२००४ का चुनाव बहुत जोर शोर से India Shining के मुद्दे पर अटल जी और प्रमोद महाजन के मीडिया प्रबंधन में लड़ा गया और अति आत्मविश्वास कहा जाए या फिर समाजवादी पार्टी जैसे क्षेत्रीय दलों का राजनीती में चमकना कहें, अटल जी भाजपा के १३८ सांसद ही जिता पाए, कांग्रेस भी कुछ ज्यादा अच्छा नहीं कर पायी पर फिर भी भाजपा से ज्यादा सीटें जीतकर १४५ सांसदों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी और सरकार बना ली। फिर सब भाजपा के अन्ध विरोधियों ने उनकी सरकार को चलाया और १० साल तक देश को खूब लूटा। २००९ में भाजपा में लालकृष्ण अडवाणी जी को अन्ततः फ्रंट से लीड करने का मौका मिला पर भाजपा की सीटें और कम हुई और कांग्रेस को २०६ लोकसभा में सफलता मिली, शायद ये पहाड़ की चोटी थी इसके पहले के वो गर्त में गिरना स्टार्ट करें, १० सालों में सरकार तो चली कांग्रेस की पर क्षेत्रीय दलों का वोट प्रतिशत बढ़ा, उनका दबदबा बढ़ा और कांग्रेस की जड़ें देश में कमजोर होती गयीं और शायद यही से कांग्रेस चुनाव प्रचार में उत्साहहीन दिखने लगी , कोई ऐसा नेता नहीं जो धाराप्रवाह हिंदी में इतिहास को, वर्तमान को और भविष्य को मिश्रित कर कुछ ऐसा बोलता मन्च से जिसे सुनने का मन करे, सब घिसे पिटे लिखे लिखाये भाषण वाले नेता थे और इसी मौके को और अपने संघठन की मजबूती का फायदा भाजपा ने नितिन गडकरी के नेतृत्व वाली भाजपा ने उठाना शुरू किया, इधर सुषमा स्वराज, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती , शिवराज सिंह चौहान (अटल जी और अडवाणी जी के अलावा) जैसे कद्दावर और ओजस्वी वक्ता थे जिनको भाषण के लिए पर्ची और भाषण लिखने वाले की जरूरत नहीं थी।और भी बहुत नेता थे भाजपा में, हर राज्य में जो ओजस्वी थे और इन सबकी ओजस्विता को मोदी जी ने और नया आयाम दिया और २०१४ का चुनाव एक ऐतिहासिक चुनाव बन गया जिसमें भाजपा न ही खुद से पूर्ण बहुमत लायी पर देश में एक चुनाव का उत्साह और उस्तव जैसा था। मोदी का देश के स्तर पर पहला चुनाव था तो उन्होंने बहुत मेहनत भी करी और सबसे अच्छी बात हुई की क्षेत्रीय पार्टियों की भी सीटें कम हुई और एक सशक्त सरकार देश में बन सकी। जब देश कांग्रेस में ओजस्विता की कमी और नेतृत्व की कमी से गुजर रहा था तब राज्यों के दल चाहे मुलायम हों , लालू हों , नवीन पटनायक हों या फिर चंद्रबाबू ये सब फिर भी धाराप्रवाह थे बोलने में, मुद्दे उठाने में, मंच से आत्मविश्वास के साथ बोलने में, पर कांग्रेस सबसे ख़राब समय से गुजर रही थी और लोग भ्रष्टाचार से तो तंग थे ही, पर २०१४ के चुनाव का जो जोश था उससे भी लोगो ने कांग्रेस को नेतृत्वविहीनता के कारण हर जगह से सबक सिखाया।
