पिछले साल ये कविता लिखी थी होली पर , आपके सामने फिर प्रस्तुत कर रहा हूँ।
होली के इन भिन्न भिन्न रंगो का इन्द्रधनुष
मस्ती बन छाया हर तन पर
मन के उन्मुक्त तारो को जोड्ती होली की उमंग
भांग और गुलाल के मौसम ने फैलाया उल्लास
रंगो की टोलियां निकली गली गली
हर कोई भूला भेद, बहम, बैर की बातें
डूबा मस्ती, मिलन, मतवाले मस्त महोल में
फाल्गुन का ये महीना, होलिका का जलाता अहंकार
प्रक्रति और हमारी सन्स्क्रति का, अनूठा है सूत्रधार
चलो करें सैर रंगो के इस मेले की
चलो सुने कथा प्रहलाद, होलिका की
जला दो होली में अपने सारे गम और बुराई
दूसरे दिन करो रंग और भांग रूपी आनन्द की शुरुआत
यही तो हमें देती सीख इतिहास की ये मधुर स्म्रति
- राम कुमार त्यागी होली ३ मार्च २००७
1 टिप्पणी:
निकल लिये हम भी। होली मुबारक!
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