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मंगलवार, 31 अगस्त 2010

संचार क्रान्ति और झमेले …

कुछ दिनों से ब्लॉग परिवार से दूर सा रहा, व्यस्तता ने ऐसा घेरा है कि कतई समय नहीं दे पा रहा हूँ।

सुबह-शाम लोगों का हुजूम देखता हूँ यहाँ न्यूयार्क में, लोग जो हर समय कुछ न कुछ पढ़ रहे हैं, कितनी भी भीड़ में हो पर किसी के हाथ में कोई परचा है तो किसी के हाथ में कोई किताब, तो कई सारे अपने-अपने स्मार्ट फोन पर उंगलियां चला रहे हैं मैं भी शायद सारे दिन निस्तब्ध सा यही करता रहता हूँ। 

लोगों की भीढ़ एक दूसरे को एक स्थान से दूसरे गन्तव्य स्थान पर अपने आप ले जाती है और उस गहमागहमी में भी लोगों की आँखे कहीं न कहीं लगी रहती है। चाहे आने वाली ट्रेन का इंतजार हो या फिर रास्ते में तेजी से चल रहे कदम हों , फोन से निकला हुआ एक तार दोनों कानों को जैसे हथकड़ी में जकडा हो , इन्द्रियां कितनी काबू में हैं - आँखे व्यस्त , कान भी व्यस्त और मुँह तो बस औपचारिक अभिवादन के लिए ही खुलता है  - पर क्या ज्ञान कि तृप्ति हो रही है ? क्या अभिलाषा की संतुष्टि इन सब संचार माध्यमों से हो रही है ? या फिर हम सब एक अनन्त श्रंखला में सन्निहित हो बस होड़ में जो मिला उसे आनंद समझ - समय को , मन को और खुद के जीवन में आये अनचाहे असंतोष से पनपी चिडचिडाहट को भगाने के लिए ये सब करते रहते हैं  - एक तरह से समय की बर्बादी और अपने शरीर को कभी न विश्राम देने की जैसे हमने ठान ली हो ! विशेषकर बड़े शहर के लोगों ने तो जैसे ये ठान ही लिया है। वैसे ही इतना व्यस्त जीवन और ऊपर से ये डिजिटल गजेटों का नशा।crowdedtrainbig

कुछ लोग और शायद मैं भी सिग्नल पर भी अपने फोन में अंदर घुस अपने ईमेल और पता नहीं क्या क्या बार देखते रहते हैं , फिर भी दोस्तों से शिकायत ही रहती है कि आप तो फोन ही नहीं करते - शायद जो करना चाहिए वो हम नहीं करते । कुछ दिन पहले बिसिनेस वीक पत्रिका में पढ़ रहा था कि कैलिफोर्निना में एक विधायक ने प्रस्ताव दिया है कि क्यूँ न लोगों की व्यस्तता का फायदा लिया जाए, कार की नंबर प्लेट को अगर  डिजिटल बना दिया जाए जहाँ पर एक चिप या वायरलेस के माध्यम से हर समय कुछ विज्ञापन आते रहें , लोग फोन पर चिपकने या फोन पर ध्यान खपाने की जगह आगे वाली कार की प्लेट पर ध्यान देंगे जिससे दुर्घटनाएं कम होंगी और विभिन्न कंपनियों को अपने उत्पाद का प्रचार करने का एक नया तरीका भी मिलेगा और कुछ फायदा कार मालिकों को भी होगा।  बेकार आईडिया नहीं है, हो सकता है आगे आने वाले वर्षों में कार की प्लेट से लेकर हमारी शर्ट और पैंट तक डिजिटल हो जायें !!

शिकागो और न्यू यार्क में पुलिस वालो के चलने को डिजिटल कर दिया गया है अब वे अपने इन डिजिटल पैरों के उपयोग से बिना थके कितना भी भाग सकते हैं और साथ में नेविगेटर से आगे बढ़ने की दिशा भी पल पल ले सकते हैं, आशा है कि ये पुलिस वाले अपने पैरों को भी चलित रखेंगे जिससे इनका डिजिटल पैर खराब या बैटरी विहीन हो जाए तो पैरों से भी भाग सकें , भारत में पुलिस वालों को दे दिया जाए तो हमारे सिपाहियों के पेट और भी बड़े हो जायेंगे।

जब बात डिजिटलपन की चली है तो आईफोन की एक छोटी सी ऐप का जिक्र भी करना पड़ेगा, ये प्रोग्राम किसी भी चीज पर उल्लेखित बारकोड को पढ़ कर उसकी कीमत दुनिया भर की जगहों पर आपको बता देगा जिससे आप जान सकें कि कहाँ क्या कीमत है इस चीज की!  अगर बारकोड नहीं है तो ये उस चीज का फोटो खींच कर भी कीमत लाने का प्रयास करेगा - यानी आप कहीं भी खड़े होकर , किसी भी स्टोर में जाकर वहाँ रखी चीज की कीमत की तुलना अन्य दुकानों से कर सकते हैं।

पर इतना दिमाग लगा कर क्या जीवन सरल हुआ है - मेरे हिसाब से और भी कठिन हुआ है, झमेलों वाली सरलता ….इस डिजिटलपन से आ रही है !!!

सोमवार, 23 अगस्त 2010

राखी के पावन पर्व पर मैं क्यों हूँ निशब्द ?

26 वीं मंजिल पर अपने नन्हे से अपार्टमेंट में बैठा जब मैं चारों और देखता हूँ तो जगमग रोशनी ही रोशनी नजर आती है,  मेरी नजर गिद्ध की नजर तो नहीं पर जहाँ तक जाती है मकान ही मकान नजर आते हैं। एक विशाल शहर अपने आप में करोड़ों लोगों को समाहित करे हुए है , एक विशाल नदी भी खिडकी के मुहाने से बहती दिखाई देती है, कुछ निर्माणाधीन अट्टालिकायें और सड़क पर भागती अनगिनत कारें, रिमझिम गिरती बारिश की बूंदे ,  और उंगली की एक क्लिक पर अंतरजाल का अनन्त संसार, सब कुछ है पर फिर भी कुछ कमी है, मन भारी है क्यूंकि किसी भी खिडकी या दरवाजे पर मेरा अपना कोई नहीं दिखता - रक्षाबंधन पर बहन के दर्शन को तरसती ये आँखे बाहर देखते देखते नम हो जाती है, फोन पर बात करने से मन नहीं भरता और मेरा रुख भी ऐसा कि मस्त दिखता हूँ पर फोन रखते ही ये हाथ ब्लॉग पोस्ट की तरफ रुख करते हैं, कहीं तो मन को बयाँ करूँ !!

कितने शब्द हैं पर पिरो नहीं पा रहा उनको एक माला में – बहन - एक ऐसा शब्द जो रिश्तों के अनन्त बहाव का प्रतीक है - भाव इस रिश्तें में बहना नहीं रोकते – आदर, सम्मान, प्रेम और निस्वार्थ संवेदना - कितना कुछ भरा है इस गाँठ में !

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ममतामय वो नेह तुम्हारा

रक्षाकवच रहा है मेरा

हर मेरी जिद पर झुकना  तुम्हारा

व्रतमय हर पल आशीष तुम्हारा

सम्बल बन रहा है मेरा

मैं तो मैं ही रहा हमेशा

आत्मविभोर मनःस्थिति मेरी

अश्रु ही हैं भाव मेरे

बस एक ही विचार

ऋणी ही रहूँगा तुम्हारा

मेरी याद में बहते अश्रु तुम्हारे 

हर पल मानस पर रहते हैं मेरे

क्या कहूँ

शब्द शून्य हैं मेरे ….

रविवार, 22 अगस्त 2010

न्यूयार्क – ४ : तुलसी इस संसार में भांति भांति के लोग …

बड़े बड़े शहरों में कुछ हो न हो, गगनचुम्बी अट्टालिकायें जरूर होती है जो कि सैकड़ो लोगों के लिए रोजगार के साधन के साथ साथ वहाँ के पर्यटन का भी एक आकर्षण बन जाती हैं, इनमें से सबसे ऊँची इमारत को सामान्यतः धरोहर का दर्जा दे दिया जाता है। 

480px-Manhattan_at_Dusk_by_sloneckerएम्पायर स्टेट बिल्डिंग भी इसी श्रेणी में आती है, ये इस समय न्यूयार्क की सबसे ऊँची इमारत है, लगभग ३५ लाख लोग एक साल में इसकी सैर करते हैं,  इसकी छत से रात के समय न्यूयार्क ऐसा लगता है जैसे आसमान में सितारे चमक रहे हों,  जहाँ तक आपकी नजर जायेगी वहाँ तक आपको रंगबिरंगी चमकती रोशनी की प्रतिछाया ही नजर आएगी।  यहाँ हर कोई बात करता है ऊर्जा बचाने और प्रदूषण कम करने की - पर अनन्त तक फैली असीमित रोशनी तो शायद ऐसा बयां नहीं करती।

 

 

nyc - in nightरात के समय चाहे मैं पेरिस में आइफल टावर पर था, या फिर शिकागो में सीयर्स या फिर जॉन हैनकोक इमारत की छत पर - दूर दूर तक फैले शहर और जगमग रोशनी के अलावा और क्या दिखेगा, पर इन शहरों में और रखा भी क्या है देखने - शिवाय इस चमक दमक के - फिर औपचारिकता भी होती है शहर को नापने की परिभाषा में इन सबको एक बार छूने और वहाँ फोटो खिचाने की !!  हम भी वही करने निकले थे दो बच्चो के साथ - ये गौर करने लायक बात है क्यूंकि इन इमारतों पर जाना इतना आसान नहीं, टिकट से लेकर एअरपोर्ट जैसी सुरक्षा जांच से गुजरने तक और फिर लिफ्ट के अंदर जाने कि पंक्ति तक - लगभग २ घंठे तो लग जाना सामान्य बात है। 

 

nyc in night2रात के २ बजे तक खुला था ये टॉवर लोगों के स्वागत के लिए और जब १० बजे हम बाहर निकले तब सड़क तक लंबी लाइन थी, लोग क्या कहूँ क्रेजी थे अंदर जाने के लिए - ये बात सप्ताहांत की नहीं    बल्कि बुधवार की है,  वीक एंड में तो और भी बुरा हाल होता है, यहीं पुराने अनुभव का लाभ लिया गया और वर्किंग डे में जाया गया - शर्म आती है कि बारबार अंग्रेजी के शब्दों से हिंदी के शब्द याद करता हूँ और कभी कभी अंग्रेजी के ही शब्द लिखने पड़ते हैं जब में नहीं ढूँढ पाता उपयुक्त शब्द !  पर खैर इतना भी हटधर्मिता क्या कि हम अंगरेजी के शब्द उपयोग न करें, बस इस अंग्रेजी के चक्कर में हिंदी को भूल ना जायें, असी लक्ष्मण रेखा खींचनी होगी।

 

हम शायद ८६वें माले पर थे जब एलिवेटर ने कुछ ही सेकंड्स में हमें धरातल से छत पर ला पटका - कुछ बाते नोट करी इस दरम्यान -

१ साल और ४५ दिन इस गगनचुम्बी इमारत को बनाने में लगे  - इस हिसाब से इसकी निर्माण दर एक सप्ताह में थी ४.५ माले !!
६० हजार टन स्टील , एक हजार मील जितनी लंबी टेलीफोन केबल, १२० मील लंबे पाईप, ६५०० खिड़कियाँ, ७३ लिफ्ट  जो कि ४२७ मीटर एक मिनट में तय करते हैं
इसको बनाने मे लगभग ५० मिलियन डॉलर का खर्चा आया, पर इसके पुनर्निमाण (renovation) में अब तक १०० मिलियन डॉलर खर्च हो चुके हैं
इसने २.६६ एकड़ जमीन घेरी हुई है
नवम्बर ३०, १९३० में ये विश्व की सबसे ऊँची इमारत के रूप में दर्ज की गयी थी, इसी साल ये बनकर तैयार हुई !

86जब हम रास्ते में थे तो एक महाशय मिले, जैसे अन्तर्यामी हों - हमारी पलटन को देखकर बोले कि क्या आप एम्पायर स्टेट बिल्डिंग की तरफ जा रहे हैं, हम उसको ज्यादा भाव नहीं दे रहे थे पर फिर भी महाशय पीछे पड़े थे, ९६ डॉलर में हम दम्पत्ति को किसी एक्सप्रेस लाइन से ऊपर भेजने का ऑफर दे रहे थे, मुश्किल से पीछे छुड़ाया कि भाई किसी और को देखो - हमें हमारा रास्ता नापने दो अपनी दर से !  गले में पट्टा भी डाल रखा था कुछ। पर, किसी भी कोण से या उस उस पट्टे से अधिकारिक एजेंट नहीं लग रहा था,  वहाँ जाकर देखा तो २० डॉलर में ही एक आदमी का टिकट था, इस हिसाब से हम ४० डॉलर में ही निबट लिए।  हर जगह हर तरह के लोग होते हैं - ये कहना कि ऐसा भारत में ही होता है गलत है - जहाँ भी मांग ज्यादा और चीजें कम होंगी वहाँ अव्यवस्था होती ही है - इसलिए न्यूयार्क में भी हर जगह भारत कि अव्यवस्थाओं का आभास होता रहता है। पेरिस में आइफल टावर के पास भी आपको अपनी जेबें संभाल कर रखनी होती हैं।   ये था अमेरिकन भाई !

वापस लौटते समय ट्रेन में बगल में एक भारतीय परिवार बैठा था, लग रहा था कि एक desi महाशय के माता पिता भारत से आये हुए थे और वो उनको घुमाने जर्सी सिटी से न्यू यार्क आये हुए थे, जर्सी सिटी को दिल्ली का नॉएडा या गुडगाँव मान लिया जाये यहाँ पर।   इस ट्रेन में बमुश्किल आप ५ से १५ तक बैठते हैं - ज्यादा से ज्यादा एक छोर से दूसरे छोर तक २० मिनट - इसलिए खाना पीना या गन्दगी करना मना होता है , इतना समय भी नहीं होता कि आप खाना खत्म कर सकें - जल्दी से आपका गंतव्य स्थान आ जाता है , ये परिवार जैसे ही ट्रेन में बैठा अपने पिज्जा, सैंडविच जो भी था - सब खोलकर बैठ गये।  सब देखकर यही सोच रहे होंगे कि ये भारतीय लोग भी हर जगह गन्दगी करने बैठ जाते है।  मेरे हिसाब से ये देश के ऊपर नहीं व्यक्ति विशेष कि मानसिकता और परिस्थिति के ऊपर निर्भर करता है - नहीं तो ऊपर वाला अमेरिकन उदहारण ऐसे लोग पढ़ ले - खैर जो भी था ये परिवार भी गलत ही कर रहा था - ७-८ मिनट में हम उतर लिए - शायद उनका स्टेशन अगला था !!

निकुंज तो आज बहुत खुश था,  बिल्डिंग का रोमांच और मैकडोनाल्ड के हैप्पी मील में उसको एक प्यारा सा नन्हा दोस्त भी मिल गया था - खैर इससे हमारी मुश्किल बढ़ गयी थी क्यूंकि दोनों भाईयों में इसको हथियाने का युद्ध चरम पर था!!

nikunj

बुधवार, 18 अगस्त 2010

न्यूयार्क : संवेदना उबाल पर हैं - एक मस्जिद यहाँ भी विवाद में है!

न्यूयार्क यात्रा के पिछले अंक –  

बात दूर दूर तक फैल चुकी है, रोज समाचारों में भी खूब बहस चल रही है, एलीवेटर टॉक का हिस्सा भी है और भारत में भी अब तो शायद इस पर बहस चल रही होगी, जैसे कहते हैं ना - बात चली है तो दूर तलक जायेगी …..

पर चलो पहले कुछ और बात करके मूड हल्का किया जाए …

ग्राउंड जीरो - वह जगह जहाँ २००१ में वर्ल्ड ट्रेड सेण्टर के सबसे ऊंचे दो गगनचुम्बी टावर आतंकवादी हमले में गिरा दिए गये थे और उसको अमेरिका की सरकार ने ग्राउंड जीरो नाम दिया, यहाँ फिर से एक इमारत बनाने की तैयारी है!!

