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शुक्रवार, 19 अप्रैल 2019

गिरगिट के रंगो से भरा नीरस चुनाव





इस बार के चुनाव बड़े नीरस से लग रहे हैं, जैसे २०१४ में चाय पर चर्चा हो या फिर, मोदी जी का virtually पूरे देश में बड़ी बड़ी स्क्र्रीन के जरिये देश को सम्बोधित करना हो, या फिर आम आदमी पार्टी का नया नया जोश हो, एक चुनाव जैसा माहौल लगता था, सोशल मीडिया में भी एक चुनाव जैसी महक थी पर इस बार कुछ फीका फीका सा है, अब ग्वालियर-मुरैना में होते होते तो चाय की दुकान पे, समोसे की दुकान पे या फिर कचोड़ी वाले की दुकान पे अलग ही माहौल दिखाई देतो, पर यहाँ तो सिर्फ YouTube, FB और WhatsApp हैं जो माध्यम हैं - माध्यम भी बदल गये हैं, लोगों के पास आपस में बात करने का समय नहीं फ़ोन की सोशल मीडिया एप्प से चिपके रहने के कारण। सुना था की कांग्रेस ने भी मीडिया सेल को काफी मजबूत किया है पर मेरा ऐसा मानना है की इस बार का चुनाव सारी पार्टियां ज्यादा गंभीरता से नहीं ले रही। अटलबिहारी वाजपेयी जी ने जब २००४ में चुनाव करवाए थे, तब अच्छी फाइट दिखी थी पर २००९ का चुनाव लालकृष्ण अडवाणी के नेतृत्व में उतना एग्रेसिव नहीं था, इस साल के जैसा ही था कुछ कुछ।

२००४ का चुनाव बहुत जोर शोर से India Shining  के मुद्दे पर अटल जी और प्रमोद महाजन के मीडिया प्रबंधन में लड़ा गया और अति आत्मविश्वास कहा जाए या फिर समाजवादी पार्टी जैसे क्षेत्रीय दलों का राजनीती में चमकना कहें, अटल जी भाजपा के १३८ सांसद ही जिता पाए, कांग्रेस  भी कुछ ज्यादा अच्छा नहीं कर पायी  पर फिर भी भाजपा से ज्यादा सीटें जीतकर १४५ सांसदों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी और सरकार बना ली। फिर सब भाजपा के अन्ध विरोधियों ने उनकी सरकार को चलाया और १० साल तक देश को खूब लूटा। २००९ में भाजपा में लालकृष्ण अडवाणी जी को अन्ततः फ्रंट से लीड करने का मौका मिला पर भाजपा की सीटें और कम हुई और कांग्रेस को २०६ लोकसभा में सफलता मिली, शायद ये पहाड़ की चोटी थी इसके पहले के वो गर्त में गिरना स्टार्ट करें, १० सालों में सरकार तो चली कांग्रेस की पर क्षेत्रीय दलों का वोट प्रतिशत बढ़ा, उनका दबदबा बढ़ा और कांग्रेस की जड़ें देश में कमजोर होती गयीं और शायद यही से कांग्रेस चुनाव प्रचार में उत्साहहीन दिखने लगी , कोई ऐसा नेता नहीं जो धाराप्रवाह हिंदी में इतिहास को, वर्तमान को और भविष्य को मिश्रित कर कुछ ऐसा बोलता मन्च  से जिसे सुनने का मन करे, सब घिसे पिटे लिखे लिखाये भाषण वाले नेता थे और इसी मौके को और अपने संघठन की मजबूती का फायदा भाजपा ने नितिन गडकरी के नेतृत्व वाली भाजपा ने उठाना शुरू किया, इधर सुषमा स्वराज, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती , शिवराज सिंह चौहान (अटल जी और अडवाणी जी के अलावा) जैसे कद्दावर और ओजस्वी वक्ता थे जिनको भाषण के लिए पर्ची और भाषण लिखने वाले की जरूरत नहीं थी।और भी बहुत नेता थे भाजपा में, हर राज्य में जो ओजस्वी थे और इन सबकी ओजस्विता को मोदी जी ने और नया आयाम दिया और २०१४ का चुनाव एक ऐतिहासिक चुनाव बन गया जिसमें भाजपा न ही खुद से पूर्ण बहुमत लायी पर देश में एक चुनाव का उत्साह और उस्तव जैसा था।  मोदी का देश के स्तर पर पहला चुनाव था तो उन्होंने बहुत मेहनत  भी करी और सबसे अच्छी बात हुई की क्षेत्रीय पार्टियों की भी सीटें कम हुई और एक सशक्त सरकार देश में बन सकी।  जब देश कांग्रेस में ओजस्विता की कमी और नेतृत्व की कमी से गुजर रहा था तब राज्यों के दल चाहे मुलायम हों , लालू हों , नवीन पटनायक हों या फिर चंद्रबाबू ये सब फिर भी धाराप्रवाह थे बोलने में, मुद्दे उठाने में, मंच से आत्मविश्वास के साथ बोलने में, पर कांग्रेस सबसे ख़राब समय से गुजर रही थी और लोग भ्रष्टाचार से तो तंग थे ही, पर २०१४ के चुनाव का जो जोश था उससे भी लोगो ने कांग्रेस को नेतृत्वविहीनता के कारण हर जगह से सबक सिखाया।

