !!