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शुक्रवार, 8 अक्टूबर 2010

पश्चाताप !!

neem-treeगर्मी बहुत थी, घर में हमेशा की तरह बिजली नहीं थी तो घुटन सी हो रही थी तो मैं थोड़ी देर के लिए बाहर नीम के पेड़ के नीचे बैठने चला आया !

आजकल राष्ट्र मंडल खेल जोरों पर हैं और दिल्ली भी चमक रही है - हर जगह विश्व भर से आये मेहमानों का स्वागत करने के लिए चकमक व्यवस्था है!  मुझे गर्व है, ‘डी डी वन’ से चिपका रहा था कल उद्घाटन समारोह के दौरान और गर्व से सीना तना देख बीबी बच्चे भी कह रहे थे कि चलो आज ये खुश तो दिखे किसी बहाने से ! मैं आजकल कुछ ज्यादा ही निराश रहने लगा हूँ, इस युवावस्था में भी शायद गर्मी को झेलने की ताकत नहीं बची है अब इस शरीर में !

शायद कुत्ते को बाहर शौचालय जाना था तो सक्सेना जी भी अपने वातानुकूलित बंगले से बाहर सैर पर निकलते हुए दिखे, कुछ दिनों से मेरी तरफ देखकर जैसे मुझे अनदेखा सा कर रहे थे!

मुझे ऐसी आशंका है कि शायद (हाल ही में) उन्होने मेरा ब्लॉग पढ़ लिया था, जिसमें मैं वरिष्ट सरकारी अफसरों की अकर्मण्यता पर सवाल उठा चुका था तो कुछ उकसे हुए से रहते थे और मुझे ऐसे घूरते थे जैसे में एक असफल, संघर्षमय इंसान जो अमीर बनने के सिर्फ ख्वाब ही देख सकता हूँ - और फिर निराशा में  और लोग जो नौकरी से अच्छा भला कमा रहे हैं उनको  अनायास ही कोसता रहता हूँ!  पर में स्वाभिमान के वटवृक्ष की छाया में खुद को ये सोचकर खुश कर लेता था कि ‘सबकी अपनी अपनी सोच है' , और फिर मैं तो इस देश का एक गांधीवादी नागरिक हूँ तो मुझे गर्वान्वित होकर जीवन जीना चाहिए !

मैंने जब अभिवादन करने के लिए अपना हाथ हिलाया तो पता नहीं आज कैसे मेरी तरफ हलकी सी मुस्कान लिए शेर कि तरह झपट मारते हुए आ धमाके और बोले -  तुम ऐसे ही नीम के नीचे बैठे रहो, देखो कलमाडी को कितना ऐंठ लिया और देश का सर भी ऊँचा कर दिया !! हम तो एक सीदा सादा सब-इंजिनीयर हूँ, रोज साईट पर जाता हूँ, पसीना बहा बहा कर सीमेंट की बोरियों और मजदूरों के संख्या को अडबड-गडबड करके ऐसे तैसे कुछ कमा लिए तो तुम्हे परेशानी हो गयी और चिल्ला दिए इधर – उधर, हमें भी कंप्यूटर चलाना आता है - तुम क्या समझे ! ऐसे ही सुभाष चंद्र बोस हो - तो कलमाडी और पवार के खाते खोलो - खामखा हम जैसे सरकारी कर्मचारियों पर अपनी भड़ास निकलते रहते हो, खैर तुम नहीं समझोगे ये सब बातें, बस गर्व से फूले बैठे रहो उद्घाटन समारोह की चकाचौंध के तले दबे दबे !