चलो ये तो हुई बात पुराने चुनावों की, अब मुद्दे की बात पर आता हूँ।  इस बार मोदी जी के भाषण भी सुस्त सुस्त से हैं और कैंडिडेट सिलेक्शन बहुत जुगाड़ू टाइप का लग रहा है, ऐसा लग रहा है मोटा भाई शाह जी बस एकाउंटिंग की बुक लेकर बैठ गए हैं और इसको उधर और उसको उधर करके सिर्फ मोदी पर फोकस करने की कोशिश की जा रही है।  इस बार के चुनाव में गिरगिट का बोलबाला है, उदहारण देकर समझाता हूँ, शत्रुघन सिन्हा एन मौके पर टिकट का assurance मिलने पर कांग्रेस में टपक लिए और दूसरे दिन उनकी पत्नी समाजवादी पार्टी में क्यूंकि वो उनको टिकट दे रही थी, अरे भाई दोंनो पति पत्नी को कांग्रेस ही टिकट दे देती और सिन्हा साहब इतने दिनों से मोदी-शाह के पीछे पड़े थे तो फिर पहले से ही क्यों नहीं कोई और पार्टी ज्वाइन कर ली? भिंड से एक नेता हैं जो जातिवाद के प्रखर विरोधी थे, माया के भक्त थे, युवा हैं पर अब कांग्रेस में आ गए, टिकट मिला सिंधिया की कृपा से तो युवा जातिवाद के मुद्दे भूलकर महाराजा और श्रीमंत जैसे शब्दों के साथ बस कांग्रेस के बड़े नेताओं के गुणगान और चमचागिरी को लोगों के मुद्दों से ज्यादा तबज्जो  दे रहे हैं , टिकट ने एक और संघर्ष को ख़त्म कर दिया और गिरगिट को पैदा कर दिया।    गोरखपुर से भाजपा रवि किशन को लेकर आयी जो दूर दूर से वहां से कोई रिश्ता नहीं रखते, अरे भाई अगर काम किया है और योगी जी का ठिकाना है तो किसी अच्छे से लोकल लीडर को भी ला सकते थे और रवि किशन ने भी डूबती नैया से छलांग लगा ली कुछ फायदा देखकर, हर जगह व्यक्तिगत आकांक्षायें, लाभ और टिकट की लालसा भारी है और इस वजह से मुद्दे, विकास और लोकल नेताओं का अस्तित्व जैसे चीजें पीछे छूट गयीं हैं।  और तो और, आम आदमी पार्टी और कई इधर उधर के उनके नेता, पहले बोलते थे भ्रष्टाचार हटाना है और कांग्रेस को हटाना है, वही अब पांच साल बाद कांग्रेस से मिल रहे हैं भाजपा हटाने को, अब इस बार कांग्रेस के भ्रष्टाचार के दाग धूल गए हैं,  बढेरा, शीला दीक्षित सब अब सुधर गए हैं और वही सब लाँछन अब भाजपा में आ गये हैं और कांग्रेस ही, लालू और अन्य गठबन्धन के नेता ही देश को भाजपा से बचा सकते हैं - सारा चुनावी बाजार गिरगिटों से भर गया है जहाँ हर कोई मुद्दों से भटक कर जनता को और ज्यादा कंफ्यूज कर रहे हैं।




