हम चिकागो में बैठे हुए है इस बार फिर से होली को ईमेल के जरिये मनाया, मस्ती के इस त्योहार को इतना नीरस तरीके से मनाया, इंटरनेट पर कुछ समाचार देखे जिसमें सीधा प्रसारण मथुरा और अन्य शहरों से हो रहा था, यह एक और उदाहरण है हमारे वैश्वीकरण का, हम लोग जो बाहर आ गए है , भले ही यहाँ पर बहुत भारतीय है , मन्दिर भी बहुतायत संख्या में है पर वह सब मजे नही कर पाते जो अपने देश की माटी में रहने पर होते थे। विदेश में रहते हुए हम लोग देश की मिट्टी की सुगंध के लिए तरस से जाते है। सब कुछ है पर कुछ भी नही, उपलब्धिया हजारो है , पर पास में छोटा भाई नही है, माँ का साया नही है, लंगोटिया दोस्त नही है, इसलिए ही मेने लिखा की सब कुछ है पर कुछ भी नही है। हम लोग माया के चक्कर में भूल चुके है सब कुछ, पर क्या हमारा दिल वह सब यादें भूल पायेगा , नही.... वह तो हर इसे उत्सव पर उतावला हो उठता है। वैसे यहाँ पर देसी भाइयों के प्रयास से मंदिरों, गुरुद्वारों में लोग सप्ताहांत में मिलते है, बच्चों को हिन्दी कक्षाये दिलवाते है, दीवाली तथा होली जैसे उत्सवों पर कुछ प्रोग्राम भी होते है जैसे रावन दहन , रामलीला इत्यादी, अच्छा लगता है पर कुछ कुछ खालीपन जैसा तो लगता ही है । ये सब तो दिल बहलाने वाली बातें है , जैसे ओरिजनल गाने का रीमेक होता है वैसे ही ये सब बनावटी जैसा लगता है। कुछ परिवार आपस में मिलकर एक जगह इकठ्ठा हो लेते है और एक दूसरे को शुभकामनाये देकर साथ खाना खा लेते है , ये सब प्रयास हम लोग अपने बच्चो को अपनी संस्कृति के करीब रखने के लिए करते रहते है। कोशिश करते है की उन यादो पर कुछ मरहम लगे और एक उत्सव जैसा माहोल इधर भी बन सके पर आख़िर में एक ही चीज याद आती है, जगजीत सिंह जी की गाई हुई वो गजल - 'वो कागज़ की कश्ती और बारिस का पानी '।
1 टिप्पणी:
Sahi likha dost !!
But I would say. Enjoy what you have, instead of thinking about what is missing !
And to be honest, holi ki jo baate tum kar rahe ho yaar. wo aab india me bhi nahi rahi. Tum aur hum jo holi india me aaj se 15-20 saal pahale khelte the, wo aab nahi hoti.
People are sophisticated now :-)
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