बोलते ही रहे, मेरा मौन जैसे उनका सम्बल बन गया था आज ! आगे और दुत्कारा मुझे - कभी हमारी परेशानियों के बारे में सोच है, चार पत्रकार लोग हैं - दैनिक टास्कर वाला, दैनिक प्वदेश वाला, आदरण वाला और जामरण वाला सब अपना अपना पेपर बान्धने को बोलते है और अलग से पैसा भी देना होता है नहीं तो कभी भी कुछ भी छाप देते हैं,  ऐसा करते करते तुम अनुमान भी नहीं लगा सकते कि कितने लोगों को अपनी पसीने की कमाई बांटनी पड़ती है तब ये घर  बंगला बन पाया है ,  और आजकल तो एक शाम के अखबार वाला जिसका तुमने नाम भी नहीं सुना होगा - आकर बोलता है कि अपनी सारे लेबर से बोलो के रोज मेरा अखबार खरीदे - हर तरफ गुंडागर्दी है , कभी इस नीम के पेड़ की छाया से बाहर निकल कर देखो और अहसास लो असली तपन का !

मेरा मौन और प्रखर होता गया और शरीर की भावभंगिमायें प्रतिक्रिया में चेहरे पर ग्लानी के प्रखर भाव मुखरित कर रही थीं! सक्सेना जी ने चेहरे पर मायूसी बिखेरकर बोला - सबसे आगे हैं गली गली में घूम रहे नेते,  हर दल का कोई न कोई गुंडा रोज घर आकार धमकी देते लगता है, इनका भी पेट भरना पडता है और घर के खर्चे !!! तुमको पता है कि ए सी और इनवर्टर का बिल कितना आता है  ? दिवाली आ रही है - पता है कितने लोगों के मुँह मीठे करने पड़ेंगे - कडवे भाव लेकर ?  खैर छोडो - मैं भी किसको पूँछ रहा हूँ !!  अब बताओ कि सडकें बनाए , बाँध बनाए या फिर इन लोकतंत्र के स्तंभों को रिश्वत दे देकर सींचू ?

मेरे मुँह से अनायास ही कुछ शब्द निकले - जैसे कि मैं उनके तीक्ष्ण वेग बाणों से घायल हो बदहवासी में कुछ शब्द बोल पा रहा हूँ - “जी आप बिलकुल ठीक कह रहे हैं !”  इतना बोलना था कि - सक्सेना जी तपाक से चुटकी भरने लगे - चलो अब मेंढक निकला कुए से बाहर  ! 

बोले, चलो फिर… टेक केयर !! हम निकलते हैं - ‘टोमी (कुत्ते) को यहाँ बहुत गर्मी लग रही  है!! और तुम भी अंदर हो लो - कहीं लू न लग जाए‘

मैं तो जैसे सक्सेना जी के बारे में - उनके दो नंबर के पैसे के बारे में, उनकी तथाकथित अकर्मण्यता के बारे में लिखकर जैसे बहुत बड़ी भूल कर बैठा था, पश्चाताप के भाव मुझे और मेरे विचारों को उद्वेलित कर रहे थे कि सक्सेना जी बेचारे कितने परेशान हैं उन लुटेरों से - जिनका भी वही हाल होगा उनको लूटने वालो से जो सक्सेना जी का है !   देखो बेचारे कलमाडी जी भी तो अन्तराष्ट्रीय दबाब और राष्ट्र मंडल खेलो के विशाल आयोजन में कितने विवश और परेशान दिखाई देते हैं ! और मैं अक्सर ही इन लोगों को कोसता रहता हूँ - मुझे कोई और काम नहीं हैं क्या – बेकार – बेकाम – निराश – रोऊ - भारत का आम नागरिक  - जैसे तपती गर्मी से आम की तरह पिलपिला हो सबके कपडे खराब करने पर आमादा हूँ !

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विचारों की ये उद्वेलना, उत्प्रेरक बन मुझे बुद्धिजीवी बना सपनों में विचरण करा रही थी, पर अभी अभी ‘पी डब्लू डी विभाग के उप अभियंता’ सक्सेना जी ने विशेष गुरुत्वाकर्षण बल से (उड़ते हुए) मुझ अधमरे इंसान को जैसे जमीन पर ला पटका प्रायश्चित की अनन्त समाधी में खोने को !!