चुनावी गणित में शाह ने लोकल लीडरशिप और जमीन से जुड़े होने के भाजपा के मूल को इस चुनाव में झकझोरा है और ये समय ही बतायेगा अगर ये प्रयोग सफल होता है या फिर मोदी पर फोकस और कैंडिडेट पर ignorance और अनभिग्यता फिर से देश को सशक्त सरकार देने में कामयाब होती है।   अगर भाजपा की सरकार नहीं बनी तो खिचड़ी सरकार बनेगी जो देश को कई साल पीछे ले जा सकती है क्यूंकि कांग्रेस को अपना संघठन खड़ा करने  के लिए अभी बहुत वक्त और मेहनत लगेगी,  इस बार वो केवल और केवल समीकरण ही ख़राब कर सकते हैं।  चुनावी गणित और लोकल लीडरशिप के मुद्दे से छेड़छाड़ की बात की जाए तो कुछ उदहारण मध्य प्रदेश और उत्तरप्रदेश से ले सकते हैं, खजुराहो बी. डी. शर्मा जी को भेजा गया है वो मुरैना के रहने वाले हैं और मुझे नहीं पता की खजुराहो या उस क्षेत्र से उनका क्या लेना देना है।  नरेंद्र सिंह तोमर जो ग्वालियर के रहने वाले हैं, २००९ में मुरैना से जीते, कोई काम नहीं कराया तो २०१४ में ग्वालियर से चुनाव लड़ाया और दोनों साल २००९ और २०१४ में जीते, जमीन से जुड़े नेता  हैं पर काम करना नहीं आता , मेरे हिसाब से उन्होंने ग्वलियर  और मुरैना दोनों जगह कोई काम नहीं किया या कोई  extraordinary initiative  नहीं लिया, हाँ संघठन का अच्छा काम करते हैं, उनको फिर से मुरैना भेज दिया गया , ये अच्छा प्रयोग है की ५ साल बाद सीट चेंज कर लो, लोगों की याददाश्त तो कमजोर होती है।  भदोही और बेगूसराय हो,  या फिर भोपाल हर जगह नए प्रयोग किये गए हैं, ये समय के गर्त में है कि  सिर्फ गणित बिना प्लानिंग और चुस्त दुरश्त कैंपेनिंग के कैसे २०१४ को दुहरा सकता है!  कैंडिडेट लेट घोषित होने से भाजपा की कोशिश है की लोगों का ध्यान कैंडिडेट से हटकर सिर्फ और सिर्फ मोदी पर रहे, ये किसी रिसर्च का रिजल्ट हो सकता है या चुनावी स्ट्रैटेजिस्ट का कोई स्ट्रेटेजी पर इससे कैंडिडेट को चुनावी तैयारी  में  समय की कमी से चुनाव के उत्साह में कमी आती है और वही शायद देखने में आ रहा है।

उत्तर भारत में वोटों का प्रतिशत चुनावी गहमागहमी में उत्साह की कमी को दिखाता है और कहीं न कहीं २००४ के (भाजपा के) ओवर कॉन्फिडेंस एवं २००९ के नीरस चुनाव प्रचार की याद दिलाता है, कहीं ये सब एक खिचड़ी सरकार की भूमिका तो नहीं बना रहा जो देश की प्रगति और विकास में रोड़ा बनकर हमें पीछे ना धकेल दे।  सबको वोट करना होगा और सभी दलों  को चुनाव प्रचार, भाषणों में थोड़ा और उत्साह दिखाना होगा।  मुद्दों पर और बात होनी चाहिए , बहस और तीव्र और तीखी होनी चाहिए , हमें चुनाव को एक उत्सव का रूप देना चाहिये।  

जय हिन्द।  वन्दे मातरम्।  

शुक्रवार, 11 अप्रैल 2014

राजनीतिक निराशा


बुधवार, 13 फ़रवरी 2013

तलाश एक खोये हुये सपने की…

 

