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रविवार, 31 अक्टूबर 2010

हेलोवीन की डरावनी और रंगीन शाम मुबारक हो (कुछ चित्रों के साथ)

 

हर जगह लोग अजीब अजीब तरह के भेष बनाकर घूम रहे हैं, कुछ मस्ती में तो कुछ बच्चों के मन की संतुष्टि में !  इस बहाने बच्चों का रोमांच और बड़ों का बचपन सतरंगी छटा लिए अपने पूरे सबाब पर रहता है ! हेलोवीन के दिन ऐसा लगता है कि लोग डर को भी कितने रंगीन तरीके से और उत्साह से मनाते हैं. 

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ऑफिस में भी बड़े इंतजाम किये गये थे,  पिज्जा के साथ साथ तरह तरह की मिठाईयों की व्यवस्था की गयी थी, जिन पर डरावने चित्र बने हुए थे या फिर उनकी आकृति मकड़ी, हड्डी या फिर अन्य डरावनी जैसी थी, ऑफिस को मकड़ी के जालों और अन्य चीजों से एक डरावना रूप देने का प्रयास किया गया था, बाद में शायद कुछ सबसे बढ़िया ड्रेस पहनकर आने वाले के लिए कुछ इनाम के इंतजाम की व्यवस्था भी थी !  कोई भूत तो कोई परी बनकर आया हुआ था, तो हम जैसे भी कई लोग थे जो रोज की तरह जींश और कमीज को अपमानित करने के कतई मूड में नहीं थे.

हेलोवीन (Halloween) पर बच्चे  बड़े तरह तरह के वेशभूषा पहनते हैं, कोई डरावना तो कोई लुभावना बनने की कोशिश करता है, बच्चे ट्रिक या ट्रीट बोलते हैं और जिसके दरवाजे पर भी जाओ उससे ऐसा बोलने पर कैंडी या खिलौने मिलते हैं, लोग रात रात में डरावने किस्म की लाइट या रौशनी भी अपने अपने घर या दुकानों के सामने लगाते हैं ! अभी रात को बच्चों के साथ पुरे मोहल्ले में एक बास्केट लेकर घूमने जाना पड़ेगा और घर लौटने तक अनिगिनत कैंडी इत्यादि का जंक इन बच्चों के बास्केट में होगा. पर इसके चलते बच्चों और बड़ों का उत्साह देखते ही बनता है, चलो लोग इस बहाने से अपने व्यस्त जीवन से कुछ पल निकालकर कुछ मस्ती के मूड में तो आते हैं !! आपको भी एक टोकरी में तरह तरह की चोकलेट इत्यादि भर कर दरवाजे पर रखनी पड़ती है जिससे आने वाले बच्चे खाली हाथ ना लौटें !

आज यहाँ शहर की दुकानों पर भी कैंडी वितरण और हेलोवीन के मेला का हुजूम था, निकुंज ने खुद को स्पाईडर मेन और पॉवर रेंजर से प्रमोट कर NASCAR रेसर का ड्रेस पहना हुआ था.  चलो अभी तो दुकानों से इनको लौटाकर लाये हैं और अब बारी है मोहल्ले में घर घर जाने की !  मैंने तो नेता जैसे भेष धरा था क्यूंकि हमारे भारत सहित पूरे विश्व में इससे बड़ी डरावनी और लुभावनी चीज कोई नहीं :-) …नेता जो सब हड़प लेता !!

चलो कुछ फोटो देख लेते हैं: 

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रंगबिरंगी पोशाकें -

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कुत्ता भी पीछे क्यूँ रहे - dog

मशहूर होलीवुड एक्ट्रेस हैडी क्लम काली माँ के भेष में -

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भारत भी पहुँच रहा है ये साजो सजावट धीरे धीरे, अर्जुन रामपाल को देखिये -

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चलो अब यहाँ रात की तैयारी है !!

शुक्रवार, 29 अक्टूबर 2010

जीवन के रास्ते कभी कठिन तो कभी सरल …

 

कभी कभी कुछ लोगों से मिलता हूँ तो लगता है कि मैंने क्या मेहनत करी और क्या तिकडम !  लोग कितनी काम्प्लेक्स जीवन जी रहे होते हैं, शायद चिली की खदान में ६९ दिन फँसे लोगों से भी ज्यादा !

कुछ हफ्ते पहले एक टैक्सी ड्राईवर से भेंट हुई ! हम २-३ लोग थे तो मुझे उसके बगल की सीट पर बैठने का सौभाग्य प्राप्त हुआ,  पहला सवाल उनका - क्या आप लोग बांग्लादेश, पाकिस्तान या भारत से हैं ?  हाँ, सम्मान के साथ तनकर हमने भी बोला कि भारत से हैं ! उधर से ड्राईवर का जबाब आया और मैं भी बंगलौर से ! 

मैंने प्रश्नचित्र मुद्रा में उसकी तरफ देखा क्यूंकि महाशय की शक्ल किसी भी भारतीय कोने से मिल नहीं रही थी, फिर बोले के मैं तिब्बत से हूँ पर जन्मा और पला भारत में ही हूँ !  फिर महाशय अपने आप ही तिब्बत और भारत के रिश्तों और लोगों की हालत के बारे में मेरा ज्ञानवर्धन करते रहे !

खुद ही बताने लगा कि बड़ी बुरी हालत है, तिब्बत के लोगों को भारत में पासपोर्ट मिल नहीं पाता और तिब्बत में तो सरकार के बुरे हाल हैं ही, अगर तिब्बत जाना पड़े तो कहीं पहाड़ों के रास्ते अवैध रूप से पैदल चलकर आना और जाना होता है ! कई बार इस प्रोसेस में जेल की हवा भी खानी पड़ती है, वो खुद भी ऐसा करके तिब्बत में जिल जा चुका था  ! 

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अमेरिका कैसे पहुंचे ?

बोले कि बड़ी संघर्ष गाथा है, पहले नेपाल के पासपोर्ट का इंतजाम किया कुछ ले देकर - १-२ लाख रुपये में नेपाल का पासपोर्ट बन जाता है !  इस तरह से डर - छिपकर आना पड़ा !  अब भाईसाहब पेपर पर नेपाल के नागरिक हैं,  और जल्दी ही अमेरिका के नागरिक भी बन जायेंगे, क्यूंकि इस तरह से १० के लगभग साल यहाँ बिता दिए हैं !   क्या बीबी और माँ पिता को ऐसी अवस्था में बुलाना और कैसे बुलाना ! बड़ा ही चकरघन्नी और आफत वाला काम था - पर क्या करें लोग मंजिल तय करते करते कब बड़ी बड़ी खाईयां पार कर जाते हैं - पता ही नहीं चलता - सब इस पेट के लिए !

कुछ भाव एक कविता के रूप में उकेरने के कोशिश :

ये जीवन भी धूप छाँव का रेला रे

कभी कठिन तो कभी सरल सा लागे ये

अग्नि क्रोध की कभी उठे

तो कभी समुन्दर उत्सव के

कभी मोह की पाँश का झंझट

कभी अर्थ संचय का चिंतन

कभी बिछडने का गम घेरे

कभी मिलन की आश सँवारे

दम्भ घोर अन्धकार घुमाये

गर्व अनुभूति आनन्दोत्सव ले आये

कभी अतृप्ति अकेलेपन की

कभी विक्षोह परम मित्रों का

इन्द्रधनुष तो बस सतरंगी

जीवन के मेले बहुरंगी

गुरुवार, 28 अक्टूबर 2010

क्या सिर्फ अरुंधती रॉय ही देशद्रोही हैं ?

 

अरुंधती रॉय ने जो कश्मीर में या देश के अन्य हिस्सों में जाकर बयान दिए हैं, अवश्य ही वे देश के स्वाभिमान के लिए, देश की एकता के लिए और संप्रुभता के लिए उचित नहीं हैं, कभी कभी उनके विचारों से अपरिपक्वता और प्रचार पाने की मंशा झलकती है ! ये मीडिया में आकर अपने बयानों से देशद्रोह कर रही हैं, और इनको गिरफ्तार करने का बीड़ा विपक्ष भाजपा ने सशक्त रूप से उठाया है जिस पर एक और स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार तो दूसरी तरफ इस मौलिक अधिकार की मर्यादा के पहलुओं के बैनर तले एक बहस चल रही है !

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अब अगर दूसरे पहलुओं पर नजर दौडाएं तो मुझे नेट खंगालने की जरूरत नहीं हैं देखिये इस देश में कैसे देश के स्वाभिमान, देश की एकता और संप्रुभता का मजाक नेता और लाल फीताशाही उडाती है पर बस सुगबुगाहट होकर रह जाती है - कभी कुछ नहीं होता -

१. राजीव गाँधी बोफोर्स और स्विस बैंक खातों में काला धन जमा करने के बाद भी पोस्टर बॉय बने घूमते हैं - यहाँ तक कि उन्हें देश के लिए बलिदान होने वाला एक शहीद बोला जाता है

२. कलमाडी देश के स्वाभिमान और गर्व को तार तार कर हजारों करोड रुपये डकार जाते हैं

३. दिग्विजय सिंह १० साल के शासन में मध्यप्रदेश को कर्ज के कुएं में धकेल जाते हैं और आज कांग्रेस में वरिष्ट का दर्जा पाये हुए हैं

४. भाजपा, कांग्रेस, भ्रष्ट मधु कोड़ा और शिबू सोरेन को आगे बढाती है क्या ये देश के खजाने को बर्बाद कर देशद्रोह नहीं कर रहे ?

५. कर्नाटक में बेल्लारी खदान के मालिकों को भाजपा शरण दिए हुए हैं और प्रखर वक्ता सुषमा स्वराज भी उनके पक्षधर हैं

६. मायावती, मुलायम और लालू दलितों के नाम पर देश को बर्बाद करने पर तुले हैं

७. शिवराज सिंह ग्रहमंत्री रहते हुए हर मोर्चे पर असफल रहे - क्या उनका पोस्ट मोरटेम हुआ ?

८. मध्यप्रदेश, बिहार , राजस्थान , उत्तरप्रदेश के राजनीतिक लीडर इन उत्तर भारतीय राज्यों को तमाम संसाधनों के होते हुए भी दक्षिण की तरह, चंद्रबाबू नायडू की तरह विकसित नहीं बना सके - क्या ये जेल नहीं जाने चाहिए ?

९. करूणानिधि और उनका परिवार, मुलायम से लेकर पासवान तक कैसे मध्यमवर्ग परिवार से अरबपति बने

१०. १९८४ के दंगो में सिख समुदाय को आर्थिक, भावनात्मक, और शारीरिक चोट, नुकसान के जिम्मेदार क्या देशद्रोही नहीं हैं ?

ऐसे हजारों बिंदु गिनाए जा सकते हैं जिन पर गौर करने पर अरुंधती रॉय के साथ साथ और भी बहुत लोग भी सजा के हकदार हैं !!

अरुंधती रॉय को जरूर ही गैरजिम्मेदाराना बयानों की सजा मिलनी चाहिए जिससे स्वतन्त्रता की अभिव्यक्ति का दुरूपयोग ना हो और देश की अखंडता पर कोई प्रश्नचिन्ह ना लग पाये !!  गिलानी महाशय के साथ कुर्सी पर बैठने से पहले काश रॉय मैडम ने ये लेख पड़ा होता - अखंड भारत!

आपकी क्या राय है इस बारे में ?? इस विषय पर सार्थक बहस और एक निर्णय की जरूरत अनिवार्य सी लगती है  !

मंगलवार, 26 अक्टूबर 2010

एक उद्घाटन ऐसा भी !

 

बहुत दिन पहले फेसबुक पर यहाँ जिस शहर में मैं रहता हूँ उसके पेज पर एक विडियो चमका था, जिसमें  यहाँ के मेयर को एक ब्रिज के उद्घाटन करते समय फीता खुद न काटकर कुछ बच्चों से ये काम करा उनका उत्साहवर्धन करते दिखाया गया था -

पता नहीं आप देख पाएंगे ये विडियो या नहीं, पर कोशिश करिये -

http://www.facebook.com/video/video.php?v=1197273388967

सूचना तकनीक का प्रयोग है कि हम एक जगह की अच्छी बातें दूसरी जगह प्रसारित कर सकते हैं, बाँट सकते हैं - शायद कोई नेता देख रहा हो और कुछ सीख ले इससे !  बहुत पैसा बच सकता है जो आधारशिला रखने से लेकर ढाँचे के समपर्ण तक रैलियों और भीड़ पर बहाया जाता है !

उद्घाटन इत्यादि में पैसा पानी की तरह बहा कर जनता के सामने खुद को विकास का मसीहा साबित करने का प्रजातंत्र में आदत या कहना चाहिए नशा सिर्फ भारत में ही नहीं, बल्कि विश्व में हर जगह है - जहाँ भी जनता को जनता के पैसे द्वारा बेबकूफ बनाने का तंत्र यानी प्रजातंत्र है, वहाँ ऐसा अक्सर देखने को मिलेगा, चाहे वो अमेरिका हो या भारत !

देखिये एक समाचार दक्षिण भारत का (विवरण http://www.outlookindia.com/article.aspx?264550 से लिया गया है )  -
Talking of scamming, the Chennai Corporation spent more than Rs 24 lakh on the inauguration of two flyovers(at Cenotaph Road and Alandur Road) and a subway (on Jones Road, Saidapet) by chief minister M Karunanidhi on December 11, 2009. According to a reply to an RTI filed by V Madhav of Porur, Rs 16.45 lakh was spent on the inauguration of the Cenotaph Road flyover while Rs 7.87 lakh was spent for the Alandur Road flyover and the Jones Road subway although no stage was put up and the CM inaugurated it sitting in his car. “The total amount spent for the functions is almost equal to the ward development fund of a councillor, which is Rs 25 lakh a year. At a time when the government is short of funds for welfare schemes, there should not be any wasteful expenditure,’’ Madhav said.

So, what was 24 lakhs spent on? Rs 8.3 lakh on lighting, mikes and ACs at the Cenotaph Road flyover inauguration, Rs 2.5 lakh on the stage arrangements and toilet facility for Karunanidhi, Rs 1.15 lakh was spent for chairs for VIP, VVIPs and members of the public, the fabricated tent and synthetic mat. In addition, booklets supplied to VIPs, VVIPs and the public on the two flyovers cost Rs 4.3 lakh, while Rs 3.53 lakh was spent on lighting arrangements on the Alandur Road flyover, the Jones Road subway and the approach roads. All this expenditure does not include the money spent on the CM’s security and newspaper advertisements. But Subramaniam’s defence? Spending Rs 25 lakh for a function in which the CM participates “cannot be considered unusual or unnecessary.”

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क्या अगली बार आप भी इस चक्कर में खुद के टैक्स का पैसा फूकेंगे या फिर नेपरविल के मेयर से कुछ सीखेंगे  ?

शुक्रवार, 22 अक्टूबर 2010

वो मेरे प्रेरणा श्रोत और जर्मनी के एकीकरण की २० वीं वर्षगाँठ

 

मैं मेट्रो ट्रेन के स्टेशन पर अपने प्रोग्रामिंग वाली चिंतन मुद्रा में खडा था और तभी एक छड़ी ने हलके से मेरे पैर को छुआ,  और जैसे मेरे दार्शनिक भावों को एक तरंग सी दे दी.  छड़ी वाला इंसान उस भीडभाड वाले छोटे से प्लेटफोर्म पर सर्राटे से आगे बढता जा रहा था, आँखों पर काला चश्मा और हाथों से बस छड़ी को एक दिशा देते हुए स्वाभिमानवस वो आगे बढा जा रहा था, किसी की कोई सहायता की उसे दरकार नहीं थी, आवश्यकता ने उसे एक मन्त्र दे दिया था कि बस बिना रुके चलते ही जाना है , अगर किसी की तरफ देखेगा तो आगे उस वेग से बढ़ने का प्रश्न ही नहीं है !

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ऐसी कितनी ही छोटी छोटी बातें हैं जो आपको एक मंद हवा के झोंके से आनन्दित सा कर देतीं हैं , और इस आनंद के पीछे कितनी पीड़ा को छुपाये ये पुलकित प्रतीक !

गाँव में एक हष्टपुष्ट मेरे साथ का लडका,  मेरे से भी अधिक फुर्तीला,  बस शायद कुछ अभावों की वजह से पढ़ ना सका और गाँव में ही रह गया ! लोग कभी उसे उसके नाम से नहीं बुलाते बल्कि लंगड़ा कहकर बुलाते हैं, इसी नाम से मशहूर है पर जिस वेग से पाँवई लेकर एक पैर से दौडता है  उससे लगता है कि उसमें आसमा को छूने की चाहत और क्षमता दोनों ही है ! गाँव में उसकी दूकान है और खुद का छोटा सा व्यवसाय - कोई क्या बराबरी करेगा उसकी - लंगड़ा कहने वाले खुद ही उसके पुरुषार्थ से लज्जित हो जायें अब !

पिछले महीने ३ अक्टूबर को पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी को एकीकृत हुए २० साल हो गये ! (शायद दीवाल ९ नवम्बर १९८९ की रात को गिराई गयी ) दोनों देशों ने एक होकर संगठित होकर केवल दूसरों के आधिपत्य से ही उस दिन मुक्ति नहीं पायी बल्कि विश्व में एक प्रगति के सोपानों का कीर्तिमान भी कायम किया, एक होने के बाद जर्मनी विश्व के ऐसे देशों में शामिल हो गया जो विश्व की आर्थिक महाशक्ति कहे जाते हैं, १७ साल से बेरोजगारी की दर विश्व में सबसे कम रखकर इन्होने कर्मशीलता के साथ योजनबद्ध और एक कर्मण्य प्रशाशनिक व्यवस्था होने का प्रतीक भी विश्व को दिया !  पूर्वी जर्मनी उतनी संपन्न नहीं थी जितनी पश्चमी और इसलिए केवल १७ प्रतिशत पूर्वी जर्मनी की कम्पनियाँ ही प्रतिस्पर्धा में टिक पायी, पर बाद में सरकार की प्रतिबद्धशीलता की दाद देनी होगी कि अब पूर्व और पश्चिम में भेद कर पाना संभव ही नहीं !   ब्लूमबर्ग पत्रिका ने इस पर एक विशेष आलेख प्रकाशित किया है जिसने मेरी पिछले वर्ष की जर्मन यात्रा की यादें ताजा कर दीं !  मैं उन दिनों  ड्यूसलडोर्फ़ में था,  कुछ चीजें जो मैंने अनुभव कीं और पत्रिका ने भी इंगित करीं हैं  -

  • अगर आपका जन्मदिन है तो ये आपकी जिम्मेदारी है कि आप ड्रिंक और खाना खुद उपलब्ध कराएं 
  • हमेशा समय के पाबन्द रहें
  • सिगरेट को कभी भी कैंडल से नहीं सुलगाएँ, (A common superstition says doing so kills a sailor)
  • अमेरिका और भारत से फ्री के बाथरूम की आदत पड़ हो गयी तो यहाँ उसको विराम दें , बाथरूम से बाहर आकर टिप जरूर दें
  • मैं तो एक बार लेडिस बाथरूम  में घुस गया क्यूंकि पुरुषों के बाथरूम पर herr और औरतों के बाथरूम पर कुछ और लिखा रहता है तो मुझे लगा कि her  का मतलब वो महिलाओं का बाथरूम होगा :)
  • herr का मतलब शायद mr.  या श्री होता हैं जो किसी भी पुरुष के नाम के संबोधन के पहले सम्मानसूचक शब्द के रूप में लगाया जाता है
  • बीयर तो पानी की तरह है इस देश में :-)
  • खाना खाते समय हाथ टेबल पर रखेंगे तो अच्छा माना जाता है
  • खाना अगर पूरी तरह पेट भर कर खा लिया है और नहीं लेना है तो अपने खाने के चाक़ू और फोर्क को और चम्मच को समानांतर अवस्था में रखे , अगर क्रोस्सिंग में रखोगे तो इसका मतलब आपको और खाना खाना है
  • किसी के घर जाओ तो समय से ही पहुँचो और एक छोटी से गिफ्ट जरूर ले जायें 
  • एक सायिकल जरूर लें लें, सायकिल तो जैसे होलैंड और जर्मनी के रोजमर्रा के जीवन का एक हिस्सा हैं, सूट पहने लोग सायकिल पर ऑफिस जाते मिलेंगे सुबह, कुछ ५० यूरो से लेकर हजारों यूरो तक की सायकिल उपलब्ध हैं
  • एक शहर की बीयर को दूसरे शहर में न मांगे, बीयर के ऊपर बहुत लड़ाईयां रहती हैं,  ड्यूसलडोर्फ़ शहर में आल्ट बीयर चलती थी और कालोन शहर में कोल्च , पर ड्यूसलडोर्फ़  में १-२ रेस्तरां ही कोल्च परोसते थे और यही हाल कालोन में था आल्ट के बारे में. दोनों शहरों में दूरी थी ३० किलोमीटर, जर्मन दोस्त ने ड्यूसलडोर्फ़  के रेस्तराओं में हम लोगों को कोल्च न माँगने के लिए आगाह किया हुआ था  …हामरे गाँव के कुए से पानी न पी लेना सरदार !!

यूरोप तो जैसे स्वर्ग हो और  जर्मनी उस स्वर्ग का द्वार व मुखिया !  कुछ उन दिनों के फोटो -

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आपके अनुभव आपके प्रेरणाश्रोत और जर्मनी के बारे में कैसे हैं ?  जर्मनी के एकीकरण की  २० वीं वर्षगांठ पर आपके क्या विचार हैं ? 

मंगलवार, 19 अक्टूबर 2010

गांधी और मेरे पिता

आज जब प्रवीण पाण्डेय जी के ब्लॉग पर वर्धा में गाँधी आश्रम के बारे में पढ़ रहा था तो सहसा ही कुछ भाव मन में जागे अपने गाँधी के बारे में !  मैंने जो कमेन्ट पाण्डेय जी के ब्लॉग पर छोड़ी है , सोचा उसको एक ब्लॉग पोस्ट के रूप में सहेज कर रख लूं -  शायद पिताजी पढेंगे तो एक अहसास हो कि बाहर वालो के साथ घर में भी उनके महान कार्य को हम हर पल अपना अमूल्य धन मानकर गौरब अनुभव करते हैं -

बचपन में गांधी जी की कई पुस्तकें पापाजी  ने मुझे  पढवाई और अभी भी यदा कदा कुछ पढ़ लेता हूँ , हर बार आदर्श , सत्य , सदाचार, संयम,  निष्ठा और त्याग के भाव जैसे चारों और से गदगद सा कर देते हैं , फिर घर में भी एक स्वरुप गाँधी का देखता हूँ,  मेरे पिता,  जो हर बार अपनी पोस्टिंग ऐसे गाँव में कराते हैं जहाँ कोई और जाना नहीं चाहता और फिर खुद रोज कर्तव्यनिष्ठ होकर अपनी ड्यूटी पर जाते हैं , चिकित्सा विभाग में उनके साथ के लोग गरीबों के लिए आ रहीं दवाईयों को बेच और अपनी खुद की क्लिनिक खोल हजारो कमा कर शहरों में  जब मदमस्त पर ग्लानिरत होकर जी रहे हों तब ये अपनी तनख्वाह भी आदिवासियों में बाँट आते हैं , लड़कियों की शादी कराने से लेकर उनके साथ हर परिस्थिति में जैसे साथ रहने का उन्होंने उन गाँव वालों को वचन दे दिया हो,  सुब्बाराव , विनोवा भावे , स्वेट मार्डेन,  श्रीराम शर्मा आचार्य से प्रभावित वो अपनी दैनिक गतिविधियों से हमारे क्षेत्र में एक निर्विवाद छवि के रूप में जाने जाते हैं और मुझे हर वक्त यही अहसास होता है कि मैं अपनी क्षमता से नहीं बल्कि उन सैकड़ों गरीबों के आशीर्वाद की वजह से ही कुछ कर पाने में समर्थ हूँ,  कभी कभी हम भी पिता का पूरा समय और प्यार ना पाने से खीज पड़ते थे पर आज उनके त्याग का अहसास हर पल मुझे एक स्फूर्ति और सत्य पर चलने की प्रेरणा देता है !  बचपन में सिखाये गए डायरी लेखन से लेकर , सादगी के पाठ, मेहनत की कमाई तक हर चीज मुझे मेरे असल गांधी से मिलती रही है !   पर कभी कभी दुःख होता है कि ऐसे लोग जिन्दा रहते कभी मानव द्वारा बनायीं गयी सुविधाओं का उपयोग अपनी कर्तव्यनिष्ठता के सामने कर ही नहीं पाते, पर फिर सुकून मिलता है कि जब वो बुलाएं - कई लोग आ खड़े होते हैं !    जब वो मेहतर, चमार या कोरी   के घर  उनके साथ बैठकर खाना खाते हैं तो लोग पागल तक की संज्ञा दे देते हैं पर उस गरीब को जो संबल , स्वाभिमान और ऊर्जा उस साथ से मिलती है  वो अपने आप में एक प्रेरणा  और यादगार बन जाती है !  उनके लिए सब इंसान जाती भेद से दूर होकर एक समान हैं !   और इसलिए घर में गीता, रामायण के साथ कुरआन को भी जगह मिलती है !
 
कितने ऐसे गाँधी है आज भी,  उसके लिए वर्धा या साबरमती भी शायद न जाना पड़े पर ऐसे धार्मिक स्थलों से प्रतीकात्मक प्रेरणा की स्फूर्ति तो शरीर में आती ही है ! 
 
आभार आपका !

सोमवार, 18 अक्टूबर 2010

वर्धा 'मेहमान पंचों' की राय के हिसाब से सफल रहा पर स्वामी अग्निवेश के बारे में आपकी क्या राय है ?

अभी हाल ही में टाईम पत्रिका में एक लेख पढ़ रहा था जिसमें अमेरिका में पनप रहे विद्रोही गुटों के बारे में एक विश्लेषण छपा था. ओहायो डिफेंस फ़ोर्स नाम का ये ग्रुप अपने आप को अमेरिका की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध बताता है, जब प्रतिबद्धता भावों को नकारात्मक दिशा में सोचने पर मजबूर कर दे तब वह खतरनाक हो लेती है और तब उसका अनुकरण करना सिर्फ तभी संभव होता है जब आप बिना सोचे समझे इनके बहकावे में आ जायें !  ये ओहायो डिफेंस फ़ोर्स मानती है कि ओबामा अमेरिका के दुश्मन हैं और इस्लाम के समर्थक और कभी भी अमेरिका पर मुस्लिमों का शासन हो सकता है और तबके लिए ये लड़ाके तैयार कर रही है मुसलमान आधिपत्य से लड़ने के लिए !    हर जगह परेशानियाँ हैं और इस तरह के कट्टर और अंध विचारधारा के लोग कुछ युवकों को वैचारिक रूप से अपंग बना कर अपनी गाड़ी ठेलते रहते हैं.

