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शुक्रवार, 30 जुलाई 2010

शून्य

 

number-zero_webशून्य !! विचारों की आँधी अगर शून्य हो जाए तो ? मन की उद्वेलना शून्य हो जाए तो ? या फिर भारत में नेताओं कि संख्या शून्य हो जाए …

शून्यमय संसार में क्या होगा …शांति ? या फिर शांति भी शून्य हो जायेगी  ??

 

यहाँ रह रहे ज्यादातर लोगों से बात करो तो सबका भारत वापस जाने का मन है. कुछ लोग ९०'स् में आये और तभी से सोच रहे हैं कि इतना कमा लो कि कई शुन्य हो किसी अशून्य अंक के साथ जिससे भारत में शांति से रिटायर होकर रह सकें; पर कभी वो शून्य पर्याप्त ही नहीं हो पाता | एक महोदय मिले जो उम्र में काफी बड़े हैं, बच्चे कॉलेज जा रहे हैं, कल बता रहे थे कि बस ये जिम्मेदारी पूरी हो जाए और साथ में इतना कमा लिया जाए कि बस फिर जल्दी से भारत चला जाए …ऐसे वो पिछले १० साल से अधिक समय से सोच रहे हैं | न ये सोच शून्य होती है और न पर्याप्त शून्य उनके बैंक खाते में जमा हो पा रहे हैं |  उल्टा भारत में महंगाई शून्य को जमीन पर छोड़ आसमान में बादलों के भी पार पहुँच गई है जिसमें पश्चिम से की गई कमाई नगण्य ही लगती है और जब वापस जाने का मन बनाते हैं तो सिर्फ शून्य ही हाथ में होता है - बिना अशून्य नंबर के !!  वैसे भी जिम्मेदारियां कब खत्म होती है …हर समय एक के बाद एक सीढ़ी चढने को मन उत्सुक ही रहता है |

कभी कभी छोटी छोटी चीजें , नगण्य प्रतीक कितने काम के होते हैं, ऐसा ही ये शून्य है - बचपन में सुनी शेर और चूहे की कहानी सिखाती थी कि कभी किसी को कम न आंको !! शायद कलमाडी और पवार जैसे नेताओं ने बचपन की इस कहानी को बड़े ध्यान से पढ़ा था इसलिए ही तो शून्य पर शून्य लगाए जा रहे हैं - क्रिकेट और CGW, शक्कर मीलों और अपने राजनीतिक दाव पेंचों से !!

imagesशायद शून्य ईश्वर है और ईश्वर शून्य है, शून्य के आसपास ही हम सब घूमते रहते हैं , शून्य की बनायी माया में सब उलझे हुए हैं , ईश्वर भी तो शून्य की तरह मायावी है - हम सब अशून्य हैं जिनका शून्य के बिना कोई अस्तित्व नजर नहीं आता|  ९ के नंबर के बाद आगे बढ़ना है तो शून्य का सहारा लेना ही होगा ! ब्रह्मगुप्त ने ब्रह्मस्फुट सिद्धांत ग्रन्थ रचते समय जरूर विष्णुलोक कि यात्रा की होगी और तब ईश्वर ने बोला होगा कि मैं शून्य के रूप में अवतार लेकर प्रथ्वी पर विचरण करने आ रहा हूँ !! 

शून्य कहने में भले ही असम्पूर्ण है पर शून्य के बिना सम्पूर्णता संभव ही नहीं लगती !!

आपका शून्य कैसा है  और क्या व्याख्या है आपके शून्य की ???

बुधवार, 28 जुलाई 2010

सारी दुनिया गोल है

 

ब्लूमबर्ग बिसिनेस वीक पत्रिका में Advertising के बारे में एक लेख पढ़ रहा था, कुछ इस तरह से लिखा था -

“companies are taking cues from African Americans, Hispanics, and Asians to develop menus and advertising in the hopes of encouraging middle-class Caucasians to buy smoothies and snack wraps as avidly as they consume hip-hop and rock ‘n’ roll.”

संयोग से ये भी प्रवीण पाण्डेय जी द्वारा उल्लेखित मध्यमवर्ग को ड्राईवर मान रहे हैं !!   शायद जो भीड़ है वही बीच का है , बाकी ऊपर और नीचे :)

हमें तो देश का कुछ भी इधर दिख जाए तो उल्लास सा मन में होता है| कुछ दिन बाद घर पर देखा कि मैकडोनाल्ड से घर पर एक कूपन आया है - ये देखिये फोटो हिंदी में लिखे कुछ वाक्यों के साथ ….

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शिकागो और आसपास के सबर्ब में ये मैकडोनाल्ड कि तरफ से घर घर बांटे जा रहे हैं !

देखो दुनिया कितनी गोल है - पश्चिम में हमारी वाणी कि गूँज और हमारे यहाँ पश्चिम की नक़ल जोरों पर !!  यहाँ के कई दुकानों पर समोसे बिकने लगे हैं और योग तो हर कोई करने का दीवाना लगता हैं ,  मिठाई और भारतीय खाना यहाँ के लोगो को बहुत पसंद आते हैं !!

वसुधैवकुटुम्बम और भूमंडलीकरण दो शब्द क्या कभी एक सूत्र में बाँधे जा सकते हैं ?

भूमंडलीकरण  के ऊपर के ऊपर बहसनुमा एक लेख पढ़ रहा था यहाँ पर - “भूमंडलीकरण की चुनौतियाँ : संचार माध्यम और हिंदी का संदर्भ”

बाकी टोरंटो कि बहुत सी यादें सहेजी हुई है, कुछ टिप्स -

  • कामा रेस्तरां में खाना खाने मत जाना, बहुत बेकार बनाता है
  • अरोमा बहुत बेहतरीन भारतीय खाना परोसता है
  • तंदूरी फ्लेम का तो कोई जबाब नहीं - बहुत ही उम्दा और अपने आप में अद्वितीय किस्म का बफ्फे देते हैं ये !
  • और समीर जी के घर के खाने के सामने ऊपर वाले दोनों (अरोमा और तंदूरी फ्लेम) भी नहीं टिकते,  साथ में कविता भी झेलनी पड़ेंगी पर ! बैसेमेंट में ले जाकर गन लगा देंगे सर पर कि सुना अपनी और सुन मेरी भी :-) 
  • टिम होर्टन्स पर सुबह की कॉफी और बैगल मस्त होता हैं
  • फ्लाईट सिटी एअरपोर्ट से पोर्टर की लो - २० मिनट पहले एअरपोर्ट पहुंचो बस !!  वरना दूसरे एअरपोर्ट पर कम से कम १.३० घंटे पहले पहुँचो !!
  • हिल्टन गार्डन इन् होटल में रुको :)
  • किंग स्ट्रीट पर निकल जाओ ..बहुत से बार और रेस्तरां आपका इंतजार कर रहे होंगे
  • लोग भी अच्छे लगे
  • हिंदी में रेडियो भी आता है और टैक्सी वाला तो हमेशा ही देसी होता है
  • टोरंटो में तो जैसे मेरा देश बसता है , वैसे शिकागो और न्यूयोर्क भी कम नहीं इस मामले में :) 

कुल मिलाकर ८-१० सफ्ताह का ट्रेवल भले ही साप्ताहिक था पर ज्यादा परेशान न किया इसने … बढ़िया यादें मानस पटल पर अंकित हो गयीं हैं !!  काम बहुत था पर अंत भला तो सब भला !

जल्दी ही फिर मिलेंगे टोरंटो - बहुत लोग इंतजार में है वहाँ शायद !!!

सोमवार, 26 जुलाई 2010

गुरु पूर्णिमा उत्सव का आनन्द

 

कल ग्रॉसरी करने जाना था तो सोचा कि पास में ही साईं बाबा का मंदिर है, तो वहाँ भी घूम आयेंगे | वहाँ जाकर पता चला कि गुरु पूर्णिमा मनाई जा रही है और उसके उपलक्ष्य में एक रथ यात्रा भी निकाली जा रही है | निकुंज भी बहुत खुश हुआ ये सब चहल पहल वहाँ देखकर !

पहले मन्त्रोच्चार हुआ और उसके बाद गीत बाजों के साथ रथ यात्रा प्रारंभ करी गयी, कुछ १०० के आसपास लोग रहे होंगे ! निकुंज ने भी रथ को खींच रहे रस्से को हाथ लगाया उत्सुकतावश |  सब कुछ जैसे फोटोग्राफी के लिए ही हो रहा था, पंडित जी ने भी बढ़िया कपडे पहन रखे थे और साईं बाबा को भी बढ़िया पौशाक पहनाई गयी थी ! इन सब के बीच मन्त्रों की ध्वनि और गाये जा रहे भजनों ने उन्माद और आनंद जरूर पैदा किया - मेरे मन में  कम से कम !! 

कुछ फोटो लिए उसी समय:

विडियो :

 

जय गुरुदेव ! गुरु वही  जो पथप्रदर्शक हो, अहम से दूर हो !!

शुक्रवार को जब टोरंटो एअरपोर्ट पर इम्मिग्रेसन कि कतार में खड़ा था, पीछे एक अंग्रेज परिवार मुझसे बात करना चाह रहा था (देसी शक्ल देखकर शायद), पंक्ति बहुत लंबी थी इसलिए बहुत देर तक बातें होती रहीं | ये महाशय बोल रहे थे कि २ महीने से घर से निकले हुए है और घूमे जा रहे हैं तबसे,  फिर बोलने लगे कि अम्मा को जानते हो क्या – माँ अम्रतानन्दमयी के बारे में पूछ रहे थे !! …बात बात चलते चलते गुरु की महिमा, श्रीमद्भागवद्गीता के बारे में होने लगी | महाशय ने आश्रम में चल रहे कार्यक्रमों आदि के बारे में बताना शुरू कर दिया, सारी रात जागे हुए थे, कह रहे थे कि माँ हर भक्त से गले मिलती हैं, बात करती हैं, सलाह देती हैं,  फिर भजन कीर्तन आदि होता है, उनकी पत्नी जो ५० के ऊपर उम्र कि होंगी बहुत अच्छे हिंदी में भजन गाती हैं |  श्रद्धा और विश्वास ने उनको कितना समर्पित कर रखा था !!  भारतीय संस्कृति में सच में सराबोर लग रहे थे दोनों पति – पत्नी !!  और बस अपने गुरु का बखान किये जा रहे थे…२ महीनों से अम्मा के शिविर में ही थे ये लोग !!

बातें एअरपोर्ट के अंदर आकर फ्लाईट में चढने तक होती रहीं | भारत के लिए बहुत सम्मान झलक रहा था उन दोनों की आँखों में !!  गुरु के लिए ऐसा ही अंध समर्पण चाहिए होता है, मैंने कहा कि मुझे कभी कभी भारत के गुरुओं के आलिशान व्यक्तित्व से शक के भाव उत्पन्न होते हैं अतः में पूर्ण समर्पित नहीं हो पाता, पर उनके मन को मेरे इस शक ने कतई विचलित नहीं किया …शायद गुरु पूर्णिमा  मना कर लौट रहे होंगे वो लोग ……….

भक्ति के लिए श्रद्धा और श्रद्धा के लिए तर्कहीन होना जरूरी है क्या ?

शुक्रवार, 23 जुलाई 2010

सपनों की श्रँखला

पिछले ८-९ सप्ताह से टोरंटो की जो यात्रा चल रही थी , उसका कल अंतिम दिन होगा | प्रोजेक्ट का अंतिम समय आते आते काम की अधिकता बहुत बढ़ गयी है, इसलिए ब्लॉग लिखना और पढना न के बराबर ही हो रहा है | पर इस बीच ऑफिस के कुछ दोस्तों के साथ मंगलवार को Inception फिल्म देखने का मन बनाया, ७:३० बजे का शो जाने का मन था पर ७ बजे के बाद के लगभग ज्यादातर शो हाउसफुल थे, पर बस मन बन गया था तो ऐसे तैसे करके १० बजे के शो के टिकट लिए |

Inception-Posterसामान्यतः अंग्रेजी फिल्में छोटी होती है पर इसकी लम्बाई लगभग १४० मिनट की थी, पर सपनों की क्रमबद्ध श्रँखला ने लम्बाई का अहसास नहीं होने दिया | सपनों की दुनिया को जिस काल्पनिक ढंग से एक कहानी का रूप दिया गया है, वो वाकई में काबिले तारीफ है |  थोडा काम्प्लेक्स फिल्म है इसलिए समझने के लिए दिमाग  लगाए बैठे रहना पड़ा, एक सपना और उसके अंदर फिर दूसरा सपना और फिर तीसरा सपना …सपनों के विभिन्न स्तरों का, दूसरों के दिमाग में झांकने और अपने प्रोजेक्सन से दूसरों को सपनों के मायाजाल में घुमाने का बढ़िया तामझाम फिल्म में किया गया है, कुल मिलाकर मुझे तो बढ़िया फिल्म लगी | अंग्रेजी फिल्मों में तकनीक और सोच का अद्भुत मिश्रण देखने को मिलता है, निर्देशक कुछ न कुछ नया जरूर करने की कोशिश करता है |


सपनों की दुनिया भी कितनी रंगीन और अजीब होती है, हमारी काल्पनिक उड़ान एक पल से दूसरे पल ही कई वर्षों की यात्रा कर डालती है |  वास्तविक जिंदगी के कुछ पल सोऊ सपनों (सोऊ सपना - जो हम सोते समय देखते हैं ) में कई साल का अनुभव करा जाते हैं, जैसे कि सेट बना रखा हो और कल्पना की एक बटन पलक झपकते ही रंक से राजा बना दे, धरती से चाँद की ही नहीं एस्ट्रोयिड से होते हुए अन्य ग्रहों की सैर भी करा दे |  तो कभी कभी ये सोऊ सपने एक्शन फिल्म की तरह आपको किसी परिस्थिति में डालकर आपका पसीना निकाल दें |  दिमाग  का शांत होकर काल्पनिक अवस्था में जाने का यह तरीका हमें ईश्वर के होने और वास्तविक दुनिया से अलग एक नयी दुनिया के होने का अहसास सा दिलाता रहता है | जैसे ही इस काल्पनिक दुनिया से बाहर आते हैं, स्मृति पटल से सब कुछ गायब सा हो जाता है, अक्सर हम अपना पूरा सोऊ सपना याद नहीं रख पाते !


कुछ सपने (जागू सपने) हम जागते हुए देखते हैं, आशा और संभावना का सम्बल हमारे विचारों को जब आत्मविश्वाश से भर देता है तब ये सपने हमें आगे बढ़ने का उत्साह प्रदान करते हैं |  ऐसे सपने जिनको हमें अपनी कर्मठता से हकीकत में  बदलना है , देखने में  और ऐसे सपने जो बुलबुले की तरह युगों का सफर करा दें …कितना फर्क है !! 


आवश्यकता अविष्कार की जननी है, और जागू सपने शायद आवश्यकता की शुरुआत – Inception !!  जागते समय के सपने हमारी उत्कृष्टता और सोच का प्रतिबिम्ब होते हैं तो सोते समय के सपने ईश्वर के इंद्रधनुषी उपहार !!  आप क्या कहते हैं ?

 

मैं ना रुकूँगा
ना ही हारूँगा
बस प्रयास के रास्ते
बढता ही जाऊँगा !!

सपने संजोकर
कर्मठता की कसौटी पर
आशा के दीप जला
बढता ही जाऊँगा !!

नदिया का बहना
सूरज का उगना
सीख लेकर प्रकृति से
बढता ही जाऊँगा !!

सोमवार, 19 जुलाई 2010

होली और फटा हुआ पैंट - कुछ यादें …

 

बात बहुत पुरानी है , करीब २० साल पुरानी तो होगी, मेरे बचपन का एक बहुत ही मजाकिया लम्हा !!   हमारे गाँव के थोड़े से ही दूरी पर मेरे मामा का गाँव है, जहाँ पर होली अपने पूरे रंग में मनाई जाती है,  एक अलग ही अंदाज होता है वहाँ होली मनाने का |  पूरा गाँव कुछ दिनों तक होली के रंग में रंगा रहता है, चारों तरफ हर्सोल्लास और मस्ती का माहौल रहता है | हर परिवार अपने रिश्तेदारों को आमंत्रित करता है, पहले खेल होते हैं, जैसे कबड्डी, नाल उठाना इत्यादी , उसके बाद सब रिश्तेदारों को आदर के साथ खाना खिलाया जाता है और फिर उसके बाद सारे आदर की धज्जियाँ उड़ाई जाती हैं रंगों, धुल और कीचढ़ में सबको डुबो डुबो कर :)  हम भी अपनी मामियों और भाभियों को खूब परेशान करते थे, और साथ में ये भी ध्यान रखते थे कि खुद के कपडे ज्यादा खराब ना हों | ये एक फोटो वहीं का है , शायद १-२ साल पहले किसी ने खींचा था ….

नाल उठाने का एक द्रश्य  

तो उस समय कपड़ों की बड़ी चिंता रहती थी, होली के समय जो खराब कपडे होते थे उनको पहनते थे,  पर इस गाँव में चूंकि सबको आमंत्रित किया जाता था लोग सामान्यतः उतने बुरे कपडे पहन कर नहीं आते थे | मैं शायद उतना फैसनैबल नहीं था,  और पता नहीं क्या …मैं अपनी एक पुरानी सी पैंट और बुस्सट पहन कर चल दिया, कुछ दूर चल कर पता चला कि पैंट में पीछे एक छेद है, पर चूंकि कपडे खराब होने का डर मन में किसी कोने में था, घर लौटने के बजाय मैं पीछे हाथ लगा पहुँच गया मामा के गाँव !

अब वहाँ लोगों की भीड़ जमा हो रही थी, ज्यादार सफेद कुर्ते पायजामे या फिर धोती कुरता या फिर अपने पैंट  शर्ट में ! मैं अपने दोनों हाथ पीछे की तरफ क्रोस किये घूम रहा हूँ, पर बड़ी शर्मिंदगी अनुभव हो रही थी कि ये क्या पहन लिया, अपने आप को मन ही मन कोस रहा था ….उम्र रही होगी १०-१२ के बीच कुछ पर अभी भी वो शर्मिंदगी का पल हमेशा ध्यान रहता है.  बहुत ही फनी लम्हा था,  में खुद का मजाक सा बना रहा था | ऐसा ध्यान है जब तक वहाँ रहा किसी ने नोटिस नहीं किया था और शायद मैं जल्दी घर लौट लिया था अन्य लोगों के साथ | पर अभी जब सोचता हूँ बड़ी हँसी आती है , कभी कभी खुद के ऐसे अजीब किस्से मानस पटल पर अमिट छाप छोड़ देते हैं :) 

 

कुछ यादें ऐसी होती हैं

जो भूले ना जाती हैं

इनका स्मरण

खुसी के आँसुओं

से मुझे

ओस की बूंदों की भांति

प्रुफुल्लित कर देता है

 

मानस पर अंकित ये यादें

मंद मंद बयार की भाँती

मुझे सपनों में ले जाती हैं

अपनी गोद में लिटा कर

माँ के आँचल सा

आभास दे जाती हैं

 

मैं सोचता सा रहता हूँ

विवश करता हूँ

खुद को

उन यादों में फिर से जाने को

उन्मुक्त है मन

फिर से

वही राग गाने को

जो अब बसता है

सिर्फ यादों के आसमाँ में

 

मैं मस्त मौला

फिक्र से दूर

अरमानो के समुन्दर में

डुबकी लगा लगा कर

विचारों की उद्वेलना से दूर

तटों की खोज से बेपरख

अपनों के वटवृक्ष जैसी छाया तले

दो वक्त की रोटी

सुकून से खा रहा था

 

महत्वाकांक्षा की आंधी ने

विचारों को ऐसा उद्वेलित किया

मन ही मन सपनों के जाल बुन

पता नहीं कैसी उधड़बुन

के चक्रवातों में फँसा

झूठे दिलासे देता रहा

मन को बहलाने के तरीके ढूंढता फिरता

ऐसे चक्रव्यूह में जा घुसा

जहाँ सिर्फ यादें ही मनोहारी हैं  ….

 

तर्कों के तीर

आवेशों के वेग

वर्तमान को जीने की देते हैं सीख

यादों का इन्द्रधनुषी रूप

शीतल करता

फिर से वहीं बुलाता

जहाँ से शुरू हुई थी ये दौड

शुक्रवार, 16 जुलाई 2010

परिवर्तन की बेला !!!

 

परिवर्तन शब्द अपने आप में कितना कुछ समाहित करके रखता है,  एक युग से दूसरे युग का परिवर्तन हो,  या फिर एक सदी से दूसरी सदी का परिवर्तन,  एक देश से दूसरे देश में जाने का, या फिर एक संस्कृति से दूसरी संस्कृति में रमने का ….हर परिवर्तन अपने साथ एक नया उत्साह, नयी ऊर्जा,  या फिर संवेदना, निराशा लेकर आता है | परिवर्तन यादों को भी प्रतिचिन्हित करता है तो हर परिवर्तन इतिहास के पन्नों की पंक्तियाँ भी लिखता है |

अभी भारत देश ने रुपये का चिन्ह निकाला, लोगों में एक असीम उत्साह था इस खोज पर, इस घोषणा पर | परिवर्तन यहाँ पर एक चिन्ह के इर्दगिर्द घूमकर भी लोगों में आत्मसम्मान और उर्जा का प्रतिबिम्ब होता दिखा !  यहाँ देखें तो एक परिवर्तन देश को एकसूत्र में पिरोने का वाहक बना |  देश में हर दल चुनाव के समय परिवर्तन का हवाला देता है और फिर ५ साल तक ये दल परिवर्तन तो नहीं, हवाला करते रहते हैं, परिवर्तन सिर्फ  एक दल से दूसरे दल के बदलाव तक सीमित रह जाता है | काश ! नेता लोग परिवर्तन शब्द की महत्ता को समझते या फिर हम जैसे मतदाता शब्दकोष से इसका अर्थ खंगाल पाते !! 

कल टोरंटो से ४:२० बजे शाम का हवाई जहाज पकडना था, शिकागो ५:१० बजे पहुँचना था, टोरंटो का समय शिकागो के समय से १ घंटे आगे रहता है और ये १:३० घंटे की यात्रा होती है!  पर पता चला कि एक बहुत ही महत्वपूर्ण मीटिंग है ४ से ५ बजे तक तो फ्लाईट को ७:१० PM के लिए शिफ्ट कराया, मीटिंग से पहले क्लाईंट को बता दिया गया था कि कुछ लोग ट्रेवल कर रहे हैं, इसलिए सब समय का विशेष ध्यान रखें | हमने भी पहले से ही टैक्सी को बुला लिया था, जैसी ही मीटिंग ५ बजे से थोडा पहले समाप्त हुई, भाग लिए एअरपोर्ट की तरफ, नीचे सरदार जी टैक्सी लेकर हमारा इन्तजार कर रहे थे,  उनको बताया जल्दी पहुँचाने का तो उन्होंने देसी स्टाईल में इधर उधर घुमाके जल्दी से एअरपोर्ट पर पटका !

अमेरिका जाने वाले लोगों का उत्प्रवासन जांच कनाडा में ही हो जाता है, अमेरिका कस्टम ने यहीं एअरपोर्ट पर अपने काउंटर खोल रखे हैं | सौभाग्य से लाइन बहुत छोटी थी और हम निर्धारित समय से एक घंटे पहले ही अपने फ्लाईट द्वार पर पहुँच गए थे …वैसे कनाडा में लोग बहुत कम है इसलिए मुझे कहीं लंबी लाइन या व्यस्त रोड नहीं दिखी,  पर फिर भी अमेरिका के कस्टम काउंटर पर भीड़ रहती है क्यूंकि यहाँ ज्यादातर लोग अमेरिका से ही आते जाते हैं  !

मैं तो कुछ खाने पीने का सामान और कुछ पत्रिकाएँ खरीद कर बैठ गया इंतजार करने , लैपटॉप खोला, इन्टरनेट लगाया और बस कुछ ऑफिस का काम करने लगा | कुछ सप्ताहों से काम का बोझ इतना ज्यादा है कि ऑफिस के काम के अलावा कुछ और कर ही नहीं पाता :(  खैर ७ बजे तो पता चला कि घोषणा हो रही है कि शिकागो से आने वाला हवाईजहाज कुछ मौसम की खराबी से उड़ नहीं पा रहा है , यही हवाई जहाज हमें वापस लेकर जाएगा तो हमारा जाने का टाइम परिवर्तित कर दिया ८:१० बजे के लिए ….हमने इधर उधर फेसबुक और बज्ज पर कुछ चहलकदमी की तो पता चला कि शिकागो में मौसम तो भला चंगा है ,  कुछ और तकनीकी खराबी होगी जिसे मौसम के मत्थे मढ दिया गया है  …सूचना तकनीक ने बहुत परिवर्तन लाया है , आजकल कुछ ही पलों में सूचना मायाजाल में फैल जाती है, पर फिर भी झूठ बोले जाते हैं,  हवाई जहाज चलाने वाली कंपनी तो हमेशा ही झूठ का सहारा लेती है जब भी कुछ विलम्ब हो !!

खैर ऐसे तैसे ९:३० बजे रात को विमान का उड़ना तय किया गया,  ९:२५ बजे शिकागो वाली फ्लाईट आ गयी, तो एक और किस्सा खड़ा हो गया - अब तक अमेरिका के कस्टम वाले काउंटर बंद हो गए थे इसलिए इस एअरपोर्ट पर अमेरिका जाने वाला कोई यात्री प्रवेश नहीं कर सकेगा जब तक सुबह ना हो |  शिकागो से आने वाली फ्लाईट परिचारिका की उड़ान सीमा आज के लिए पूरी हो चुकी थी और नियम के हिसाब से  वो अब उड़ान में हमारी परिचारिका बन कर वापस नहीं जा सकती :) और एअरपोर्ट के बाहर से कोई आ नहीं सकता क्यूंकि अमेरिका का कस्टम बंद हो चुका है ! यहाँ मुझे लगा कि देशो के बीच की सीमा, सीमा ही रहती है चाहे अमेरिका- कनाडा हों या फिर भारत – पाकिस्तान !!

१५-२० मिनट की जद्दोजहद और नोंकझोंक के बाद कुछ आशा की किरण दिखाई दी, उसी समय एक और फ्लाईट कहीं से आई थी और उसमें से एक परिचारक हमारी फ्लाईट में हमारे  साथ उड़ने तैयार हो गया |  एक घाटा हुआ – समन्यतः महिला परिचारक होती है  और ये थे पुरुष  ….:-)

उड़े और पहुंचे शिकागो - टैक्सी में बैठ बिठाकर कुछ  आधी रात के समय घर पहुँच पाये !  देखो फ्लाईट के परिवर्तन ने कितने झमेले खड़े कर दिए , वो तो इन्टरनेट था नहीं तो पता नहीं कितना खिजिया जाते :)  लोग इन्तजार करते करते चिडचिडे हो जाते हैं और यही वहाँ का नजारा था !!

लोग वातानुकूलित वातावरण में ज्यादा खिजियाते देखे है,  गाँव में मिटटी के तेल की  दूकान पर पीपा हाथ में लिए चिलचिलाती धूप में खड़े लोगों को भी इतना परेशान होते नहीं देखा ! शायद आवश्यकता की खुजली झुंझलाहट की गर्मी को कम कर देती है ! 

मैं भी शायद परिवर्तन का अनाम सा प्रतीक हूँ, जिसने राशन की दूकान में खड़े होने से लेकर यहाँ तक का सफर तय किया है, परिवर्तन की इस सुखद यात्रा में अब वापस जाने का मन है उसी पुरानी पंक्ति में खड़े होकर जुकियाने (चुटियाने) का मन है !!  सच ही है परिवर्तन प्रकृति का नियम है जो मानव स्वभाव को लगाए रखता है एक क्रमबद्ध प्रयास में …..

परिवर्तन ही तो मुझको

चलायमान कर जाता

वरना मेरे भावों को

कौन प्रखर कर पाता

बीते पल  सुमधुर यादों के

शायद विस्मृत हो जाते

परिवर्तन नकार के पन्ने

इतिहास न बनने पाते

शनिवार, 10 जुलाई 2010

वो भी क्या दिन थे …

 

सायकिल पर पूरे जोर से पैडल मार मार कर दोस्त के घर जा रहा था, किन्हीं ख्यालों में उन्मुक्त था मन और पैर पैडलों को गति दिए जा रहे थे और तभी एक गति अवरोधक आया, जोर से आगे वाली ब्रेक लगाई …हम कहाँ और साईकिल कहाँ…

 

एस टी डी फोन करने के लिए लाइन में खड़े हैं, मुश्किल से नंबर आया, जब फोन कर रहे हैं तब फोन का बिल वज्रपात की तरह आगे बढता था,  जब ५ रुपये भी ५०० के बराबर लगते थे, फिर भी फोन के बढ़ते बिल को कुछ ख्याल नजरअंदाज कर देते थे …

 

हर कक्षा की परीक्षा का अंतिम दिन जो सुकून लाता था …

 

नौकरी के शुरूआती दिनों में जब किसी दोस्त को ऑफर लैटर मिलता था …उस दिन दोस्त तो हवा में उड़ रहा होता था और बाकी सब दोस्त भी इकठ्ठा होकर जो मस्ती करते थे …

 

पहली सायकिल  और पहली गाडी पाने के पल ….

 

विद्यालय में कुछ बोर कक्षाओं को छोड़ कर नए नए तरीकों से भागने वाले पल …

 

उन दिनों के आनंद अलग ही थे, आपके भी कुछ ऐसे ही पल रहे होंगे …चलो बताओ तो क्या थे वो दिन ??  बड़ा ही सुकून मिलता है उन दिनों की सिहरन से ! उन दिनों यहाँ आने की तड़प थी और आज तड़प है वापस उन दिनों में खो जाने की :)

सोमवार, 5 जुलाई 2010

क्या ‘बंद’ ही असहमति की एकमात्र शशक्त अभिव्यक्ति है ?

 

बंद की घोषणा क्या हो जाए, पार्टी के छुटभैये नेताओं को गुंडागर्दी का जैसे लाइसेंस मिल जाता हो, जबरदस्ती सडकें जाम कराना, दुकानों को बंद कराना जैसे काम नेताओं के बायोडाटा में स्टार जोडने का काम जो करते हैं |  भारत में होने वाले बंद जहाँ देश के लिए अव्यवस्था का सबब बनते हैं वहीं नेताओं के लिए ये एक मटरगस्ती का जरिया. इसलिए बंद (भारत में)असहमति की हिंसात्मक अभिव्यक्ति मात्र बन कर रह गए हैं और नेताओं को यही एक कारगर जरिया लगता है असहमति व्यक्त करने का !

पिछली बार भारत यात्रा के दौरान भी एक ऐसे ही बंद का आयोजन था, स्थानीय स्तर के कार्यकर्त्ता सब जुगाड जमा रहे थे न्यूज़ में आने के लिए | हम उस दिन ग्वालियर के पास के एक छोटे से कस्बे में अपने घर पर थे, उसी दिन सुबह कार से ग्वालियर के लिए निकलना था | छोटे कस्बों में एक दूसरे को सब अच्छी तरह से जानते हैं तो कुछ अड़ोसी पड़ोसियों ने जो कि रिश्तेदार भी थे, समझाया कि आज मत जाओ,  चलो हमारे साथ बंद के मजे लेने चलो, आप तो बस साइड में बैठ जाना कार में और देखते रहना मजे | कल सबके साथ आपका भी नाम पेपर में आ जाएगा |  कुछ को तो पता भी नहीं था कि बंद हो क्यूं रहा है, ये तो शायद किसी को भी नहीं पता था कि बंद करवाने से हल क्या होगा | कुछ बुद्धिजीवी भी थे जो अपनी पार्टी के साथ वफा के चलते हर अपने तर्क से बंद को तर्कसंगत बता रहे थे |

खैर, मैंने उनके साथ जाने की हामी नहीं भरी,  हमें कुछ आवश्यक काम भी था ग्वालियर में , नहीं तो हम भी कुछ मजे ले लिए होते बेचारे किसी ‘आम' आदमी को परेशान होते देखके !  मैंने कहा कि हमें तो जाना है , कार कैसे निकलेगी ?  तो भाई लोग जो कि बंद को सफल बनाने के लिए कुछ भी करने तैयार थे, पहले तो बोले कि कायिको परेशान होते हो, इहाँ से हम निकलवा देंगे तो कोई मुरैना में रोक लेगा,  जगह जगह कोई न कोई रोक ही लेगा …बात तो सही थी, बाद में भाई लोगों ने एक रास्ता बता दिया जहाँ से हम जा सकते थे और कोई रोकने वाले भी कम मिलेंगे और साथ में एक लड़का बिठा दिया जो हर जगह उनका रेफेरेंस देकर हमें ग्वालियर तक पहुंचवा देगा, ग्वालियर हम पहुँच भी गए,  कुछ लोग तो बंद होने के नाम से ही डर जाते हैं और वास्तव में उतना विरोध रोड पर नहीं रहता |  पर इससे इन नेताओं की दोगली और हमारी अवसरवादी प्रवृत्ति तो सामने आ ही गयी,  छोटे स्तर के नेता बंद को सफल सिर्फ और सिर्फ दिखावे के लिए और अपने आकाओं की खुशी के लिए करते हैं और हम जैसे लोग अपनी सुविधा के हिसाब से इनके बुने जाल में ढल जाते हैं,  किसी न किसी तरह अपना काम बन जाए बस इस फिराक में पडकर इसके दूरगामी परिणामों के बारे में सोचने की जहमत ही नहीं उठाते |  ये नहीं सोचते कि कल के लिए अगर ऐसी जगह फँस गया जहाँ में अजनबी हूँ तो मेरा उस ‘बंद' के दौरान क्या होगा !!

मानसिक रूप से ‘बंद' आपके क्रियाकलापों पर एक विराम तो लगा ही देता है | कुछ लोगों के लिए यह एक बहाना भी हो जाता है, घर पर सोफे में धंसे रहने के लिए :)  जो आईटी की कंपनियाँ हैं वो ‘बंद' के दिन तो ऑफिस बंद रखती हैं, पर उसके एवज में शनिवार या इतवार को लोगों को काम करने बुला लेते हैं | तो इससे उनके धंधे पर तो कोई फर्क नहीं पडता पर देश की रेटिंग इससे कहीं न कहीं कम जरूर होती है, और अक्सर मैंने अंग्रेजों को यहाँ हमारे तथाकतित ‘बंद' का मजाक उड़ाते देखा है, क्या जबाब दें ? हम भी कुछ तर्क देते हैं, पर खुद का मन भी ग्लानी से भरा होता है क्यूंकि  ‘बंद' का मतलब सिर्फ और सिर्फ विपक्ष की तरफ से सत्ता पक्ष को नीचा दिखाना होता है और इससे खुद को जनता के सामने प्रचारित करने का मौका भी उन्हें मिल जाता है |  जब कांग्रेस सत्ता में होगी तो बीजेपी बंद रखेगी  किसी नीति के सम्पादन पर (बहस करने के बजाय) और जब बीजेपी सत्ता में आएगी तो बीजेपी भी वही करेगी जो कांग्रेस सत्ता में होने पर कर रही होती, पर इस समय चूंकि कांग्रेस विपक्ष में हैं; वो तोडफोड और अव्यवस्था फैलाएगी, इस तरह ये  सिक्वेल चलता रहता है और देश बदनाम होता रहता है |

जब हम विकसित होना चाहते हों, विदेशों की नक़ल पर आधुनिक बनना चाहते हों और अपने ढाँचे को विश्व स्तर का बनाना चाहने का सपना रखते हों तो क्या असहमति की ये हिंसक अभिव्यक्ति ‘बंद'  ये सब क्रियान्वयन होने में हमें मदद कर पायेगी  ??  मैंने भारत में होने वाले ज्यादातर बन्दों को हिंसक होते ही देखा है और उसमें पिसते हैं हम सब लोग !

बहुत पहले एक कहानी “श्रद्धांजलि“ लिखी थी (नीचे पढ़ें ) बंद के वीभत्स रूप पर, भगवान करे ऐसा किसी के साथ ना हो, पर अगर बंद होते रहे तो ऐसा होने का शक हमेशा दिमाग में बना रहेगा !!-

श्रद्धांजलि


गली में आज अजीब तरह का सन्नाटा छाया हुआ था, हर कोई स्तब्ध था. घटना ही ऐसी रोंगटे खड़े करने वाली थी. सोने से पहले मूला के छोटे लडके मुरारी ने सुनहरे कल के सपने देखे थे, वो जब अपना ठेला लगाकर शाम को घर लौटा तो उसकी बहन कमला ने भाई को पानी देते हुआ कहा की कल तो मेरा दिन है !! रखाबंधन है, मेरा भाई मेरे लिए क्या ला रहा है ? मुरारी बहुत खुश हुआ और तपाक से बोला की इस बार कुछ नही दूँगा तेरे को... और मन ही मन हँस रहा था, क्यूंकि उसने मन में कुछ सोच रखा था.

उसका धंधा आजकल कुछ कम हो रहा था, लोग नए नए बने मल्टीप्लेक्स बाजारों में ज्यादा जा रहे थे. सोचा कल सुबह जल्दी जागकर कुछ स्पेशल ऑफर अपने ठेले पर लगाऊंगा; जिससे कुछ ज्यादा भीड़ जुट सके, कई तरह के आईडिया उसने सोचे. सुबह जल्दी जागा, उसको परवाह नही कि क्या हो रहा है बाहरी दुनिया में, जल्दी से नहा धोकर अपने ठेले को लेकर उसमें सारा चाट का सामान रखने लगा, उसने सोचा कि कोई आवाज नहीं हो...नहीँ तो कमला उठ जायेगी, वो तो आज इसलिए ही इतना आनंदित है की रात को जब घर आएगा अपनी बहन के चहरे पर प्यारी सी मुस्कान देखेगा.

सब कुछ सामान्य सा ही था, आवारा कुत्ते घर के सामने पहरेदारी कर रहे थे, शर्मा जी ढूध लेने जा रहे थे, अभी कुछ लोगो के लिए बिस्तर पर और नीद लेने का टाइम था, पर मूला के घर में लोग इतना नही सो सकते थे, एक दिन भी अगर समय से अपने काम पर अगर वो नही जाते तो दूसरे दिन का खर्च कैसे चलेगा और ऊपर से कमर तोड़ती हुई महंगाई , उन लोगो के लिए सुकून नही था जीवन में, चाहे कोई भी मौसम हो, काम तो करना ही था.

मुरारी 10th में तो सक्सेना सर के लडके के बराबर अंक लाया था, अगर उसको प्रैक्टिकल में थोड़े और नम्बर मिले होते तो स्कूल में वही टॉप करता, लेकिन आगे वो नही पढ़ सका, उसने ठेले पर अपने पिता का हाथ बटाना शुरू कर दिया, उसको ठेला तो जैसे विरासत में मिला था.

कुछ दिनों बाद मुरारी का ठेला पूरे कस्बे में मशहूर हो गया था और कई कई बार तो सुबह का निकला हुआ वह देर रात तक अपनी दूकान बंद कर पाता. लोग उसके नाम से उसको जानने लगे थे. लोगो को लगता की उसने चाट इसलिए महँगी की क्यूंकि वह मशहूर हो गया है, पर उसके दाम बढाने के पीछे तो कमर तोडती महंगाई थी.

कड़ी मेहनत के बाद कुछ कर्ज चुकाने में सफल हो पाया था. मूला बहुत खुश था कि उसके लडके ने उसका काम बढिया तरीके से संभाल रखा है. एक बाप को इसके सिवाय और क्या चाहिए कि उसका बेटा उसके परों पर खड़ा हो गया है.

सब कुछ ठीक चल रहा था. पर जैसे कहते है की दिन के बाद रात और छाँव के बाद धूप जरूर आती है, इस गरीब घर की खुशियों के लिए भी ऐसा कोई तूफान जैसे इंतजार कर रहा हो. मुरारी के पास इतना समय नही था की वह रात को टीवी पर समाचार देख सके या फिर रियलिटी शो का लुत्फ उठा सके, उसके लिए तो उसके रोज के ग्राहक और चाट खाने वाले ही सब कुछ थे. उसकी बाहरी दुनिया उस कस्बे तक ही सीमित थी. गीत गुनगुनाते हुए अपने ठेले को लेकर वह चौराहे की और बढ़ रहा था.

आज उसे बाजार की सड़को पर रोज वाल्क के लिए आने वाले गुप्ता जी और शर्मा जी की जोड़ी नही दिखाई दी, सोचा की कही बाहर गए होंगे या फिर सोते रह गए होंगे, ऐसा सोचते सोचते उसने अपना स्टोव बाहर निकाला और उसमें हवा भरने लगा. कुछ आवारा कुत्ते ठेले के पास उसका सामान खाने की कोशिश करते उसके पहले ही उसने डेला उठाकर उनको भगाया.

आज उसको अपनी सारी उपलब्धियाँ याद आ रहीं थी, वो सोच रहा था की क्यों मेरे मन में ये सारी बातें आज आ रही है. बचपन, उसकी माँ की असहनीय अवस्था और फिर असमय मौत सब कुछ जैसे उसकी आँखों के सामने से गुजर रहा हो, और फिर अचानक से सोचता की मैं क्यों ये सब याद कर रहा हूँ ??

आज उसने कुछ स्पेशल मिठाई बनाई थी जो वह हर ५ रुपये के चाट पर फ्री देने वाला था, सोच रहा था की आज की सारी कमाई मेरी बहन के लिए होगी. वो उसके लिए आज सायकिल लाने की सोच रहा था, मूला ने एक दिन सायकिल की वजह से कमला को बहुत डांटा था और फिर वो सहम कर छत पर चली गई थी. उसके सपनों में वो सायकिल पर जा रही थी और अपने आप को परी समझ रही थी, बडबडा रही थी की देखो आज मेरे भाई ने सायकिल दिलवा दी , उसके सपने और बुदबुदाहट से मुरारी की नीद खुली और उसने उसको बोला सोने दे, सुबह उठना है मुझे. वह उस दिन की बात को उसी रात भूल गया था पर आज उसे वो सब याद आया और सोचा की रात को ठेले की कमाई को लेकर और कुछ और मिलाकर सायकिल लूँगा. यही सब सोचते सोचते एक - डेढ़ घंठा कब निकल गया, पता ही ना चला.

आज बाजार में उतनी चहल पहल नही थी. जैसे ही सूरज की किरणों ने उजाला बिखेरा, मुरारी भी आशान्वित होकर खड़ा हो गया की ग्राहकों के आने का टाइम हो चला. कुछ देर में ग्राहक तो नही पर कुछ कुरते पजामे वाले लोग आए और बोले, तेरे को पता नही आज बंद है और तुने दूकान खोल ली, कुछ ज्यादा ही अपने आप को हीरो समझ रहा है ये, इस तरह से उन लोगो ने उल्टा सीधा बोला और उसको धमका कर आगे बढ़ गए. उसने सोचा की कोई गुंडे लोग लग रहे है, मुझे इनको नजरअंदाज कर देना चाहिए. और वह फिर से अपने काम में लग गया. इस बार फिर से कुछ और कुरते पजामे वाले लोग आए पर कुछ दूसरी पार्टी के लग रहे थे, उन्होंने उसका उत्साह बढाया और बोले की तुम हो सही नागरिक जो ऐसे में अपनी दूकान खोलकर बैठे हो . उन लोगो के कुछ पोहा खाया और आगे बढ़ लिए.

मोरारी थोड़ा आशंकित हुआ और सोचा की बात क्या है, लग रहा है गुंडों के दो गुट उन आवारा कुत्तो की तरह घूम रहे है, सोचा की घर वापस चला जाए और फिर उसे अपनी बहन याद आई और उसने सोचा की नही आज तो मैं कहीं नही जाने वाला. एक आशा के साथ वह वहीं ग्राहकों के इंतजार मैं खड़ा रहा.

इस तरह से पसोपेश मैं कुछ सुबह के १०:३० बज गए थे. इतने मैं एक लड़का चाट खाने आया. मुरारी उसको चाट बना ही रहा था की कुछ लोग नारे लगाते हुए निकले की 'गरीबो की पार्टी कैसी हो, ... जैसी हो". फिर बोले की शान्ति से आप दुकाने बंद कर ले नही तो हमारे कार्यकर्ता आयेंगे और बंद करा देंगे. मुरारी तो जैसे अब हर चेतावनी नजरअंदाज ही करता जा रहा था, क्यों न करे, उसके मन मैं कुछ सुनहरे सपने जो पल रहे थे.

मुरारी का उद्देश्य था अपने पेट का पालन और घरवालो को खुशियाँ देना, जबकि उन नारे चिल्लाने वालों का तथाकथित लक्ष्य गरीबो की पार्टी को बंद के जरिये सफल बनाना था. इतने मैं ही कुछ लोगो में जो दूसरी पार्टी के थे, धक्का मुक्की होने लगी और एक चिल्लाया , मारो सालो को, छोडना मत, इससे अच्छा मौका नही मिलेगा .... लाठिया बाहर आ गई और शान्ति का वो मोर्चा हिंसक रूप लेने लगा, किसी ने बन्दूक निकाली और हवा मैं फायर किया, मुरारी ने ठेला वही छोड़ा और भागने लगा, पुलिस भी कहीं इक्का दुक्का दर्शक बनी घूम रही थी,  पुलिस पर भी पत्थर बरसने लगे और तभी पुलिस को आँसू गैस छोड़नी पड़ी , इतने में ही किसी ने एक और गोली चलाई और वो लगी भागते हुए मोरारी को…

...और ऐसे कई मुरारी इस तरह बंद का शिकार बने.


लोग कहते है की बिना बंद के सरकार नही सुनती, सब ठीक है, तर्कों का कोई अंत नही, पर अब मुरारी के परिवार का क्या होगा?? उसकी गली के सन्नाटे के पास भी इसका जबाब नही. क्या सरकार की राहत वो खुसी देगी जो उसकी बहन को उसकी सायकिल से मिलती ...??