11 टिप्‍पणियां:

Arvind Mishra ने कहा…

कुछ कुछ समझ रहा हूँ -आप तो इस मुहावरे को ही लगता है पलटनी दे देंगें कि दूर के ढोल सुहावने होते हैं :)

ASHOK BAJAJ ने कहा…

या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता ! नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:!!

नवरात्रि पर्व की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं...

कृपया ग्राम चौपाल में आज पढ़े ------
"चम्पेश्वर महादेव तथा महाप्रभु वल्लभाचार्य का प्राकट्य स्थल चंपारण"

राम त्यागी ने कहा…

@अरविन्द जी - इशारा तो साफ दिख रहा है व्यंग्य में !

@बजाज जी - जरूर आयेंगे आपके ब्लॉग पर - वैसे योग तो एक वरदान है !

राज भाटिय़ा ने कहा…

वाह जी आप ने कईयो को समेट लिया:) बहुत सुंदर. धन्यवाद, लेकिन बच के उधर सक्सेना जी आ रहे हे... जिन की पोल पट्टी भी आप ने खोल दी:)

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

देखिये जहाँ पैसा बह् और चर्चा न हो बंदरबाँट की तो थोड़ा अटपटा लगता है। यह तो अब एक सर्वमान्य तथ्य है।

राम त्यागी ने कहा…

जय बंटी चोर ....आप तो हर जगह छाए हो यार !

प्रवीण जी, लेकिन आप जैसे अपवाद भी मौजूद हैं जो काम को इमानदारी से करते हैं ...सही है ना ?

राम त्यागी ने कहा…

मेरी प्रिय 'इंदु' बुआ जी - जो बहुत ही सार्थक कमेन्ट देती हैं -

"indu puri goswami" - एक पीपा तेल,एक पीपा देशी घी ,बीस किलो चीनी,एक कट्टा बासमती चावल,एक कार्टून नहाने का साबुन पीअर्स,चार दर्जन कपड़े धोने का साबुन,एक दर्जन टाइड,चार किलो काजू,चार किलो बादाम ................ये लिस्ट है एक वन अधिकारी की पत्नी की जो उन्होंने मेरे एक रिश्तेदार को दी बाज़ार से खरीदने के लिए. मैंने पूछा -'पैसे?'
जवाब मिला हर महीने पकड़ा देती है ना साहब ने पैसे दिए ना उनकी पत्नी ने.सामन ला कर देना है नही तो......साहब नाराज.कब किस मामले में 'लेटर' पकड़ा दे..'
'पत्रकारों को दे दो एक बार'
'नौकरी करनी है ना अभी मुझे....ऐसे लोगों के होते इमानदारी से नौकरी करने की बात करती हो ? बेईमानी ना करूं तो इनके पेट कैसे भरूँ?अधिकारी लोग विजित पर आते हैं उनके होटल ,शराब,मुर्गे,मछली का बिल भी हमे ही भरना पड़ता है.किस्से कहें? पूरे कुएं में भंग घुली है.'
मेरे पास कोई जवाब नही था. आपके पास है?
इसी तरह स्टाफ से सामन माँगा माँगा कर उन्होंने अपने साले के किराने की दूकान खुलवा दी.कोई अपनी खरी मेहनत की कमाई से क्यों इतना खर्च करेगा? बताइए राम!

राजभाषा हिंदी ने कहा…

बहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है!
या देवी सर्वभूतेषु बुद्धिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
नवरात्र के पावन अवसर पर आपको और आपके परिवार के सभी सदस्यों को हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई!

मरद उपजाए धान ! तो औरत बड़ी लच्छनमान !!, राजभाषा हिन्दी पर कहानी ऐसे बनी

Girish Kumar Billore ने कहा…

abhee umdaa vimarsh hee kahooMgaa shesh fir pooraa adhyayan karake

amar jeet ने कहा…

वाह बहुत बढ़िया आम आदमी की तुलना पिलपिले आमो से करना विचारो के साथ साथ रुकी हुई सोच को को प्रदर्शित करता है !

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत सटीक दिया...अपवादों की बात आजकल कहाँ होती है.