भारत में भी सिमी से लेकर माओवादियों तक ने अपने वैचारिक अन्धपन में पूरे देश को हिला रखा है , हमारे यहाँ इन तत्वों को ढीली ढाली लचर प्रशाशनिक व्यवस्था से और भी संबल मिल जाता है ! अभी हाल ही में स्वामी अग्निवेश ने माओवादियों और सरकार के बीच मध्यस्थता के कुछ कदम उठाये थे और फिर एक माओवादी नेता मारे गए तो स्वामी अग्निवेश ने चिदम्बरम जी के खिलाफ कई बयान दिए, स्वामी अग्निवेश भेष तो भगवा पहनते हैं पर राजनीतिक गलियारों में उनकी खूब तू तू बोलती है , सामजिक कार्यकर्ता भी है और विदेशी संस्थ्याओं के प्रिय चहरे भी ! मैंने उन्हें एन डी TV पर बरखा दत्त के प्रोग्राम में कभी कभी बहस में हिस्सा लेते देखा है , पर कभी कभी उनकी दिल्ली के गलियारों में सक्रियता समझ नहीं आती तो सोचा कि यहाँ ये प्रश्न डाल दूँ,  शायद मेरे ब्लॉग पाठक इस बारे में मेरा कुछ मार्गदर्शन कर पायें !  कभी कभी कुछ लोग ज्यादा गहराई से देखने पर उस कहावत को चरितार्थ कर जाते हैं - कि "हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और" !


यहाँ  एक सार्थक प्रश्न उठाया था, जिसको सही दिशा में सोचा जाता तो कुछ निष्कर्ष ही निकलता पर चाटुकारों की सभा में जैसे पुराने जमाने में कई विद्वानों ने जब सामने वाले की नहीं सुनी तो परिणाम अंत में बुरा ही हुआ !  वैसे ही यहाँ भी लोग 'हाँ जी हाँ जी' से आगे ही नहीं निकल रहे,  तुलसीदास ने सच ही कहा  - पूरी सभा राजा की हाँ में हाँ मिलाने लगे और प्रलोभन से कुछ फीडबैक ना दे तो राजा का सफल होना संभव नहीं है, रावण भी कितना ग्यानी था पर बस आलोचना से या सवालों से उसकी प्रतिष्ठा पर जैसे अंकुश लगता हो,  अंगद और हनुमान को वानर समझा तो राम और लक्ष्मण को एक मामूली बनवासी !  

भारत ने राष्ट्र मंडल खेलो पर खूब पैसा बहाया, बढ़िया उद्घाटन और समापन किया और गर्व की बात कि हमने १०० से अधिक पदक भी जीते,  कितनी उपलब्धियां रहीं, सबको बढ़िया खेल गाँव  में घर और सुविधाएं उपलब्ध कराई गयीं , खिलाड़ियों और देश का बहुत फायदा हुआ और शायद इससे देश में हो सकता है कि खेल के क्षेत्र में एक क्रांति आ जाए , लोग क्रिकेट की तरह अन्य खेलों में भी बच्चों को आगे देखने की ललक रखेंगे , ऐसी प्रेरणा ये खेल दे गए पर क्या कलमाड़ी जी इन उपलब्धियों के साथ जो अन्य कमियां हुई हैं उन पर विचार नहीं करेंगे ?  जी हाँ नहीं करेंगे क्यूंकि वो नेता हैं और भारत में नेता सिर्फ मलाई ही खाते हैं ,  विषपान तो टैक्सदाता ही करेगा !  फिर भी सार्वजनिक कार्यक्रम है तो हर कोई कलमाड़ी को इतनी बड़ी सफलता के बाद भी कई प्रश्न पूछ रहा हैं और शायद वो इस वजह से बहुत खिजिआये और बौखलाए हुए हैं !

वर्धा पर फिर से बात, कार्यक्रम के तुरंत बाद मेरी बात रविन्द्र जी से और भुवनेश से हुई थी और मैंने यही कहा था कि आयोजक हर किसी को नहीं बुला सकता और इतने अच्छे आयोजन पर आयोजक बधाई के पात्र हैं,  पर फिर भी कुछ प्रश्न हैं मन में, जैसे कि लोगों को इसके बारें में नेट पर पता ही नहीं चला,  तो मैंने ये प्रश्न आगे उठाया और साथ ही कार्यक्रम के विषय पर भी प्रश्न उठाया!  बाद में एक ब्लॉग पर मैंने देखा कि बताय गया कि २ जगह लिंक दी गयी थी तो बात ख़त्म करने की सोची, मान लिया कि हमारी या औरों कि द्रष्टि वहाँ नहीं जा पायी !  पर फिर कुछ बौखलाहट वाले कमेन्ट देखे , तो बात आगे बढ़ना स्वाभाविक थी - उसके बाद मैंने इस कार्यक्रम के अंत में एक विस्तृत रिपोर्ट की अपेक्षा रखी, स्वेत पत्र में क्या बुराई हैं ?  श्रीमती अजित गुप्ता, प्रवीण पांडे  और अन्य सभी विद्वानों के आपस में मेल मिलाप से निश्चय ही ये आयोजन हिंदी ब्लॉग्गिंग को स्फूर्ति देगा फिर स्वेत पत्र और पारदर्शिता के नाम पर इतना बबाल और आवेश क्यों ?
मेरे से कहा गया "बस, ज्यों ही प्रेशर महसूस हो हाजत से निबट लो। आराम से घर में बैठकर वेस्टर्न स्टाइल कमोड पर।"

--- अब का करें इधर खेत हैं नहीं और वेस्टर्न स्टाइल कमोड पर ही  करने की मजबूरी है,  शुक्र है पानी और कागज़ का जिक्र नहीं था ! शायद गाँधी के वर्धा में वातानुकूलित कमरे में रहने वाले भी अब खेत में नहीं जाते होंगे पर मैं हिंदुस्तान में अभी भी खेत में सुबह घूमने का  अभ्यस्त हूँ !  सोचा नहीं था कि ब्लॉग पर लिखने के लिए भी मुहूर्त निकलवाना पडेगा :)

वैसे लोगों के अन्तःपुर में झांकना प्राईवेसी का उल्लंघन है और ये कैसे आचार संहिता का पाठ कि पहले दिन ही आचार  संहिता  तार तार !!


अकेला हूँ तो क्या हुआ
तलवार नहीं तो क्या हुआ
जश्ने बहारों का रेला मेरी तरफ नहीं तो क्या हुआ
आवाज तो गूंजेगी
मेरे सतत चिन्तन से
अनवरत सत्य से
दीपक जलाता रहूँगा
आँधी के रेले हैं तो क्या हुआ
मरुस्थल में प्यासा हूँ तो क्या हुआ
रेत पर चलता रहूँगा
लिखता रहूँगा !!


एक खुशखबरी है - मेरे एक परम मित्र और हमारी ब्लॉगर साथी प्रज्ञा एवं अमित सक्सेना को १३ अक्टूबर को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई !   प्रज्ञा पिछाले एक साल से ब्लॉग पर सक्रिय नहीं है पर आशा है कि जल्दी ही गृहस्थ धरम के निर्वहन के बाद वो फिर से अपनी लेखनी को सक्रिय करेंगी , ये समय है बधाई का और खुशियों  का !

साथ ही आप सबको दशहरे की हार्दिक शुभकामनाएं !   बुराई पर अच्छाई की विजय पर कल एक फिल्म देखी - निशांत !!  अब ये ना कहना कि फ़िल्म फ्लैट स्क्रीन पर देखी होगी :)

शुक्रवार, 15 अक्टूबर 2010

मैं खुश हूँ, कई पिता हैं तो क्या हुआ !!

 

क्या आपको पता है कि मेरे स्कूल बस में मेरे साथ जाने वाले कुछ बच्चे हैं जो जिनके या तो कई पिता हैं या फिर कई माँ ! निकुंज ने जब ऐसा बोला तो मुझे लगा कि कौन इतने गर्व से ये बात बताएगा, कोई बच्चा मजाक कर रहा होगा, पर एक दिन जब एक बच्चे की नानी मेरी पत्नी से बात कर रही थी तो वो भी बड़े गर्व से बता रही थी  कि ये लडका बड़ा भाग्यवान है जिसको दो दो पिताओं का प्यार नसीब होता है !

ये हुई न बात !  पर  इस बात को एक पश्चिम की संस्कृति की झलक समझ कर छोड़ना उचित नहीं, कुछ ठहर कर सोचते हैं इस बारे में !

नाम – डोमिनिक

खुश है बहुत  - माँ तो एक ही है पर पिता दो हैं, दोनों पिताओं का असीम प्यार मिलता है, और दोनों से ही हर मौके पर तोहफे इत्यादि !  पहला पिता उसकी माँ का बॉय फ्रेंड था, दोनों साथ रहे - कुछ दिन बाद डोमिनिक का जन्म हुआ पर विचारों में भिन्नता आने लगी कुछ दिनों में और दोनों अविवाहित अलग अलग हो गये, डोमिनिक की माँ कुछ दिन बाद डोमिनिक के वर्तमान पिता से मिली और कुछ ही दिन पहले दोनों से शादी कर ली, डोमिनिक शायद अभी ७-८ साल का होगा। बकौल डोमिनिक की नानी उसका बायोलोजीकल पिता भी बहुत अच्छे स्वभाव का है और हर मौके पर अपनी जिम्मेदारी को निभाना नहीं भूलता और वर्तमान पिता भी डोमिनिक को अपना मान उसे पूरा प्यार और दुलार देता है - दोनों ही डोमिनिक को बारी बारी से समय देते हैं और वो स्वतंत्र है जहाँ चाहे, जब चाहे कहीं भी जाने के! उसकी नानी के हिसाब से विचारों का मिलन नहीं है तो फिर साथ क्या रहा जाये, इससे तो अच्छा है दोनों की सहमती से वही करो जी व्यक्तिगत रूप से बढ़िया लगे और रिश्ते भी खराब न हों ! 