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जब तक न्यूयार्क में हूँ तब तक रोज सुबह और शाम को इसके चारों और होकर गुजरना पडता है जैसे परिक्रमा दे रहा हूँ किसी समाधि के चारों और। हालांकि ऐसी कभी भावना नहीं आई पर कितने लोगों ने अपनी जान गँवा दी थी बिना वजह इस स्थल पर :( !! दिन में तो काम चलता ही है पूरे जोर से, रात में और भी गति बढ़ जाती है काम की, शहर की सबसे व्यस्त जगह होने की वजह से रात में ही मरम्मत का सामान शायद आ पाता होगा। 

मुझे तो लोगों (- जो ८ से ६ के बीच के श्रमजीवी या वातानुकूली हैं ) का इतना हजूम दिखता है कि बस भीड़ में खड़े हो जाओ और शादी में स्टेज की तरफ आती नववधू की तरह तिल तिल कर कदम खिसकाते रहो,  खुद ही पैरों की गति तेज हो जाती है भीड़ के रेलमपेल में !!  चाहे लालबत्ती वाले साहब हों या फिर लालबत्ती के साहब का चपरासी - या फिर हजारों डॉलर के खर्चे पर पल रहे हम जैसे लोग जो दिन में १-२ लाइन कोड लिखने और मीटिंग मटरगस्ती में सारा दिन खस्ता कर देते हों, या फिर सिटीबैंक का सीईओ, आपका बॉस या फिर आपके नीचे काम करने वाले - सब इसी भीड़ में दौड़ते हुए पाये जायेंगे - चलो कहीं तो भेदभाव नहीं हैं - जमीन पर पैर कभी तो कहीं तो सब एक जगह रखते हैं!  कितना भी उड़ लो, अंत में लैंड तो करना ही पड़ेगा :)

Wtc_path_station_platform हमारी दिल्ली और मुम्बई से पश्चिम के शहर केवल सार्वजनिक परिवहन सेवा में आगे थे , पर अब तो दिल्ली में भी मेट्रो की चमक है - खैर लन्दन हो या पेरिस, बर्लिन हो या न्यूयोर्क  - इन सब जगहों पर मेट्रो ने कई मीलो की दूरी कुछ मिनटों के फासलों की बना दी हैं, मुझे इन सब शहरों की मेट्रो सेवा उम्दा किस्म की लगी, बस आपको भीड़ भड़क्के की आदत होनी चाहिए और बच्चे सुबह और शाम के समय साथ में नहीं होने चाहिए।  फ्री में पेपर बांटने वाले हर मेट्रो स्टेशन के बाहर खड़े होते हैं - बेचारे हर किसी को एक पेपर देने की कोशिस करते हैं - बचपन में रद्दी में पेपर बेचकर कुछ तो मिलता था और अब जल्दी से कोई recyle वाला डब्बा देख उसे फेंकने की कोशिस करते हैं, जब घर में पड़े पेपर, और मैग्जीन फेंकते हैं फोकट में तो रद्दी वाला जरूर  याद आता है !!  पश्चिम के लोग पर्यावरण के बारे में कितने नासमझ हैं :-)

आजकल जो समाचार पत्र में रोज पढने को मिल रहा है  उसमें एक मस्जिद की चर्चा जरूर रहती है, अमेरिका में बहस तेज हो रही है इस मस्जिद के बारे में !!!    ग्राउंड जीरो के आसपास एक पुरानी इमारत है जिसको अब कोर्ट ने हरी झंडी दे दी है उसको मिटाकर वहाँ कुछ और बनाने की, इसी इमारत की जगह जो कि WTC से कुछ ही मीटर की दूरी पर है - मुस्लिम समुदाय ने एक इस्लामिक केंद्र और भव्य मस्जिद बनाने की योजना बनायी है, इसके लिए कई  मिलियन  डालर का चंदा इकट्ठा किया जा रहा है !  न्यूयार्क और अमेरिका के मुसलमानों के लिए अब यह एक भावनात्मक मुद्दा बन गया है और टैक्सी ड्राईवर से लेकर हर किसी स्तर पर हर मुसलमान कुछ न कुछ अपना सहयोग देने को आतुर है ! 

मैं ये तो नहीं कहूँगा कि एक और बाबरी मस्जिद जैसा कौतुहल और विवाद खड़ा हो रहा है पर हाँ इसने उस समय की यादें जरूर ताजा कर दी हैं - जहाँ हर कोई अपने अपने तर्कों से अपना अपना पक्ष रखने की कोशिस कर रहा है - एक और स्वतंत्र जीवन जीने का मौलिक अधिकार है वहीं दूसरी और तथाकथित दोगले पश्चिमी लोगों का असली रूप सामने आ रहा है ।  जो २००१ की दुहाई देकर इसे एक भावनात्मक मुद्दा करार दे रहे है।   भारत क्या करे जहाँ हमने अनगिनत २००१ देखे है फिर भी  एक सम्बल राष्ट्र बनकर खड़ा है धार्मिक स्वतन्त्रता के लिए !!

पहली बार भारत जैसा द्रश्य दिख रहा है जहाँ पर यहाँ के राजनीतिक लोग दोनों समुदायों को खुश करते दिख रहे हैं, ओबामा ने मुस्लिम समुदाय को जब डिनर पर बुलाया तो ओजस्वी होकर वक्तव्य दिया कि हर धर्म को पूरी तरह अपने धर्म की स्वतंत्र अभिव्यक्ति का अधिकार है और एक मस्जिद कहीं भी बनाई जा सकती है , सुबह जब डेमोक्रेट पार्टी में भूचाल आया तो ओबामा ने अपने बयान पर लीपापोती की !  यहाँ के मेयर ब्लूमबर्ग तो खुलकर मस्जिद के पक्ष में आ गये है वही डेमोक्रेट पार्टी के मैजोरिटी नेता रीड जो कि चुनाव का सामना कर रहे हैं और ओबामा के धुर समर्थक हैं, मस्जिद के विरोध में खड़े हो रहे हैं क्यूंकि अमेरिकन जनता वोट तभी देगी जब आप मस्जिद का विरोध करोगे …

खैर ये तो थी राजनीतिक पशोपेश - जो हर जगह स्वार्थ और वोट बैंक पर टिकी है, इनको सिद्धांतों और मानवीय संवेदनाओं से कोई दरकार नहीं !!