16-17 दिसम्बर २०१२ को पूरा भारत देश अपनी बेटी के साथ हुए जघन्य अपराध के लिए आक्रोश में था,  पूरा देश प्रदर्शनों के जरिये अपने आक्रोश का इजहार करते हुए अपराधियों के लिए कड़ी से कड़ी सजा के लिए एक स्वर में खड़ा दिखाई दिया|  एक पिता ने बिना किसी भेदभाव के उच्च शिक्षा के लिए हर सुविधा मुहैया कराई, एक सपने की नीव बुनी, लडकी ने भी मेहनत से अपने पिता के विश्वास को एक बल दिया| पर एक भयावह रात में कुछ दरिंदों ने उस सपने को चकनाचूर कर दिया, रही सही कसर समाज ने - हम सब ने, पुलिस ने अपने लचर रवैये से पूरी करी, हम सब कहीं न कहीं इस वीभत्स कृत्य में जिम्मेदार थे|

हमारी असंवेदनशीलता और सब कुछ जल्दी ही भूल जाने की प्रवृत्ति ने समाज में कुकुरमुत्तों की तरह अपराधभाव को पनपने का मौका दिया है!  “सब चलता है!”, “ हम क्या कर सकते है!”  इस तरह के मनोभाव ने हमें एक तरह से अपराध का सरंक्षण दाता बना दिया है|

ऐसे कई माता पिता हमारे आसपास मिल जायेंगे, जिनके सपने समाज के अद्रश्य अपराध के चलते अचानक से बिखर गए और ये समाज, रिश्तेदार, पुलिश प्रसाशन, सरकारों ने ना तो उन सपनों के टूटने के परवाह करी और ना ही किसी ने उन माँ बाप की कोई सहायता की|  ऐसे पारिवार वालो के लिए जिंदगी एक अभिशाप बनकर रह जाती है

२६ मई २०१२ को भी एक ऐसा ही सपना दिल्ली में टूटा| मध्यप्रदेश के एक गाँव में एक परिवार खेती करके अपना जीवनयापन कर रहा है, बढते परिवार,  बढ़ते खर्चे पर कम होता उत्पादन और कम होता खेतों का क्षेत्रपल - ये सब हर भारत के हर गाँव की दास्ताँ है| पर फिर भी कुछ माँ बाप एक एक पैसा जमा करके अपने बच्चों को शिक्षा प्रदान करने की हर सुविधा मुहैया कराते है, जिससे आगे जाकर वो बच्चे उस गाँव से बाहर निकल कर अपने पैरों पर खड़े हो सकें और अपने परिवार को कुछ आर्थिक मदद दे सकें और अपने लिए भी नए आयाम तय कर सकें|  धर्मेन्द्र के घरवालो का भी कुछ ऐसा ही सपना था,  धर्मेद्र बचपन से ही पढ़ने में बहुत होशियार था, जब बड़ा हुआ तो जिले के आदर्श स्कूल में उसको एडमिसन मिला, परिवार को एक रोशनी की किरण दिखाई दी, सपनों की मंजिल कुछ पास सी दिखाई देने लगी|  पिता ने अपने आप को खेतों में लगाए रखा जिससे १ हजार महीने का खर्चा पूरा कर सके,  ये रकम भी बहुत बड़ी रकम थी उनके लिए, पर फिर भी एक आशा थी कि ये पैसा सही दिशा में लग रहा है|  जब कॉलेज की बात आई तो उसको BCA में एडमिसन मिला, मेहनत और जिम्मेदारी से तीन साल का कोर्स पूरा किया, अब आगे पढाने की हिम्मत नहीं थी घरवालो की,  तो धर्मेन्द्र ने दिल्ली जाकर नौकरी देखना शुरू किया और जल्दी ही उसको एक प्राईवेट कंपनी में नौकरी मिल गयी| दिल्ली आकर वह अपने कुछ दोस्तों के साथ रहने लगा और जॉब करने लगा|  घरवालो के सपने पूरे हुए, इससे ज्यादा और उनको भगवन क्या देता, अब तो उसके रिश्ते भी आने लगे थे| इसी तरह शायद उसको दिल्ली में दो साल बीत गये होंगे, भारत की प्रगति में एक सपना साकार हो रहा था|