क्या रिश्ते इस तरह से कायम बने रह सकते हैं, पर हो सकता है कि डोमिनिक आपसी झगडों की कलह से बच गया हो जो उसके माता पिता के विचारों में भिन्नता की वजह से होते रहते, निश्चित ही ये कोई भैरन्ट समाधान तो नहीं पर कामचलाऊ तो है ही !

नाम – कैली

खुश है बहुत - शायद ये अपने पिता के साथ रहती है और इसके भी कई पिता और माँ हैं,  खिलौने और पार्टियों की  धूमधाम रहती है हर मौके पर क्यूंकि हर कोई उसको बहुत चाहता है ! उसके घरवालों को रिश्तों की इस कोम्प्लेक्सिटी पर कोई परेशानी नहीं !

शायद बाकी ८० प्रतिशत के एक माँ और एक पिता ही हो !

marriage

अब मैं रुख करता हूँ कुछ त्रासदियों पर जो मैं देखी हैं भारत में !  एक लडकी की शादी होती है १७ साल की उम्र में ! २-३ साल शादी के गुजरते हैं, सब कुछ बहुत बढ़िया चल रहा है. दोनों परिवार, पति, पत्नी सब लोग खुश हैं , पर जैसे दिन के बाद रात आती ही है,  खुशियाँ भी ज्यादा दिन तक स्थायी नहीं रहती !  लडकी गर्भवती हो जाती है, और भी खुशियाँ !  एक दिन अचानक किसी दुर्घटना में पति की म्रत्यु हो जाती है, माँ ने होनहार लड़का खो दिया और पिता ने जैसे अपने सपने खो दिए हों !  पत्नी ने तो जैसे अपना भविष्य ही खो दिया,  सब कुछ खो दिया , गम में गर्भ भी साथ नहीं दे पाया और गर्भपात का असहनीय दर्द जैसे उससे बचाखुचा जीवन भी छीन ले गया !  कुछ दिन हुए, परिवार वाले अपनी अपनी राह पर हैं,  भाई बहिन सब उन्नति कर रहे हैं और फिर से खुशियाँ परिवार में वापिस !! पर कोई तैयार नहीं उस लडकी की दूसरी शादी के लिए जिसके सामने जिंदगी का अभी तीन चौथाई से ज्यादा हिस्सा बाकी पड़ा है,  वो बस बेबसी, लाचारी में अपना पूरा जीवन (हिंदू धर्म के अनुसार) जीयेगी !  भले ही राजा राममोहन राय ने विधवा विवाह आजादी से पहले शुरू करवाने की मुहिम शुरू कर दी थी पर क्या वो जागरूकता हमारे गांवों तक या पुरुषीय मन तक पहुँची हैं ?  बाद में न पिता पक्ष उसकी तरफ देखता है और ना ही ससुराल पक्ष ! वो बेसहारा बस जिंदगी को कैसे भी काटने पर मजबूर है , काश वो एक दुर्घटना ना हुई होती , काश वो दिन समय के पहियों के नीचे न आया होता !  कुछ दिन बाद जमीन जायदाद और सब कुछ  उससे ले लिया जाता है क्यूंकि न तो पति है इस दुनिया में और न कोई बच्चा है !  जीवन जैसे एक अभिशाप बन गया हो, श्राप में जीने के लिए हमारे पाखंडों ने उसे मजबूर कर दिया ! उसकी मानवीय भावनाओं, सम्वेदनाओं की किसी ने कोई क़द्र नहीं करी, सबने एक बार आँसू बहाकर उसे जिंदगी भर आँसू पीने के लिए मजबूर कर दिया !

ऐसे कई दर्दनाक और अभिशप्त उदहारण मैंने देखे हैं और आपने भी अनुभव किये होंगे!  एक बार के लिए अपने मनुष्य होने पर भी पीड़ा होने लगती है !

इन दो विस्तृत पहलुओं पर ध्यान देने के बाद यही निष्कर्ष निकलता है कि तर्क से हर चीज सही या गलत नहीं सिद्ध की जा सकती,  गलत है अति - ‘अति सर्वत्र वर्जते'  - अति वर्जित है जब आप संस्कृति छोड़ पूरी तरह पश्चिम के रंग में रंगकर रसिया हो जाते हैं और अति वर्जित है जब आप संस्कृति के कुएं पर पड़े पड़े बाकी दुनिया को नजरअंदाज कर देते हैं !

बुधवार, 13 अक्टूबर 2010

मुझे मानव होने पर गर्व है आज !!!

हिम्मत और साहस, आनंद और हर्ष, गर्व और संतुष्टि के भाव केवल उन ३३ लोगों के चहरे पर ही नहीं बल्कि पूरे चिलिवासियों के चेहरे पर गर्वानुभूति के भाव थे !  ये ऐतिहासिक पल था जब ६९ दिन २३०० फीट जमीन में दबे रहने के बाद ३३ लोग स्वस्थ और सकुशल बाहर आ गए !
जब आदमी चाँद से जाकर वापस आया, या फिर पहली अन्तरिक्ष यात्रा के बाद जमीन पर  वापस आया या फिर जैसी संतुष्टि और गर्व जन गन मन गा कर मिलती है , वैसी ही कुछ अनुभूति इस सभ्य मानवीय प्रयास पर मेरे मन को हुई ! 

मैं निकुंज से अक्सर कहा करता हूँ कि 'never cry, always try'  और ये शायद में अब और भी संबल के साथ कह सकता हूँ,  इस दुनिया में प्रयास करने से क्या संभव नहीं हैं,  बस अनवरत लगातार नदी की तरह बहने की जरूरत है, मंजिल मिलती ही जाती है !   चिली के राष्ट्रपति के चेहरे पर प्रसन्नता और स्वाभिमान के भाव  हजारो चिलिवासियों के दृढ निश्चय को व्यक्त कर रहे थे !

सारी दुनिया आज चिली के इस प्रयास को एक सम्मान और एक अमिट यादों के रूप में देख रही है. गुस्सा, मेहनत, संघर्ष और घुटन के बादल इन ३३ लोगों के प्रकाश में आगमन के साथ ही हर्ष और उन्माद में बदल कर आशा, प्रयास और कर्म के योग को जैसे व्याख्यित कर रहे हों !

मैं जब कभी शावर लेते समय आँखे बंद कर लेता हूँ तो अन्धकार और पानी के वेग से घुटन सी होने लगती है और ये पल की घुटन बड़ी असहनीय होती है,  और कभी चद्दर में मुंह बंद हो जाए और सांस न  ले पाने के कारण जो पीड़ा होती है उससे हम कुछ ही पल में कितने विचलित हो जाते हैं ! कभी दोस्तों से कुछ ही दिन ना मिलने, तो कभी घरवालों से कुछ दिन ना रूबरू हो पाते हैं तो मन कितना विचलित हो जाता है, कभी विडियो कांफ्रेंस करते हैं तो कभी फ़ोन पर बात और ज्यादा दिन हो जाएँ तो तुरंत मिलने चले जाते हैं,  एक कमरे में घुटन होती है तो बाहर घूमने चले जाते हैं ,  रात के बाद दिन और दिन के बाद रात के आगमन से अपने आपको तरोताजा अनुभव करते हैं ! इन सब बातों को चिंतन में लाते हुए इन ३३ लोगों ने जो हिम्मत दिखाई है और जो जीवन का संघर्ष पल पल ६९ दिन तक झेला है वो अविश्वसनीय है,  रोमांचकारी है !

अमेरिका के राष्ट्रपति ओबामा ने कहा कि  - Miners, rescuers "inspired the world"

लुईस उर्जुआ अगस्त में एक दिन जब अपनी शिफ्ट सुपरवायिजर कि ड्यूटी के लिए खदान में घुसे तो यही सोच रहे थे कि १२ घंठे बाद बाहर आकर रोजमर्रा के काम निबटाउंगा, पर कुछ ही घंटों में वो अपने अन्य साथियों के साथ मौत के मुंह में थे ! ईश्वर की दया से २३०० फीट कि गहराई पर एक टनल थी और ये सब के सब इस घुप्प अँधेरी सुरंग में जा गिरे ! लुईस उर्जुआ ने अपने अनुभव के सहारे ७०  दिन तक हर किसी का साहस और मनोवैज्ञानिक हौसला  बनाए रखा, उन्होंने चार - पांच लोगों के समूह बनाकर एक सामजिक वातावरण बनाने की कोशिश की !  आज ६९ दिन के बाद लुईस उर्जुआ सबसे बाद में खदान से बाहर निकले, एक एक करके सब लोग बाहर आते गए और अंत में एक सच्चे लीडर कि भाँती सबसे बाद में खुद बाहर निकले ! इन सबके बीच उन ६ लोगों की भी प्रशंशा करनी होगी जो इन लोगों को बाहर निकालने २३०० फीट नीचे तक गए और अभी  उर्जुआ को बाहर निकालने के बाद भी वहीं है, अभी उन्ही के बाहर आने का कार्य चल रहा है !  ५४ वर्ष के उर्जुआ ने कभी हिम्मत नहीं हारी और ना ही अन्य साथियों के हौसले पस्त  होने दिए !  बाहर आने के बाद उर्जुआ के शब्द थे - 'मुझे चिली का नागरिक होने पर गर्व है'

उर्जुआ

उर्जुआ की पूरी टीम को हिंदी ब्लोग्गिंग की तरफ से सलाम और शुभकामनायें ! 