जेहन मैं ऐसे सवाल हर पल आते रहते है
फिर भी हम इन्सान क्यों न रह पाते है
हर गली मैं ऐसे कई मूला और मुरारी मरते है
फिर भी ये बंद कैसे सफल होते है
हर तरफ सन्नाटा छाया रहता है
फिर भी राजनीती के दलाल व्यापार करते है
हर कोई सुनकर स्तब्ध रह जाता है
फिर भी ये बंद हर रोज होते है
जान और माल का नुकसान ये करते है
फिर भी ये बंद क्यों बंद नही होते है


- राम

शुक्रवार, 2 जुलाई 2010

मैं एक पार्टी बनाने की सोच रहा हूँ

मैंने हाल ही में देश की चमकती और नाजुक दोनों हालत को देखकर एक पार्टी बनाने की बात सोची है,  अब क्यूंकि पार्टी को सफल बनाना है, इसलिए कुछ बातों पर विशेष ध्यान दिया गया है| निम्नलिखित विशेष योग्यताएं आप रखते है तो तुरंत संपर्क करें :

  • पत्रकारों के लिए हमेशा रेड कारपेट क्यूंकि इनको पटाकर ही हम कुछ कर पायेंगे !
  • करने से अधिक दिखावे में निपुणता, मार्केटिंग का जमाना जो ठहरा !
  • भ्रष्टाचार की कला में माहिर !
  • ब्लॉग्गिंग का अनुभव जरूरी नहीं !
  • इमानदारी की सिर्फ बातें करना आता हो !
  • किसी विशेष खानदान से सम्बन्ध, किसी राजघराने से सम्बन्ध रखते हों !
  • कोई राजनीतिक आदर्श नहीं हों, गिरगिट की तरह समय के अनुसार रंग बदलने में माहिर हों !
  • जी हजूरी करने में कोई झिझक ना होती हो !
  • काला धन छुपा के रखा हो !
  • पढ़े लिखे हों या ना हों, सब चलेगा !

पूरा यकीन है कि ये  वाली पार्टी जरूर सफल होगी और देश को सही नेतृत्व दे पायेगी!!

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अरे ये क्या … फिर से सारे पॉइंट पढने के बाद पता चला कि ये गुण तो सारे दल रखते हैं फिर हम कहाँ अलग हुए, कैसे अलग पहचान होगी   ? फिर भी ऊपर लिखे सिद्धांतों पर कुकुरमुत्ते की तरह स्थापित दल कैसे जीत जीत कर आ जाते हैं ?  ये यक्ष प्रश्न बड़ा परेशान कर रहा है |

विद्वान लोग कह गए हैं कि हर समस्या का हल होता है बस आपको आसपास निगाह दौडाने की जरूरत है !!  लेकिन क्या भारत के राजनीतिक हलुए को फैलने से रोकने का कोई हल है ?   लोगों ने लोहिया के नाम पर पार्टी बनायी लेकिन फिर सफल होने के लिए ऊपर लिखे टोटकों को ही अपनाया, लोगों ने अम्बेडकर और दीनदयाल उपाध्याय के नाम पर दल बनाए, पर अंत में  संसद तक पहुँचने के लिए टोटके ऊपर लिखे ही किये !! 

मेरे अनुमान के हिसाब से भारत में ८०० के लगभग दल है जो चुनाव में हिस्सा लेते हैं,  सुनने में लगता है कि प्रजातंत्र असली मायने में हमारे देश में ही है, पर क्या इतने सारे दल सच में प्रजातंत्र को परिभाषित कर पाये हैं या सिर्फ क़ानून के जाल में बने छेदों का फायदा उठाने मात्र के लिए ही ये उगते हैं ?   आज के आधुनिक परिप्रेक्ष्य के हिसाब से भारत के लिए नया संविधान परिभाषित किये बिना हम देश को अस्थिरता की और ही धकेल रहे हैं ! 

खैर मैं भी क्या सोचने बैठ गया, आप तो बस मेरी पार्टी में शामिल होने के लिए तन और धन से तैयार रहिये !!

बहुत पहले एक कविता लिखी थी -

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सरपंच साहब ने बुलाई है बैठक
सरकायलो खटिया और कुरसियाँ
पहले खेलो तांस और फिर सुलगायलो बीडी बोहरे
इतर लगाने वालो भी आयो है
क्या है मंजर पार्टी जैसो
सरपंच साहब ने बुलाई है बैठक
~~~~~~~~~~~~~~~~~
बोले मूला, सरपंच साहब आप महान हो
मिटटी के तेल से ही लाखों निचोड़ने में माहिर हो
घर का नाम रोशन कर रहे हो
जब से जीते हो, लाखों बना रहे हो
~~~~~~~~~~~~~~~~~
बोले मुरारी, सरपंच साहब आप तो खिलाड़ी हो
हमें उधार देने वाले भगवान् हो
अफसरों से सांठ गाँठ करना कोई आपसे सीखे
सरकार से पैसा एंठने में आपका कोई जबाब नहीं
हम तो भूखे है इसका हमें मलाल नहीं
~~~~~~~~~~~~~~~~~
जलाओ और बीडी , पानी की बाल्टी भी ले आओ
सब बोले एक मत में आप ही गाँव के सच्चे सपूत हो
नेता बनने के सारे गुण रखते हो
पढ़े लिखे लोग क्या कर पायेंगे
आप से क्या मुकाबला कर पायेंगे
आपने गाँव का नाम रोशन किया है
सरकार के पैसे से अपने घर को मालामाल भी किया है
इस बार डाल दो पर्चा MLA के लिए
बहू को कर दो खड़ा सरपंची के लिए
सरपंच साहब बहुत खुश हुए
दो चार अकडन लेते हुए
मीटिंग को सफल बताते हुए
सरकार को चूना लगाने फिर चल दिए !!

 

एक अच्छी खबर भी पढ़ी ब्लूमबर्ग में -
data दिल्ली में इंदिरा गाँधी एअरपोर्ट पर तीसरा टर्मिनल बनकर तैयार हो गया है,  ये अपने आप में कई सफलता के मायने परिभाषित करता है.  ७८ दरवाजे, ९५ उत्प्रवासन डेस्क , ९७ स्वचालित walkways के साथ यह एशिया के बड़े बड़े टर्मिनलों में से एक होगा और इसको बनने में सिर्फ ३७ महीने लगे ! और भी यहाँ पढ़ें -

http://www.bloomberg.com/news/2010-07-01/delhi-building-airport-terminal-faster-than-beijing-may-spur-india-growth.html

 

हलकी फुलकी

टोरोंटो में एक कैब (टैक्सी) वाले ने भी दिल खुश कर दिया,  ड्राईवर सोमालिया का रहने वाला था, पर हिंदी भी समझता था,  बोल रहा था कि सोमालिया की भाषा में बहुत से शब्द हिंदी के जैसे ही है, जैसे भाई, बर्फ इत्यादी !  ये ड्राईवर महोदय अभिताभ से लेकर लता - आशा मंगेशकर के दीवाने थे,   तभी तो हम कहते हैं कि
मेरा भारत महान