फिर एक भयावह शाम आई, २६ मई २०१२ की शाम को वह अपने फ्लैट से निकला तो फिर कभी वापस नहीं आया, दिल्ली के अँधेरे में पता नहीं कहाँ खो गया, कौन ले गया, क्या कारण थे, क्या किया उसका, कुछ पता नहीं| एक गाँव का गरीब पिता दिल्ली में कैसे और क्या करता अपने बेटे की तलाश के लिए?  पुलिस के हिसाब से ये तो नोर्मल केस है और ऐसा तो होता रहता है,  पुलिस ने कभी कोई जिम्मेदारी और गम्भीरता इस मामले में नहीं दिखाई, ये लोग दिल्ली की दीवारों पर पोस्टर चिपकाते रहे, और अगर पुलिस को कोई भी क्लू देते तो दिल्ली पुलिस उलटे विक्टिम के घरवालों को ही बाकी की सूचना लाने के लिए कहते, उलटे दिल्ली पुलिस धर्मेन्द्र के परिवार वालों से प्रश्न पूछती कि कुछ सुराग लगा क्या| पुलिस का रवैया बहुत ही निराशाजनक और गैर जिम्मेदाराना रहा, उन्होंने कोई सहायता अपनी तरफ से नहीं करी, बस मूकदर्शक बनकर मामले को टालते रहे और वो इसमें सफल भी रहे, मामला रफादफा हो चुका है और जाने वाला अभी तक वापस नहीं आया|

सरकार तक गरीब की आवाज तो पहुँचना एक असम्भव सा ही काम है, घरवालों ने, रिश्तेदारों ने और दोस्तों ने बहुत हाथ पैर मारे पर कुछ पता नहीं चला उसका,  माँ ने खाट पकड़ ली और पिता इस तुषारापात से निशब्द हो गया, सपने धराशायीधर्मेन्द्र की गुमशुदी की जानकारी हो गए और आँशु भी बह बह कर कम से पड़ गए पर जाने वाला कभी वापस ना आया| अब तो घर में और पड़ोस में शहनाई की आवाजें फिर से आने लगी हैं, तब से कई मौसम बदल गए और बदलते मौसमों के साथ सब भूल से गए है उसके अस्तित्व को भी,  पर माँ अभी भी उस खाट पर पड़ी हुई आज भी टकटकी लगाये हुए है कि बस कोई कह दे कि पता चल गया है|  पुलिस से ज्यादा विश्वाश गांव में माता की चौकी और ज्योतिषी जैसे अंधविश्वासों पर होता है (इसकी भी एक वजह प्रशासन से कोई आशा न होना है, जबाब नहीं मिलना है, आदमी वहीँ जाता है जहाँ उसे कुछ रौशनी दिखती है) , सैकड़ो सिद्ध पुरुष आजमा लिए, सबकी चुनौतियाँ और भविष्यवाणियाँ महीने दर महीने झूठी पड़ती रहीं पर वो नहीं आया|  अब भी इन्तजार है, आशा है कि वो आएगा जल्दी ही….

दिल्ली से गायब हुए बच्चों का एक लेखा-जोखा  एक रिपोर्ट के अनुसार १३ बच्चे औसतन दिल्ली से रोज गायब हो जाते हैं (देखिये दायीं तरफ की टेबल में),  ज्यादा से ज्यादा मामलों में FIR ही दर्ज नहीं होती|