जब नहीं पता था किसी को कि कोई जिन्दा भी है
जब इनको भी नहीं पता था कि कोई बचाने आएगा
उस समय बस जिन्दा रखा
सकारात्मक सोच ने
आशा ने, विश्वास ने
कर्म का पाठ
आस्था के संस्कार
इसी दिन के लिए तो
हमें पढाये जाते हैं
और आभाष देते हैं
मुझे मानव होने पर गर्व है आज !!!

और आज जब ये जिन्दा आ गए हैं तो मीडिया के लोग इन पर एक एक साक्षात्कार के लिए किसी भी राशि कि धनवर्षा के लिए तैयार हैं , इनको  कुछ दिनों के लिए इनके परिवार के साथ अकेला छोड़ दो - यही निवेदन है !!  मैं अश्रुमय आँखों ने इन सबके संघर्ष और प्रयास के सामने नतमस्तक हूँ,  एक जीवंत पाठ पढ़ने वाली ये घटना जीवन को स्फूर्ति से जीने और सदा कर्मशील रहने की प्रेरणा देती है !

अज्ञातवास पूरा हुआ !!  'mission accomplished'



मंगलवार, 12 अक्टूबर 2010

कई महीनों से चिली के खदान में फंसे लोग आज बाहर आ रहे हैं !! चलो दुआ करें !

7  सितम्बर को एक मैंने दक्षिण अमेरिकी देश चिली की एक खदान में कुछ लोगों के फँस जाने के बारे में लिखा था,  ३३ लोग तकरीबन २३०० फुट नीचे बिना किसी दैनिक बुनियादी सुविधा के उस अन्धेरे में महीनों तक कैसे जिन्दा रह रहे होंगे,  मुझे तो सोच कर ही डर लगने लगता है!  मैं लगातार इनको बाहर निकालने के प्रयास की प्रगति के बारे में पढ़ रहा था, हम सबकी दुआओं और अन्दर फंसे लोगों के संबल का असर है की जल्दी ही ये लोग  बाहर आ सकेंगे.  ऐसा कहा जा रहा है कि इनके पास तक का रास्ता बना लिया गया है और अब जल्दी ही इनको बाहर लाने कि प्रक्रिया शुरू की जायेगी.  ३० लोगों को एक एक से बाहर आने में काफी समय लगेगा !

रायटर पर इस समाचार की प्रतिक्रिया लोगों में कुछ इस तरह से थी -
"WELCOME BACK FROM HELL!!!!
no one human being should never get down to that hellhole, ever!"

"THE GLOBAL HEART IS TICKING AND WAITING FOR YOU ALL, GUYS!!!
WELCOME BACK TO THE LIGHT!"

यहाँ इनके बारे में और पड़ा जा सकता है !  इन लोगों को हम सब की प्रार्थनाओं की जरूरत है, आओ चलें इन सबके  सकुशल बाहर आने के लिए  ईश्वर से कामना करें !

और अभी अभी टीवी पर दिखाया जा रहा है की जल्दी ही प्रथम व्यक्ति बाहर आने वाला है !  अभी टीवी चालू किया तो देखा की यहाँ अमेरिका में सारे चैनल इसका लाइव प्रसारण  कर रहे हैं !

लाइव ब्लॉग - http://ac360.blogs.cnn.com/category/live-blog/
http://www.cnn.com/ पर बाहर निकालने की प्रक्रिया को लाइव देखा जा सकता हैं जहाँ पर एक व्यक्ति को कैप्सूल के अन्दर भेजा गया है !  बहुत ही उच्च तकनीक का उपयोग करके ये सुरंग फंसे हुए लोगों तक बनायी गयी है - मुझे ख़ुशी है के चलो मानव के कुछ अनुसन्धान आज काम आ रहे हैं नहीं तो इन लोगों का बच पाना संभव नहीं था !! हर तरह से इन लोगों का विशेष ध्यान रखा गया - वो क्या खाएं , मानसिक रूप से कैसे स्वस्थ और खुश रह सकें , कैसे  एक सामाजिक व्यवस्था अन्दर बनायीं जा सके और कैसे सूर्य जैसा प्रकाश उन्हें उपलब्ध कराया जा सके , इन सब बातों पर विशेष ध्यान दिया गया और साथ ही कैसे एक दूसरे से या अन्दर के वातावरण से  दूषित होने से बचा जाये  - इन सब बिन्दुओं पर लगातार ध्यान रखा गया !

चलो  अब आ रहे हैं वो अन्धकार से प्रकाश की और !!

रविवार, 10 अक्टूबर 2010

वर्धा और बिरयानी घर

न्यूयार्क के फायनेन्शियल केंद्र के बीचों बीच लगे खाने के ठेलों के बारे में पहले भी लिख चुका हूँ, इस गुरुवार को एक दोस्त जब फिर से इधर खींच ले गया तो अचानक से निगाह पडी एक ठेले पर - जिस पर हिंदी में उसका नाम लिखा था, हिंदी प्रेमी को तो उससे प्रभावित होना ही था !  उसी से शाकाहारी बिरयानी ली गयी चटपटे मसालों के साथ ! इन ठेले वालों पर आर्थिक मंदी का असर न्यूयार्क में कभी भी नहीं दिखा,  लंच के समय पर फलाफल इत्यादि के लिए लगी लाईनें कभी कम नहीं देखी - जब भी उधर जाना हुआ ! क्यों होंगी  - सस्ता - मसालेदार और चटपटा कौन नहीं खाना चाहता - चाहे लोग कितना भी स्वास्थ्य के प्रति जागरूक हों, एक न एक दिन तो न्यूट्रिसनविहीन सबको चलता है !

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चटपटे से ध्यान आया कि ब्लॉग्गिंग में भी अपने ब्लॉग को हिट करने को लेकर ऐसे चटपटे मसाले परोसने वाले ब्लॉग खूब चलते हैं, और चलेंगे भी, वैसे भी ब्लॉग्गिंग तो मन की अभिव्यक्ति का एक लाइव माध्यम जो है,  लोग जो मन में आया लिख सकते हैं, कुछ शौक के लिए तो कुछ कमाई के लिए  ! 

वर्धा में भी हिंदी ब्लोग्गिंग के ऊपर एक कार्यशाला चल रही है जिसमें ब्लोग्गिंग के मापदंड तैयार करने के बात हो रही है,  कुछ लोगों ने थोडा बहुत गंभीर लिख दिया तो लोग उससे देश सुधार की उम्मीद लगा बैठे, क्या ये संभव है  ? क्या ब्लोग्गिंग पर आचार संहिता लगाना व्यवहारिक है ?  या ये सब करना एक मजाक है - मेरे हिसाब से से ये समय और पैसे की बर्बादी है !  ब्लोग्गिंग एक ऐसी विधा है जिसे लोग अपने मन की बात खुले में जब चाहे तब एक सार्वजनिक मंच पर बिना किसी प्रतिबन्ध और दबाब के बयाँ करने के लिए उपयोग में लाते हैं !  इससे देश सुधार कैसे हो ?  देश के सुधार के लिए पहले जो हम सबको करना होगा - वो है अपने वोट का सही उपयोग - एक प्रजातंत्र में साफ सुथरे प्रतिनिधि भेजना सबसे अहम कर्तब्य होता है, क्या वह हम सब तथाकथित बुद्धिजीवी लोग करते हैं या कर रहे हैं?  तो क्या फिर ये कार्यशाला इस बात पर केंद्रित नहीं होना चाहिए कि कैसे हिंदी ब्लोग्गिग को  हिंदी लिखने वालों के लिए सुलभ और उपयुक्त बनाए जाए, और कैसे  इसके बढावे के लिए प्रायोजक ढूंढें जाए जो अपने ads से और लिखने वालो को एक लोभ से ही सही - पर प्रेरित जरूर करे !    ब्लॉग्गिंग के भी क्या मापदंड बनाने ! हम हिन्दुस्तानी लोग बहुत भावुक होते हैं और इस लिए हर चीज में संघठन और समूह पहले बनाने लगते हैं !  ब्लोग्गिंग में भी यही कुछ कभी कभी होता रहता है, लिखने से ज्यादा लोग अपने आप को एक ग्रुप विशेष का मुखिया बनाने की मुहिम में जुड जाते हैं !  और कुछ लोग अपने आप को ब्लॉग्गिंग का प्रतिनिधि और शुभचिंतक समझ हर इन समारोहों में शिकरत की उम्मीद पाल बैठते हैं और फिर परेशान भी होते हैं जब अपेक्षाएं खरी नहीं उतरती !!