दो पहलू हैं –

१) क्या मुस्लिम समुदाय को समझौता नहीं कर लेना चाहिए ?- यहाँ मस्जिद बना कर क्या हो जाएगा, धर्म का अर्थ है सहिष्णुता और भाईचारा ! इस आधार पर क्या मस्जिद के सयोजक हटेंगे अपने हट से ?  पर फिर मुद्दा आता है कि हर मुसलमान आतंकवादी तो नहीं हैं ना और WTC के टावर को गिराने के पीछे मुस्लिम धर्म तो नहीं था - कुछ कट्टरपंथी आतंकवादी थे जिन्होंने ऐसा किया, उनकी वजह से पूरे धर्म पर शंका क्यों ?  क्या अगर चर्च बन रही होती तो भी ऐसा ही करते लोग - पर लोग कहने से कहाँ रुकेंगे क्यूंकि “लोगों का काम है कहना” !! photo

२) मस्जिद का निर्माण हो जाना चाहिए , पर यहाँ के अधिकाँश लोगों की भावनाओं और संवेदनाओं को देखकर लगता है कि मस्जिद की सुरक्षा एक बड़ी जिम्मेदारी होगी और कुछ असामाजिक तत्व इसे भविष्य में नुकसान पहुंचाने की भरपूर कोशिस करेंगे, जिससे सांप्रदायिक माहौल खराब हो सकता है - क्या ऐसा करके ये एक और बाबरी मस्जिद बनाने जा रहे हैं ?  पर इस डर से धर्म के अनुयायियों पर अंकुश नहीं लगा सकते और ऐसा किया गया तो अरब से लेकर एशिया तक हर मुस्लिम आहत होगा !!

यानी - “भई गति सांप छछुन्दर जैसी “ अमेरिका के लिए…

ऐसा लग रहा है - इमारत बन रही है पर सम्वेदनाएं मर रही हैं - आप क्या कहते हैं ??

ये ठेले बहुत पसंद हैं सबको - इन विवादों से दूर:

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रविवार, 15 अगस्त 2010

कुछ दिन न्यूयार्क में …

 

६४ वें स्वतंत्रता दिवस पर सभी देशवाशियों को बहुत बहुत शुभकामनायें !!untitled आजादी शब्द ही ऊर्जा के तारों को झंकृत कर देता है, इसलिए भले ही देश में आजादी के बाद हजारों कमियाँ हों, पर आज का दिन विशेष महत्व रखता है और हम सबको एक जिम्मेदारी और स्वावलम्बन की अनुभूति देता रहता है !! तिरंगे को देख, बचपन में गाये राष्ट्र गीतों की स्मृति और राष्ट्रगान की तेजस्विता , और शहीदों की प्रेरणा मुझे देश के लिए , मात्रभूमि के लिए आत्मविश्लेषण करने के लिए प्रोत्साहित करती रहती है !! 

एक मित्र हैं भवदीप जी, जो ब्लॉग के नियमित पाठक है, उनके कहने पर इस शहर के बारे में कुछ दिन तक लिखूंगा। कौन नहीं जानता इस शहर के बारे में, बची हुई कसर हमारी फिल्में कर देती हैं, करन जौहर को तो जैसे भारत में कोई शहर ही फिल्माने को नहीं दिखता, घूम फिरकर उनकी बनावटी फिल्में इस शहर को जरूर दिखाती हैं।

खैर, मुझे भी कुछ दिन बेमन से इस शहर में बिताने हैं, पता नहीं क्यूँ बड़े शहर मुझे ज्यादा आकर्षित नहीं करते, छोटी जगह पर ही ज्यादा सुकून मिलता है -

बड़े शहरों की चौड़ी सडकें

भीड़ से भरी भरी

चल नहीं सकता घुटन से  …

छोटे शहरों की सकरी गलियाँ, 

जैसे खाली हों मेरे रास्ते,

मैं तय तो कर सकता हूँ …

ये मेरी न्यूयोर्क की कोई २०-२५ वीं यात्रा होगी, पर हर बार शुरुआत करनी पड़ती है नक़्शे और ट्रेन की ना समझ आने वाली मैट्रिक्सनुमा रास्तों से।  हर जगह भीड़, हर जगह भागमभाग और चारो और खत्म न होने वाली सडको और गगनचुम्बी इमारतों की श्रंखला! कोई भी समय हो, रास्ते भरे ही दिखते हैं, भिन्न भिन्न रंग और देश के लोग बस अर्थ और कर्म के योग में जैसे संलग्न हो अभिमन्यु की तरह चक्रव्यूह की गलियों में घूम रहे हों, पर ज्यादातर लोग रास्ता देखते देखते बस इन गलियों के अभ्यस्त हो जाते हैं और फिर इस चक्रव्यूह से बाहर आने का अपना उद्देश्य भूल यहीं के होकर रह जाते हैं।   कारन जोहर को ही दिखता ये ये शहर अलग, मुझे तो दिल्ली और मुम्बई कि तरह बस भीड़नुमा और बेबस ही दिखा …nyse