इंडियन एक्सप्रेस में २९ अगस्त २००८ को छपी रिपोर्ट के अनुसार २६ हजार लोग दिल्ली पुलिस के रिकॉर्ड के अनुसार दिल्ली से गुमशुदा हैं और दिल्ली पुलिस को कोई सुराग नहीं है| एक और रिपोर्ट के अनुसार भारत से हर आठ मिनट में एक बच्चा गायब हो जाता है,  वर्ष २००८ और २०१० के बीच  १.७ लाख बच्चों के खोने की FIR दर्ज की गयी थी, इस हिसाब से यह समस्या बहुत गंभीर है क्यूंकि ये गायब हुए लोग अपराधिक और असामाजिक कामों में उनकी मर्जी के खिलाफ उनको ब्लेकमेल करके लगा दिए जाते हैं| राज्यसभा में एक प्रश्न के जबाब में गृह राज्य मंत्री जीतेन्द्र प्रसाद ने बताया कि ६० हजार बच्चे २०११ में २८ राज्यों और केंद्रशाषित प्रदेशों से खोये थे, उनमें से २८ हजार अभी तक नहीं मिले हैं. ये सारे आंकड़े दर्ज की हुई FIR के अनुसार हैं - बहुत सारे मामलों में पुलिस FIR दर्ज नहीं करती या फिर लोग पुलिस के पास नहीं जात |  

तहलका डॉट काम पर एक लेख के अनुसार पुलिस की ऐसे केसों में मंशा और गम्भीरता कुछ ऐसे बयां की गयी है : “It starts with how the investigation is done. Very often, First Information Reports are not registered; just an entry is made into a list of missing persons at the police station, and a photograph of missing child sent across city police stations. Cases are only investigated if the person reporting the missing child files a case of kidnapping.”

ऐसे कितने केस होते है दिल्ली में, क्या कोई चैनल इस पर केस स्टडी नहीं कर सकता? क्या कोई इस बारे में पहल नहीं कर सकता?  मैंने इस दिशा में कोशिश करने की ठानी है और उस परिवार को एक एक आशा देने की सोची है और आशा है कि बहुत सारे लोग आगे आकार इस गरीब के, एक गाँव के केस को भी आगे बढाएंगे|  आप में से कुछ लोग प्रिंट मीडिया में है, तो इस स्टोरी को छापें और उस गाँव में जाकर उस परिवार की आपबीती को लोगों तक पहुँचायें, शायद वो हो कहीं और उस पर इसका असर हो| अगर आप पुलिस में है तो अपने लेवल पर हर सम्भव प्रयास करें, टीवी में है तो फिर तो आपके पास इससे अच्छी स्टोरी और क्या हो सकती है ?  और शायद इस बहाने हम एक सपने को भी पुनर्जीवित कर सकें !!!

 

सोमवार, 5 मार्च 2012

भोपाल गैस त्रासदी का हिसाब अभी बकाया है

लन्दन ओलम्पिक के लिए हर जगह तैयारियाँ हो रही है, विश्व का हर देश और हर देश का प्रत्येक खिलाडी अपने हुनर दिखाने के लिए तत्पर हैं और जिस तरह से आज हम देशीय सीमाओं से आगे बढ़ चुके है हर देश के बड़े से बड़े उद्योग घराने भी इस महाखेल में अपने अपने हाथ आजमाने के लिए आतुर हैं, उन पर भूत सवार है कि कैसे विश्व के ७ बिलियन लोगों तक वो अपने ब्रांड का नाम पहुंचा सकें.

जैसे हर देश के खिलाडी को कुछ मापदंडों पर खरा उतरने के बाद ही इस महाखेल में खेलने कि इजाजत दी जाती है, वैसे ही क्या ओलम्पिक संघ को प्रायोजक चुनते समय कुछ मापदंडों अपनाने की सख्त जरूरत नहीं है ? यह सवाल मेरे मन में कई दिनों  से उठ रहा है, शायद हर भारतीय के मन में ये सवाल आ रहा है क्यूंकि Dow Chemical जैसी दागदार कंपनी को भी प्रायोजक बना लिया गया है, ये वही कंपनी है जिसने  भोपाल में नरसंहार की जिम्मेदार यूनियन कार्बाइड को ख़रीदा था. कैसे कोई १९८४ के वो वीभत्स दिन भूल सकता है जब एक कंपनी के गैर जिम्मेदाराना  रवैये के चलते हजारों लोग मारे गए और कई अनगिनत जिंदगी भर के लिए अपंग हो गए.  कभी भी उस घटना की जिम्मेदारी यूनियन कार्बाइड  ने अपने सर पर नहीं ली और उसका कोई भी बड़ा अधिकारी सजा नहीं पा सका.  ये घटना अमेरिका के ९/११ और जापान के हिरोशिमा और नागासाकी से कम नहीं थी - पर फिर भी अपराधी खुले हाथ इज्जत के साथ घूम रहा है, क्या ये उचित समय नहीं जब हम लन्दन ओलम्पिक संघ से इसके विरोध की बात करें.