हिंदी ब्लॉग्गिंग हो या किसी और भाषा की ब्लॉग्गिंग, उसे नेतृत्व की कोई जरूरत नहीं और ना ही कुछ लोग किसी स्वतंत्र ब्लॉग्गिंग का प्रतिनिधित्व या विरोध कर सकते हैं, ये तो स्वतंत्र छाप है आपके व्यक्तित्व की, यहाँ भी एक विशेष परिभाषा में आप बंधकर कैसे रह सकते हैं ?  कुछ लोग फोटो छपने से खुश तो कुछ सिर्फ बुलावा आने पर खुश, और कुछ ऐसे भी हैं जो न बुलाये जाने पर दुखी भी है और कुछ पारदर्शिता के नाम पर सरकारी खजाने को लुटाए जाने पर दुखी हैं तो कुछ इसके संयोजक बन वाहवाही लूटने में खुश ! वही सब जो नेता करते हैं, – गुटबाजी - वही हम करने लगे तो फिर ये ब्लॉग्गिंग निरपक्ष नहीं, ये फिर ब्लोग्गिंग नहीं , दर्पण नहीं आपने व्यक्तित्व का - बल्कि एक दिखावा है  !

लोगों के पास इतना समय कहाँ से आता है व्यर्थ की गुटबाजी में संलग्न रहने का, मैं तो लिखता हूँ जो मन में आता है इसे उकरने को !  इन मठों का सदस्य बनने की दरकार नहीं है मेरी !

वैसे बिरयानी घर का ठेला लगाने वाला बांग्लादेश का रहने वाला है, पर बिरयानी बड़ी मजेदार बनायी उसने बिलकुल देशी - चटपटी ! 

देश सुधार तब कर पायेंगे जब खुद को एक आदर्श बना कर जी पाओगे !

फिर भी --- आयोजको को बधाई ! और दुखियारों को सलाह - एक और आयोजन कर लो :-))

शुक्रवार, 8 अक्टूबर 2010

पश्चाताप !!

neem-treeगर्मी बहुत थी, घर में हमेशा की तरह बिजली नहीं थी तो घुटन सी हो रही थी तो मैं थोड़ी देर के लिए बाहर नीम के पेड़ के नीचे बैठने चला आया !

आजकल राष्ट्र मंडल खेल जोरों पर हैं और दिल्ली भी चमक रही है - हर जगह विश्व भर से आये मेहमानों का स्वागत करने के लिए चकमक व्यवस्था है!  मुझे गर्व है, ‘डी डी वन’ से चिपका रहा था कल उद्घाटन समारोह के दौरान और गर्व से सीना तना देख बीबी बच्चे भी कह रहे थे कि चलो आज ये खुश तो दिखे किसी बहाने से ! मैं आजकल कुछ ज्यादा ही निराश रहने लगा हूँ, इस युवावस्था में भी शायद गर्मी को झेलने की ताकत नहीं बची है अब इस शरीर में !

शायद कुत्ते को बाहर शौचालय जाना था तो सक्सेना जी भी अपने वातानुकूलित बंगले से बाहर सैर पर निकलते हुए दिखे, कुछ दिनों से मेरी तरफ देखकर जैसे मुझे अनदेखा सा कर रहे थे!

मुझे ऐसी आशंका है कि शायद (हाल ही में) उन्होने मेरा ब्लॉग पढ़ लिया था, जिसमें मैं वरिष्ट सरकारी अफसरों की अकर्मण्यता पर सवाल उठा चुका था तो कुछ उकसे हुए से रहते थे और मुझे ऐसे घूरते थे जैसे में एक असफल, संघर्षमय इंसान जो अमीर बनने के सिर्फ ख्वाब ही देख सकता हूँ - और फिर निराशा में  और लोग जो नौकरी से अच्छा भला कमा रहे हैं उनको  अनायास ही कोसता रहता हूँ!  पर में स्वाभिमान के वटवृक्ष की छाया में खुद को ये सोचकर खुश कर लेता था कि ‘सबकी अपनी अपनी सोच है' , और फिर मैं तो इस देश का एक गांधीवादी नागरिक हूँ तो मुझे गर्वान्वित होकर जीवन जीना चाहिए !

मैंने जब अभिवादन करने के लिए अपना हाथ हिलाया तो पता नहीं आज कैसे मेरी तरफ हलकी सी मुस्कान लिए शेर कि तरह झपट मारते हुए आ धमाके और बोले -  तुम ऐसे ही नीम के नीचे बैठे रहो, देखो कलमाडी को कितना ऐंठ लिया और देश का सर भी ऊँचा कर दिया !! हम तो एक सीदा सादा सब-इंजिनीयर हूँ, रोज साईट पर जाता हूँ, पसीना बहा बहा कर सीमेंट की बोरियों और मजदूरों के संख्या को अडबड-गडबड करके ऐसे तैसे कुछ कमा लिए तो तुम्हे परेशानी हो गयी और चिल्ला दिए इधर – उधर, हमें भी कंप्यूटर चलाना आता है - तुम क्या समझे ! ऐसे ही सुभाष चंद्र बोस हो - तो कलमाडी और पवार के खाते खोलो - खामखा हम जैसे सरकारी कर्मचारियों पर अपनी भड़ास निकलते रहते हो, खैर तुम नहीं समझोगे ये सब बातें, बस गर्व से फूले बैठे रहो उद्घाटन समारोह की चकाचौंध के तले दबे दबे !

बोलते ही रहे, मेरा मौन जैसे उनका सम्बल बन गया था आज ! आगे और दुत्कारा मुझे - कभी हमारी परेशानियों के बारे में सोच है, चार पत्रकार लोग हैं - दैनिक टास्कर वाला, दैनिक प्वदेश वाला, आदरण वाला और जामरण वाला सब अपना अपना पेपर बान्धने को बोलते है और अलग से पैसा भी देना होता है नहीं तो कभी भी कुछ भी छाप देते हैं,  ऐसा करते करते तुम अनुमान भी नहीं लगा सकते कि कितने लोगों को अपनी पसीने की कमाई बांटनी पड़ती है तब ये घर  बंगला बन पाया है ,  और आजकल तो एक शाम के अखबार वाला जिसका तुमने नाम भी नहीं सुना होगा - आकर बोलता है कि अपनी सारे लेबर से बोलो के रोज मेरा अखबार खरीदे - हर तरफ गुंडागर्दी है , कभी इस नीम के पेड़ की छाया से बाहर निकल कर देखो और अहसास लो असली तपन का !

मेरा मौन और प्रखर होता गया और शरीर की भावभंगिमायें प्रतिक्रिया में चेहरे पर ग्लानी के प्रखर भाव मुखरित कर रही थीं! सक्सेना जी ने चेहरे पर मायूसी बिखेरकर बोला - सबसे आगे हैं गली गली में घूम रहे नेते,  हर दल का कोई न कोई गुंडा रोज घर आकार धमकी देते लगता है, इनका भी पेट भरना पडता है और घर के खर्चे !!! तुमको पता है कि ए सी और इनवर्टर का बिल कितना आता है  ? दिवाली आ रही है - पता है कितने लोगों के मुँह मीठे करने पड़ेंगे - कडवे भाव लेकर ?  खैर छोडो - मैं भी किसको पूँछ रहा हूँ !!  अब बताओ कि सडकें बनाए , बाँध बनाए या फिर इन लोकतंत्र के स्तंभों को रिश्वत दे देकर सींचू ?

मेरे मुँह से अनायास ही कुछ शब्द निकले - जैसे कि मैं उनके तीक्ष्ण वेग बाणों से घायल हो बदहवासी में कुछ शब्द बोल पा रहा हूँ - “जी आप बिलकुल ठीक कह रहे हैं !”  इतना बोलना था कि - सक्सेना जी तपाक से चुटकी भरने लगे - चलो अब मेंढक निकला कुए से बाहर  ! 

बोले, चलो फिर… टेक केयर !! हम निकलते हैं - ‘टोमी (कुत्ते) को यहाँ बहुत गर्मी लग रही  है!! और तुम भी अंदर हो लो - कहीं लू न लग जाए‘

मैं तो जैसे सक्सेना जी के बारे में - उनके दो नंबर के पैसे के बारे में, उनकी तथाकथित अकर्मण्यता के बारे में लिखकर जैसे बहुत बड़ी भूल कर बैठा था, पश्चाताप के भाव मुझे और मेरे विचारों को उद्वेलित कर रहे थे कि सक्सेना जी बेचारे कितने परेशान हैं उन लुटेरों से - जिनका भी वही हाल होगा उनको लूटने वालो से जो सक्सेना जी का है !   देखो बेचारे कलमाडी जी भी तो अन्तराष्ट्रीय दबाब और राष्ट्र मंडल खेलो के विशाल आयोजन में कितने विवश और परेशान दिखाई देते हैं ! और मैं अक्सर ही इन लोगों को कोसता रहता हूँ - मुझे कोई और काम नहीं हैं क्या – बेकार – बेकाम – निराश – रोऊ - भारत का आम नागरिक  - जैसे तपती गर्मी से आम की तरह पिलपिला हो सबके कपडे खराब करने पर आमादा हूँ !

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विचारों की ये उद्वेलना, उत्प्रेरक बन मुझे बुद्धिजीवी बना सपनों में विचरण करा रही थी, पर अभी अभी ‘पी डब्लू डी विभाग के उप अभियंता’ सक्सेना जी ने विशेष गुरुत्वाकर्षण बल से (उड़ते हुए) मुझ अधमरे इंसान को जैसे जमीन पर ला पटका प्रायश्चित की अनन्त समाधी में खोने को !!