वाल स्ट्रीट - जहाँ से दुनिया भर की अर्थव्यवस्था रुपी महासंग्राम का अर्जुन अपने रथ में विवश किन्तु दृढ खडा है, और तमाम उलझनों, चढावों और उतारों से निकलकर भी चलायमान है अपने कर्म क्षेत्र में आगे बढ़ने की ललक और आशा के साथ !! कितनी विभिन्नता है, आज भी ५ डॉलर में आप लंच करके संतृप्त हो सकते हैं रेडी वाले ठेले से खाकर और दूसरी और क्रेडिट कार्ड भी कम पड़ जाए हलके से पेट को भरने में।  ऊँची ऊँची अट्टालिकाओं के बीच खड़े ये ठेले वाले ९० प्रतिशत लोगो का पेट आज भी यहाँ भरते हैं !  thela

ये यात्रा और वृतांत जारी रहेंगे आने वाले कुछ दिनों तक (और शायद चिंतन भी !)  …. इस सबसे दूर बच्चे भी गर्मी का लुत्फ उठा रहे हैं -

pool

मंगलवार, 10 अगस्त 2010

तू जहाँ जहाँ चलेगा , वोनेज साथ देगा !!!

आपको कैसा लगेगा यदि आपके घर के फोन से ६०-७० देशों में फ्री में बात हो सके ?  और आपका फोन नंबर एक ही रहे, कहीं भी किसी भी देश में उठाकर घूमो उस फोन को ?

अमेरिका की एक कंपनी इस तरह की फोन सेवाएं देती हैं जिसमें तकरीबन १५०० रूपये प्रतिमाह में आप करीब ६० देशों में किसी भी लैंड लाइन या फिर मोबाइल फोन imagesपर बात कर सकते हैं,  वोनेज (Vonage) नाम की इस कंपनी ने जैसे हम भारतीयों के तो मजे ही कर दिए। ये आपको एक छोटा सा receiver देते हैं जो आपको अपने मोडेम से जोडना होता है, बस अगर आपके घर में इन्टरनेट हैं तो जहाँ भी आप ये receiver मोडेम से जोडेंगे, आपका फोन तैयार है आपकी सेवा में। voice over IP (VOIP) की तकनीक पर चलने वाला ये फोन मुझे तो सूचना क्रान्ति की एक बहुत ही बढ़िया खोज  लगी।

अब जैसे मैं कुछ दिनों के लिए शिकागो से न्यू योर्क आ गया हूँ परिवार के साथ, तो बस फोन भी साथ में पैक कर लिया,  न्यू योर्क आते ही फोन को मोडेम से लगाया तो बस चल बैठा वही सैम टू सैम नंबर फिर से। दिन में कितने भी घंटे भारत बात करो, जैसे कि मैं भारत के एक शहर से दूसरे शहर फोन मिला रहा होऊं !

यहाँ की जो छोटी कंपनियाँ भारत से काम कराती हैं उन्होंने यही फोन यहाँ से खरीद कर भारत भेज दिए हैं, जब कोई वहाँ उस फोन से अमेरिका फोन करता है तो यहाँ के लोगों के लिए तो यही लगता है कि ये फोन लोकल नंबर से आया है, साथ ही ISD कॉल से आने वाले बड़े से बिल से भी निजात मिल जाती है।

कुछ लोगों ने ये फोन अपने घरवालों के लिए भारत भेज दिए हैं , वहाँ से (भारत से) किसी भी अमेरिका के , सिंगापुर या अन्य देशों के नंबर पर फोन करो बिना बिल के बारे में सोचे। अब आप को पता लग गया कि अमेरिका से लोग कैसे तुरंत फोन घुमा देते हैं भारत में आजकल :) 

जब छुट्टी पर भारत आओ तो यही  receiver  साथ रख लाओ, भारत भी फोन करो और अमेरिका भी - नंबर वही रहेगा , केवल जगह बदल रही है बस।  कुल मिलालर इन्टरनेट है तो ये फोन भी है, अगर इन्टरनेट चला गया तो ये फोन काम नहीं करेगा।   और शायद अमेरिका के एड्रेस पर ही ये फोन मिलाता है, बस एक बार लेने की देर हैं यहाँ के एड्रेस से , उसके बाद आपका क्रेडिट कार्ड इसके बिल से कनेक्ट हो जाता है, हर महीने क्रेडिट कार्ड से $२५-$३५ कट जाता हैं, यानी आप भारत का क्रेडिट कार्ड भी उपयोग कर सकते हैं।  मेरे प्रोजेक्ट में आने वाले कई देसी लोग ये फोन लेकर यहाँ से जाते हैं।  पता नहीं भारत में इन्टरनेट की स्पीड स्लो है तो ये कितना सही चलेगा पर यहाँ मुझे अभी तक ऐसी कोई समस्या नहीं दिखाई दी हैं !!

ये रही इनकी वेबसाइट - http://www.vonage.com/

मैं तो कम से कम बहुत ही प्रभावित हूँ इनकी सेवाओं से, कोई तो है जिसने अपनों से मुझे हर वक्त कनेक्ट होने की आजादी दे रखी है !!