हमारी सरकार तो हमेशा से ही अपराधियों की शरणगाह रही है और इसका अपराधबोध हमारी सरकारों को पिछले ६० सालों में एक बार भी नहीं हुआ, तो क्या उम्मीद कि जा सकती है पर फिर भी जनता ने अपनी आवाज के बल पर कई लड़ाईयां जीतीं है और शायद social network के जरिये इस लड़ाई में भी जनता को आगे आकर अपना स्वर बुलंद करना होगा जिससे Dow Chemical  को भी भोपाल की घुटन का कुछ तो अहसास हो!

अगर आप भी मुझसे सहमत हैं और अपनी आवाज Dow Chemical   के विरोध में दर्ज करना चाहते हैं और लन्दन ओलम्पिक कमेटी तक अपने विरोध का स्वर पहुँचाना चाहते हैं तो आईये मेरे साथ इस लड़ाई में, मुझे और आपको संगठित होने की जरूरत है. इस कार्य हेतु मैंने एक ग्रुप (समूह) फेसबुक पर बनाया है -

https://www.facebook.com/groups/352198654803472/

आप सब इसको ज्वाइन करें और मुझे सलाह प्रदान करें कि कैसे ये लड़ाई और बेहतर तरीके से लड़ी जा सकती है !!

मेरे हिसाब से कुछ प्रयास जो इस दिशा में हम कर सकते हैं :

१. ज्यादा से ज्यादा लोगों को इस अभियान में शामिल कर सकते हैं और जागरूकता अभियान चला सकते हैं

२. निम्नलिखित व्यक्तियों/समूहों को पत्र भेजकर अपना विरोध दर्ज कर सकते है

>. खेल मंत्री  - भारत सरकार एवं यु के

>  प्रधानमंत्री  - भारत एवं यु के

>  भारतीय ओलम्पिक संघ

> लन्दन ओलम्पिक कमेटी

> Dow Chemical  management

रविवार, 5 दिसंबर 2010

वर्तमान समय में नैतिक मूल्यों की आवश्यकता

यह पोस्ट मेरे पिताजी की अतिथीय पोस्ट है !

आज प्रतिदिन देखने में, सुनने में, समाचार पत्रों में पढने से यह अनुभव हो रहा है कि आज मंत्री से लेकर IAS अधिकारी भ्रष्टाचार में डूबे हुए हैं,  भ्रष्टाचार के कारण संसद नहीं चल पा रही है. अभी दूरसंचार मंत्रालय में अरबों रुपये के घोटाले का पता चला है जो एक वर्ष का रक्षा बजट होता था.  अभी कुछ माह पहले अरविन्द जोशी दम्पत्ति के यहाँ घर पर करोड़ों रुपये बिस्तर में छिपे पाए गए ! कारण स्पष्ट है कि भौतिकता की चकाचौंध में नैतिक मूल्यों में गिरावट आती जा रही है.

लालबहादुर शास्त्री, अटल जी ऐसे नेता थे जो नैतिक मूल्यों को महत्व देते थे आज अन्तरात्मा की आवाज न सुनकर केवल भौतिक सुविधाओं की ओर ध्यान दिया जा रहा है.

हर खाद्य पदार्थ जैसे बेसन, दाल, मिर्च, घी, खोया, तेल में मिलावट ही आ रही है. व्यापारी वर्ग अत्यधिक मुनाफे के प्रलोभन में नैतिक मूल्यों को तिलांजलि दे रहा है.

आज नैतिक मूल्यों के अभाव में परिवार टूट रहे हैं, अपने स्वयं के बच्चे, पत्नी के अलावा अन्य सदस्यों पर ध्यान न दिया जा रहा है. पहले नैतिक मूल्यों के कारण संयुक्त परिवार में सभी परिवार के सदस्य इकट्ठे रहते थे.

