टोरोंटो शहर अच्छा लग रहा है, शांत है, शाम के समय लोग बार और होटलों में समय बिताते दिखते है. कल समीर लाल जी से बातचीत हुई, आत्मिक प्रसन्नता हुई बात करके. मिलने का समय निकालना है जल्दी से. मिलने से ध्यान आया की आज ऑफिस में एक महाशय जो की प्रोजेक्ट को लीड कर रहे हैं बोले की अगर मोंट्रियल जा रहे हो और उसी दिन वापस आ रहे हो, क्या पागल और क्रेजी हो ? मैं होता तो सप्ताहांत उधर ही गुजारकर आता ....जाओ और वहीं रुको और गुरुवार, शुक्रवार को वहीं से काम कर लो...
भाई ऐसा क्या है इस मोंट्रियल में ? कोई कुछ तो बताये ....बड़ी जिज्ञासा हो रही है और सोच रहा हूँ की क्यूं न अपने कैलंडर में कुछ शफल किया जाए.
इधर टीम में सारे लोग नए है तो बहुत जिम्मेदारियों का बोझ सा है पर होटल और शहर का वातावरण अच्छा लग रहा है. दो दिन में दो भारतीय रेस्तरां नाप दिए. कुछ अंग्रेज लोंगों को भी देश का स्वाद चखाया, वैसे वो लोग देश के खाने के बहुत दीवाने हैं, बात चीत में मैंने उन्हें बताया की देखो आउट्सोर्सिंग का ये भी एक फायदा है की तुम लोगों को भारत का इतना स्वादिष्ट खाना मुरीद होता है. मेरे अमेरिकेन पडोसी भी भारतीय खाने के बहुत दीवाने हैं. वैसे मेरे ऑफिस में भारत से यहाँ आया एक प्राणी पिज्जा का दीवाना है और आज उसने १२ से ४ के बीच २ बार पिज्जा खाकर अपनी जीभ को संतुष्टि दी. पश्चिम का पूर्व और पूर्व का पश्चिम प्रेम नोट करने लायक है.
जब जब होटल में रुकता हूँ, सोचता हूँ की कुछ चीजें अवांछित हैं, पर्यावरण के लिए बहुत कुछ करने की ढींग हांकने वाले ये होटल क्यूं बिना बात के जरूरत से ज्यादा कपडे देते है ?
एक कविता अपने अन्य ब्लॉग कविता संग्रह पर लिखी थी -
होटल पर मेरे बिस्तर पर पड़े हैं अनेक तकिये
बिना बात के सवार हैं ये मेहमान अनचाहे
गाँव में है बीमार बटाईदार
खटिया पर पडा है
दुखी है गरीबी और बीमारी से
खुश है की एक खाट तो है सोने
में फेंक देता हूँ अनचाही तकियों को
वो समेट लेता है मिलती हुई चीजों को
कहता रहता है बार बार
जहाँ चने वहाँ दांत नहीं और जहाँ दांत वहाँ चना नहीं
कल जिस रेस्तरां में खाना खाने गया था वहाँ पर चार वृद्ध लोग खाना खा रहे थे, लग रहा था कई सालों से इधर है और अब ऐसा कोई देश में नहीं है जो उनका इन्तजार कर जा रहा है, अब बस उनके पास है डोल्लर और बचीं कुछ यादें -
आज कुछ वृद्ध लोंगों को बतियाते देखा
देश से दूर केवल देश की बात करते देखा
अंग्रेजी में देसी लहजे का स्वाद चखते देखा
और फिर अचानक देसी भाषा में चुटियाते देखा
कभी दर्द को उभरते देखा
तो कभी बचपन को याद करते देखा
हर चुटकी में अपनो को दूर होते देखा
बस पुराने लम्हों का अहसास होते देखा
और फिर अचानक से अपने आप को देखा
कल मुझे भी ऐसा होते ही देखा
विचारों का वेग तेज है, कुछ बिखेर दूँ इधर भी ...
आसमान के ये बादल
सपने जैसे सुनहरे
लगते जैसे आँखों में काजल
देखा जब खुद को आईने में
सोचा में क्या हूँ
क्यूं नहीं दिखता जो हूँ मैं
आसमान छूती गगनचुम्बी इमारतें
ना जाने क्यूं
लिखती नहीं दिखती कोई इबारतें
विशाल झील पर बैठा मैं सोचूं
लगता है ऐसा
भर दूँ सागर अगर में आंसू न पौछूं
कभी कभी समय बहुत तेज भागता है और ऐसा लगता है की दिन और रात भाग रहे है. और भी लिखने का मन है और लिखने को भी बहुत कुछ है पर समय का अभाव इजाजत नहीं देता और अभी मोंट्रियल जाने की तैयारी भी करनी है !!
प्रवीण पाण्डेय जी कृपा करके अपने ब्लॉग की लिस्ट भेज दें.
चलो फिर सब लोग keep tuning ....
शुभ रात्रि ...
7 टिप्पणियां:
nice
आप होटेल के कमरे में बैठ कर अपनी कल्पना को इतना आयाम दे पा रहे हैं, यह देख कर अच्छा लग रहा है ।
http://halchal.gyandutt.com/
http://hmpps.blogspot.com/
देश से दूर वे वृद्ध दिखाई दे रहे हैं।
प्रेरक संस्मरण से सजी सुन्दर पोस्ट!
मोंत्रेअल है बहुत सुन्दर. सन २००४ में गए थे. ४ दिन के लिए. पुराना downtown बहुत ही सुन्दर है. नया देखने में समय मत खपाना. वो तो उत्तरी अमेरिका के हर सहर में इक जैसा ही होता है. पुराना बिलकुल ही हट कर है.
उधर टोरोंटो में bombay palace में भी खा लेना कभी.. मेरे दोस्त के ससुरजी का है :-)
बहुत सुंदर भाई, भारतीया खाना सभी गोरो को बहुत अच्छा ओर स्वाद लगता है जो एक बार भारतीया खाना घर का बना खा ले, वो दोबारा फ़िर से आना चाहता है, चलिये घुमिये ओर समीर जी से भी मिलिये, शुभकामनाये
कैनाडा यात्रा का पूरा आनंद लीजिये!
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