शुक्रवार, 6 अगस्त 2010

वारेन ड्यून स्टेट पार्क – मिशीगन

 

पिछले सप्ताह कुछ मित्रों के साथ हमारे यहाँ से ११० मील की दूरी पर स्थित वारेन ड्यून ‘बीच’ पर जाना हुआ।  पहले सब कुछ सामान्य  सा था – शहर, सडकें और दुकानें - जैसे ही स्टेट पार्क में प्रवेश किया - एक विशाल नीली खत्म ना होने वाली प्रतिछाया  दिखी और कुछ आधा मील दूरी पार्क में तय की होगी कि दूर दूर तक फैला रेत ही रेत दिखने लगा, मिशीगन झील की विशालता और रेत की तपन प्रकृति के सामंजस्य का नजारा पेश कर रही थी। और हम मंत्रमुग्ध थे इस अनूठी छठा को निहारते हुए !  warrendunesstatepark

निकुंज ने जैसे ही दोस्तों और रेगिस्तान को देखा, खुसी के मारे उछल उठा, कार को पार्क किया और उतरे तो एक बार के लिए तो ऐसा लगा कि राजस्थान की जमीन पर पैर रख दिया हो …दूर दूर तक फैल रेत और विशाल रेत के टीले - रेत के टीलों पर उग आये वृक्ष जैसे कह रहे हों कि कुछ भी असंभव नहीं, देखो ! हम भी तो रेत की तपन झेल कर भी इतने हरे भरे हैं। 

kidsकुछ ही देर में हम समुन्दरनुमा मिशीगन झील की गोद में थे, बच्चे रेत के महल बनाने, बीच के किनारे रेतमय हो पानी में अठखेलियाँ खेलने में मशगूल होकर बेफिक्र होकर खेल रहे थे, बच्चे तो बेफिक्र ही रहते हैं वैसे हर समय पर रेत और पानी मिल जाए फिर तो आनंद चरम पर होता है और इनका आनंदमय होना हमें भी सातवीं आसमान पर पहुंचा देता हैं। 

हम भी पानी में काफी अंदर तक गए, बहुत ही स्वच्छ पानी था। जल प्रकृति के संरक्षण में खड़ा कितना मनोहारी लगता है आलिंगन करते हुए, वही अगर शिव की तीसरी आँख की तरह विराट रूप में आ जाए तो एक सिरहन भी शरीर को कंपा दे ! 

आप वर्चुअल टूर नीचे वाली लिंक पर लें -

http://www.harborcountry.org/warren_beach.html

यहाँ के रेत के ड्यून या टीले बड़े ऊँचे थे, एक तो लगभग २६० फीट थे झील के स्तर से , उस पर चढना बड़ा दुष्कर लग रहा था, हमारे मित्र जिनके हाथ में कैमरा था २-४ कदम चढ़कर ही भाग खड़े हुए, पर हम २-३ मित्रों ने एक सैनिक की तरह ये दुर्गम रास्ता तय किया  पर टीले की चोटी तक पहुंचते पहुंचते शरीर बेहाल था, लेटने का मन कर रहा था, टीले की चोटी काफी समतल थी इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि टीले का व्यास काफी बड़ा था। हमारे सैनिक जो थार में या कश्मीर में तैनात हैं , वो तो इससे भी कहीं दुर्गम और असम्भव से रास्ते रोज तय करते होंगे !!

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barbequeगर्मी का मौसम हो और बारबेक्यू न किया जाए - ऐसा संभव ही नहीं – मक्का, कुछ सब्जीयाँ सेक सेक कर खाने का आनंद अलग ही था क्यूंकि पसीना जो निकल रहा था, साथ में बैडमिंटन ने भी भागमभाग करा दी, कुल मिलाकर खूब पसीना बहाया।

निकुंज और उसके साथियों ने भी एक्सप्लोरैसन किया इधर उधर पहाडियों पर जाकर, कुल मिलाकर बच्चों का उत्साह देखते ही बनता था !! खुद तो सो लिए कार में - और मुझे तो वापस २ घंटे ड्राईव करना था, खैर ९ बजे घर आ गए और उसके पास फिर जा धमाके एक और दोस्त के घर !!

 

मुझे तो बस अपनी कविता के भाव ही सहज याद आते रहे प्रकृति की गोद में बैठे बैठे … (ये कविता मिशीगन झील के किनारे शिकागो में बैठे बैठे लिखी थी)

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सामने विशाल झील

पीछे है एक वृहत शहर

कितने  भिन्न हैं  दोनों किनारे 

एक मस्ती का आभास कराये तो दूजा दे मन का आनंद

आसमान से झील को मिलते देखा

जैसे  विचारो को गति पकड़ते देखा

रेत कितना आनंद देता

शीशा बन फिर दर्द भी देता 

photoबच्चे सपनों के घरोंदे बनाते

आकृति मिटाते , बनाते, खिलखिलाते

गीले  होकर मन ही मन सयाते

हम भी एक दो छींटे सहलाते

और विचारों की सौंधी हवा में खो जाते

जैसे सुबह की ओंस की बूंदे मुंझे जगा रही हो
जैसे जन्नत या सपनों की मनोहारी तरंगे हो

गद्य और पद्य लिखते, मिटाते और सोचते

अपनी  प्राणप्रिये को गले लगाते

जिनको घर पर देख स्वभावबस गुसियाते

रेत की गर्मी और टहलते दौड़ते लोग

नावों पर सवार उन्मुक्त मस्त परवाने लोग

हर तरफ आनंद और अंतहीन मस्ती में डूबे लोग

तरो ताजा मेरे मन को करते मेरे मन के संतुष्ट भाव

सोमवार, 2 अगस्त 2010

मौत जैसे दरवाजे पर दस्तक दे रही हो …

 

अभी कल या परसों दोस्ती दिवस था, वैसे तो आजकल हर एक चीज का दिवस हो गया है, लगता है कि कोई दिन खाली छोड़ा ही नहीं हो;  पर कहीं न कहीं ये दिन सूचना तकनीक के जरिये आपको एक अहसास सा दे जाते हैं कि उठो प्यारे और देखो आपने क्या खोया और क्या पाया ?