मंगलवार, 5 अक्टूबर 2010

सोसल नेटवर्किंग

 

Social_network_film_poster फेसबुक के ऊपर बनी फिल्म ‘सोसल नेटवर्क' दृढ इच्छाशक्ति, और अर्जुन की तरह एकाग्र मार्क जकरबर्ग के आसपास घूमती है,  किस तरह हार्डवर्ड भारत के आई आई टी की तरह हीरे पैदा करता है, (गौर करने की बात है कि मैं कभी भी उल्टी तुलना नहीं करता, आई आई टी  और आई आई एम जैसे संस्थानों से निकलने वाले भी ऑक्सफोर्ड और हार्डवर्ड से कमजोर नहीं होते ! )  एक विलक्षण प्रतिभा वाला कंप्यूटर प्रोग्रामर कैसे ४० बिलियन की एक संस्था खड़ी करता है और कैसे वो नयी और अद्वितीय सोच के साथ सब रंगरेलियों से दूर अर्जुन की तरह एकाग्र हो ५०० मिलियन से भी अधिक लोगों को एक प्लेटफोर्म देता है जहाँ वो रोज कई बार फेस बुक पर लोगिन कर उसकी मार्केटिंग शक्ति को दिनों दिन बढाते जा रहे हैं , पर खुद ये अर्जुन अपने आप को कितना अकेला पाता है ! विद्वान कहते हैं न कि - ‘कुछ पाने के लिए कुछ खोना पडता है’  - पर कभी कभी हम कितना कुछ खो देते हैं सफलता की सीढियाँ चढते चढ़ते !  शायद बहुत दिनों बाद किसी फिल्म को पांच में से पांच अंक देने का मन कर रहा है !

इन सब सफलताओं और हमारे दिनों दिन बढ़ते हुए सामाजिक संरचनात्मक दायरे पर एक नजर दौडायें तो मन में विचारों की उद्वेलन होना स्वाभाविक है. कुछ विशेष उदाहरणों के जरिये हमारी सम्पर्क क्षमता के वेग और बढते दोस्तों की संख्या का विश्लेषण करते हैं !

काफी दिन पहले अनुराग जी ने अपने फेस बुक पर अपने स्टेटस में लिखा था – “I have so many friends that I can't count. Can I count on them?”  - सामाजिक नेटवर्क के कितने साधन हैं, ऑरकुट, फेसबुक, ट्विटर और बज्ज से लेकर ब्लॉग तक कितने दोस्त हम रोज बनाते हैं, अनगिनत अनजाने चेहरे आपसे रोज जुडते हैं, बहुतों को पुराने स्कूल के और कोलैज के मित्र भी इन नेटवर्क के जरिये एक उपहार के रूप में बहुत दिनों के बाद मिले, पर कितने लोग आपके इतने पास हैं इनमें से कि जो आज आपके सुख दुःख में साथ हैं और जिनके साथ आप वास्तव में अपना दिल की बातें अभिव्यक्त कर अपने आपको हल्का महसूस कर सकते हैं या फिर आप उन दोस्तों का कितना ख्याल इमानदारी से रख पाते हैं ?  मैंने अनुराग जी के स्टेटस पर जो जबाब दिया, उससे मैं खुद संतुष्ट नहीं हूँ - बस उस समय जो दिमाग में आया लिख दिया था - शायद ये मेरी किसी (छोटी - या बड़ी - जैसे भी परिभाषित करें) विशेष सोच का द्योतक रहा होगा,  ये रहा अनुराग जी का सवाल और उनके कुछ फेसबुक दोस्तों के जबाब भी -

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मेरे हिसाब से अनुराग जी ने बहुत ही महत्वपूर्ण मुद्दा उठाया जिस पर विचार अत्यंत आवश्यक है, ये सवाल हमें सोचने पर विवश करता है कि क्या वो दिन ही सही थे जब कुछ ही दोस्त थे पर वो वाकई में, और सच्चे अर्थों में अपने थे,  मैं ये कहकर अपने दोस्तों का दिल दुखाना नहीं चाहता और न ही किसी की विश्वशनीयता पर प्रश्नचिन्ह लगाना चाहता हूँ, पर उनके इस जबाब ने मुझे सोचने पर विवश किया, स्वनिरीक्षण और अन्तरविश्लेषण करना ही होगा कि क्या हम वाकई में अपने हर दोस्त का ख़याल रख पाते हैं ?

कुछ दिन पहले जब परिवार को न्यूयार्क एक महीने के लिए लाया तो कुछ दोस्तों के यहाँ जाना हुआ,  हर कोई किसी न किसी माध्यम से एक सामजिक संरचना और नेटवर्क से जुड़ा हुआ था, कोई हर सप्ताह मंदिर जाता है जिससे लोगों से मिलना होता रहे तो किसी ने हिंदी संगीत का कोई क्लब ज्वाइन किया हुआ है जिससे शौक के साथ भारतीय लोगों से मिलना भी होता रहे पर इस सबके बाबजूद सबकी जिंदगी में एकाकीपन सा दिखा - एक तलाश दिखी ऐसे दोस्त की जिससे अंतरमन की बाते, ऑफिस का बोझ या फिर किसी निर्णय के लेने में हो रही जद्दोजहद से हुए भारी मन का बोझ बांटा जा सके !

एक दोस्त हमारे गृहजिले के रहने वाले थे, बहुत सालों से मुलाकात ही नहीं हुई थी,  पिछले साल जब में न्यूयार्क  में मैं एक एस्केलेटर से नीचे उतर रहा था तो उसने अचानक से मेरा नाम एक प्रश्नचिन्ह के साथ लिया - दोनों ने ही शरीर में बढोत्तरी कर ली थी, और करीबन १२ साल बाद मिले होंगे पर फिर भी पहचान लिया, बातचीत हुई,  ईमेल ले लिए गये, फेसबुक और तमाम नेटवर्कों पर उसने निमंत्रण भेजा जिससे कि रोजमर्रा में हम एक दूसरे के साथ संपर्क में रह सकें ! ध्यान देते वाली बात है कि एक दूसरे के स्टेटस पर वाहवाही और कमेन्ट करते रहने को संपर्क में रहना कहा जाता है !

जब इस साल परिवार को न्यूयार्क लाया तो उसका एक सन्देश देख मैंने पूछ लिया कि कब बुला रहे हो घर , तुम्हारे ही  शहर में परिवार के साथ हूँ मैं!  उसका कोई प्रत्युत्तर नहीं आया - कुछ दिन इन्तजार किया, एक - दो बार पिंग किया पर वापस पिंग का जबाब नहीं आया, तत्क्षण मुझे तनिक बुरा लगना स्वाभाविक था, पर थोड़े दिनों बाद मेरे दिमाग से भी ये बात निकल गयी ! 

तीन चार सप्ताह के बाद चैट पर ये महाशय हालचाल पूछने के बहाने से बात करने लगे और फिर एकदम से माँफी माँगने लगा, उसकी जब बात सुनी तो खुद ही को ग्लानित पाया ! उसने बताया कि उस समय वो परेशानी में था , नौकरी शिफ्ट कर रहा था या नौकरी तलाश कर रहा था , मजबूरी में घर की बजाय होटल में परिवार के साथ  रुरुकने पर मजबूर था, ऐसे में मुझे कैसे अपने घर बुलाता ?  उस समय वो एक अजीब तरह की मानसिक अवस्था से गुजर रहा होगा, वर्क वीसा पर आप अमेरिका में परिवार के साथ हो और नौकरी नहीं है या नौकरी परेशानी में है तो चिन्ता और निराशा और सामजिक दबाब बुरी तरह से आपको तोड़ सा देता है!  शायद ही किसी से वो अपनी दशा उस समय बाँट रहा होगा , इतने दोस्त होने के बाद भी कितना अकेला अपने आप को अनुभव कर रहा होगा !  क्या यही हमारे रोज के संपर्क में रहने का पर्याय है, क्या यही मेरे इतने नेटवर्क समूहों पर सक्रिय रहने का सत्य है - ये सब सवाल ऐसी घटनाओं के जरिये मानस पटल पर आपको जरूर सोचने पर मजबूर करते होंगे ! ये घटना सत्य हो न हो पर हम सब कभी न कभी ऐसी स्थिति से जरूर रूबरू हुए होंगे और तब मनःस्थिति इतनी भीड़ में भी खुद को अकेला सा पाने जैसी हो जाती है !!

जन्मदिन की शुभकामनाओं और कमेन्ट देने से आगे सोचने का समय ही कहाँ है , या फिर खुद को इतनी जगह व्यस्त कर रखा है कि किसी के साथ भी न्याय नहीं कर पा रहे  !  सूचना के आदान प्रदान तक सोसल नेटवर्किंग यथोचित है पर उसको अगर हम दोस्ती की जिम्मेदारी की पराकाष्ठा पर नापने लगे तो शायद ही उत्तीर्ण हों !  बाजारू व्ववस्था का मार्ग प्रशस्त करने वाले इन माध्यमों ने एकाकीपन सा पैदा कर दिया है, जहाँ बाहर से चमक दमक और सब महका सा दिखाई देता पर, कई लोग साथ दिखते है पर शायद ही कोई मुश्किल का हमराही हो ! अत्यधिक व्यस्तता, अनगिनत दोस्त, और हमारे अनचाहे स्वार्थ ने इतने संपर्क के साधनों के बाद भी और छटपटाहट और झुंझलाहट सी जिंदगी में ला खड़ी की है !

ये दार्शनिक और सार्थक सोच तो चलती रहेगी, काम की बात है कि फ़िल्म देखने लायक है :)