चलो ये तो हुई बात पुराने चुनावों की, अब मुद्दे की बात पर आता हूँ। इस बार मोदी जी के भाषण भी सुस्त सुस्त से हैं और कैंडिडेट सिलेक्शन बहुत जुगाड़ू टाइप का लग रहा है, ऐसा लग रहा है मोटा भाई शाह जी बस एकाउंटिंग की बुक लेकर बैठ गए हैं और इसको उधर और उसको उधर करके सिर्फ मोदी पर फोकस करने की कोशिश की जा रही है। इस बार के चुनाव में गिरगिट का बोलबाला है, उदहारण देकर समझाता हूँ, शत्रुघन सिन्हा एन मौके पर टिकट का assurance मिलने पर कांग्रेस में टपक लिए और दूसरे दिन उनकी पत्नी समाजवादी पार्टी में क्यूंकि वो उनको टिकट दे रही थी, अरे भाई दोंनो पति पत्नी को कांग्रेस ही टिकट दे देती और सिन्हा साहब इतने दिनों से मोदी-शाह के पीछे पड़े थे तो फिर पहले से ही क्यों नहीं कोई और पार्टी ज्वाइन कर ली? भिंड से एक नेता हैं जो जातिवाद के प्रखर विरोधी थे, माया के भक्त थे, युवा हैं पर अब कांग्रेस में आ गए, टिकट मिला सिंधिया की कृपा से तो युवा जातिवाद के मुद्दे भूलकर महाराजा और श्रीमंत जैसे शब्दों के साथ बस कांग्रेस के बड़े नेताओं के गुणगान और चमचागिरी को लोगों के मुद्दों से ज्यादा तबज्जो दे रहे हैं , टिकट ने एक और संघर्ष को ख़त्म कर दिया और गिरगिट को पैदा कर दिया। गोरखपुर से भाजपा रवि किशन को लेकर आयी जो दूर दूर से वहां से कोई रिश्ता नहीं रखते, अरे भाई अगर काम किया है और योगी जी का ठिकाना है तो किसी अच्छे से लोकल लीडर को भी ला सकते थे और रवि किशन ने भी डूबती नैया से छलांग लगा ली कुछ फायदा देखकर, हर जगह व्यक्तिगत आकांक्षायें, लाभ और टिकट की लालसा भारी है और इस वजह से मुद्दे, विकास और लोकल नेताओं का अस्तित्व जैसे चीजें पीछे छूट गयीं हैं। और तो और, आम आदमी पार्टी और कई इधर उधर के उनके नेता, पहले बोलते थे भ्रष्टाचार हटाना है और कांग्रेस को हटाना है, वही अब पांच साल बाद कांग्रेस से मिल रहे हैं भाजपा हटाने को, अब इस बार कांग्रेस के भ्रष्टाचार के दाग धूल गए हैं, बढेरा, शीला दीक्षित सब अब सुधर गए हैं और वही सब लाँछन अब भाजपा में आ गये हैं और कांग्रेस ही, लालू और अन्य गठबन्धन के नेता ही देश को भाजपा से बचा सकते हैं - सारा चुनावी बाजार गिरगिटों से भर गया है जहाँ हर कोई मुद्दों से भटक कर जनता को और ज्यादा कंफ्यूज कर रहे हैं।
उत्तर भारत में वोटों का प्रतिशत चुनावी गहमागहमी में उत्साह की कमी को दिखाता है और कहीं न कहीं २००४ के (भाजपा के) ओवर कॉन्फिडेंस एवं २००९ के नीरस चुनाव प्रचार की याद दिलाता है, कहीं ये सब एक खिचड़ी सरकार की भूमिका तो नहीं बना रहा जो देश की प्रगति और विकास में रोड़ा बनकर हमें पीछे ना धकेल दे। सबको वोट करना होगा और सभी दलों को चुनाव प्रचार, भाषणों में थोड़ा और उत्साह दिखाना होगा। मुद्दों पर और बात होनी चाहिए , बहस और तीव्र और तीखी होनी चाहिए , हमें चुनाव को एक उत्सव का रूप देना चाहिये।
जय हिन्द। वन्दे मातरम्।