रोजमर्रा के व्यस्त जीवन में कितनी अहम बातों को नजरअंदाज कर देते हैं , फिर एक दिन पता चला कि जीवन का बहुतेरा हिस्सा तो बीत भी गया और मैंने क्या किया ?  मौत जैसे सिरहाने खड़ी आपको ताने दे रही हो उन अनमोल पलों के बारे में जिन्हें आप और खुशनुमा और प्रेरक बना सकते थे।  क्यूं न मान लें कि मौत कभी भी आ सकती है और हर पल को ऐसे जियो कि बस यही दिन हो जीने के लिए।

काम, क्रोध, लोभ और स्वार्थ से घिरे हमारे मन को शायद मौत का ध्यान ही नहीं रहता और इसलिए कभी कभी दोस्त जैसे अनमोल उपहार का उपहास बना हम अपने आप को एकाकी बना डालते हैं,  मित्र बिना जीवन जैसे यांत्रिक उपकरण बन कर रह जाता है और हम चलायमान रहते हैं नीरस भाव से ….शायद मौत भी आपका उपहास ना उडाये अगर सच्चे मित्रों का साथ हो।  किसी ने ठीक ही कहा है -

“Life can give us number of beautiful Friends"But"Only True friend can give us beautiful Life"

near-death-experience-1 मौत एक कडवी सच्चाई है जो डर से ही सही, हमें जीवन का दर्शन सिखा जाती है और हम आत्मविश्लेषण करने पर मजबूर हो जाते हैं कि क्या हम उस दिशा में आगे जा रहे हैं जो हमारे उद्देश्यों की राह थी, क्या जीवन जीना सिर्फ स्वार्थ लाभ के लिए ही सार्थक है,  क्या हमारी सोच और वृहत नहीं होना चाहिए थी , क्या अनमोल मानव जीवन के कई वर्ष हमने यूं ही निकाल दिए ??? 

एक कलाकार को कम से कम कुछ तो संतुष्टि मिलती होगी अपनी कला के क्रियान्वयन से - जब वो सिरहाने खड़ी मौत से रूबर हो रहा है। फिर तर्क का झोंका झकझोरता है कि कला तो हर प्राणी में सन्निहित है, बस उसको खोजने वाली बात हैं !  फिर समय की कमी, मजबूरियां आदि आदि के बहाने से मैं कहता हूँ कि अपने अंदर के कलाकार को खोजने का समय ही कब था। सच तो यह है कि विकारों से घिरे मन को हर समय क्षणिक उद्देश्य ही दिखाई दिए - पहले लक्ष्य कक्षा में अव्वल आना और फिर जल्दी से नौकरी पाना, या फिर विदेश की झलक पाना - हर चीज क्षणिक।  मिली भी ये सब चीजें क्यूंकि हमारा प्रयास ही इस और था, शायद द्रष्टिकोण कभी दूरदर्शी नहीं रहा और बस चूहों कि दौड में ऐसे फँसे कि भूल भुल्लैयाँ के चक्रव्यूह में घूमते घूमते जब मौत सामने आई तब याद आया कि ये क्या हुआ - हमने तो जीवन का रस ही कहीं छोड़ दिया। 

मौत की सच्चाई को एक बार सामने से देखा है जब बाबा (दादाजी) को अंतिम साँसे लेते देखा और फिर हम लोग जो उनकी उंगली के सहारे चलना सीखे और जिनके बिना परिवार को एकसूत्र में आगे ले जाने का भाव सपनों में भी डरा देता था, उन लोगों ने उनके शरीर को लकडियों के बीच रख अग्नि के हवाले कर दिया, एक दिन भी घर में उस शरीर को नहीं झेल पाये, अश्रु तो छलक रहे थे पर हम कितने कठोर हो गए थे कि चिता को कुरेद कुरेद कर क्रमशः हर अंग को पूरी तरह नष्ट करने पर आमादा थे।  जाने से पहले उनके तेजस्वी चेहरे पर स्वाभिमान और संतुष्टि के भाव झलक रहे थे - उन भावों ने उनको ही तृप्त नहीं किया बल्कि हम जैसे नवांकुरों को भी नए सोपान तय करने की उर्जा से भर दिया था।  पर क्या हम उस ऊर्जा को सतत रख पाये उस दिशा में जहाँ मृग मरीचिका की तरह हम काल्पनिक सोपानों में न डूबे हों ….

MFSchedulerICon एक और पहलू देखते हैं - हम कुछ देर के स्वाद के लिए क्या कुछ नहीं खा जाते, और उस समय यही सोचते हैं कि इतने सा खाने से क्या होगा,  लेकिन जब डाक्टर परीक्षण करता है तो पता चलता है कि हमने शरीर पर ध्यान ही नहीं दिया,  तब तक बहुत देर हो चुकी होती है, उसके बाद फिर हम सोचते हैं कि चलो २-४ दिन कुछ ध्यान रखते हैं फिर उसी ढर्रे पर आ जाते हैं और जब मौत सिरहाने खड़े होकर हमें उलाहने दे रही होती है तो हम बीते समय को फिर से ना पाकर सिहर उठते हैं , शायद यही व्यवाहारिक द्रष्टिकोण हमें शरीर के आलावा हमें हमारे कर्मों में भी उत्कृष्टता नहीं लाने देता।

चलो सोचते हैं कि मौत सिरहाने खड़ी है और हम कितने अंदर आ बाहर है संतुष्टि के पैमाने पर - शायद सच्चे दोस्त इस बात का अहसास पल पल दिलाते रहते हैं पर दोस्तों की सुनते हैं क्या हम ??