आध्यात्मिकता का अर्थ किसी विशेष सम्प्रदाय से नहीं है, आध्यात्मिकता का अर्थ है अपनी अन्तरात्मा की आवाज के अनुसार कर्त्तव्य पालन करना !  गांधीजी ने जीवन भर नैतिक मूल्यों को अपने जीवन में स्थान दिया, वे हर कार्य अपनी अंतरात्मा की आवाज (नैतिक मूल्यों) के अनुसार करते थे. 

यदि जीवन में उच्च आदर्शों, नैतिक मूल्यों को महत्व दिया जाय तो परिवार से लेकर समाज एवं समाज से लेकर राष्ट्र हर क्षेत्र में चहुँमुखी विकास कर सकता है. आज न्यायालय भी नैतिक मूल्यों के अभाव में सही निर्णय देने में असमर्थ होते जा रहे हैं.

नैतिक मूल्यों के अभाव के कारण व्यक्ति के चरित्र में गिरावट आती जा रही है, आज अपराधों का ग्राफ हर वर्ष बढता जा रहा है. चोरी, डकैती, बलात्कार, हत्याएं इसलिए हो रही हैं कि व्यक्ति स्वयं के जीवन में उच्च आदर्शों, नैतिक मूल्यों को जीवन में स्थान न दे पा रहा है.    इसलिए बच्चों को आज अच्छे संस्कारों की नितान्त आवश्यकता है, हम अपने चरित्र से, व्यवहार से बच्चों के सामने नैतिक मूल्यों के उदाहरण प्रस्तुत करें.

आज के बच्चे ही कल के भविष्य हैं, अतः शिक्षा के साथ साथ नैतिक मूल्यों को जीवन में स्थान दें, हम हर कार्य अपनी अंतरात्मा एवं उच्च आदर्शों को ध्यान में रखकर करें.  परिवार बच्चों की प्रथम पाठशाला है अतः हर माता पिता को स्वयं का आचरण शुद्ध सरल-पवित्र, मर्यादापूर्ण रखना चाहिए. आज जो संस्कार बच्चों में स्थापित होंगे वो ही आगे चलकर देश और समाज के, परिवार के विकास में सहायक होंगे.

ईमानदारी, सत्यता, विवेक, करुना, प्रलोभनों से दूर रहना, पवित्रता ये नैतिक मूल्यों के आदर्श तत्व हैं, इन आदर्श तत्वों (सिद्धांतों) से जीवन में आध्यात्मिकता का जन्म होता है.  एक आदर्श परिवार या देश के संचालन हेतु परिवार के सभी सदस्यों, या देश के सभी नागरिकों में शिष्टाचार, सदाचार, त्याग, मर्यादा, अनुशासन, परिश्रम की आवश्यकता है. यदि जीवन में शिष्टाचार, सदाचार, अनुशासन, मर्यादा है तो परिवार और देश में शांति रहेगी.  यदि परिवार या राष्ट्र में स्वार्थ लोलुपता, पद लोलुपता बनी रहेगी तो परिवार भी टूटेगा, राष्ट्र भी  भ्रष्टाचार से प्रदूषित होता रहेगा.   इसलिए अहंभाव त्यागकर, स्वार्थ त्यागकर,  प्रलोभनों से दूर रहकर अपने व्यक्तिगत जीवन में विनम्रता, त्याग, परोपकार को जीवन में स्थान देना होगा तभी हम एक आदर्श परिवार का सृजन कर सकते हैं, एक आदर्श और खुशहाल राष्ट्र का स्वप्न साकार कर सकते हैं.

कन्फ्यूशियस के अनुसार - “यदि आपका चरित्र अच्छा है तो आपके परिवार में शांति रहेगी, यदि आपके परिवार में शांति रहेगी तो समाज में शांति रहेगी, यदि समाज में शांति रहेगी तो राष्ट्र में शांति रहेगी"

रविवार, 28 नवंबर 2010

धोबी का कुत्ता घर का न घाट का

confused-monkey1 बाईक चलाना तो जैसे भूल ही गया हूँ, क्लिच के साथ गियर पर नियंत्रण और इधर उधर से रेंडम क्रम में आने वाले व्यक्तियों और वाहनों की कस्साकस्सी में मैं जैसे फिर से शहर के लिए गांव से आने वाला एक सीधा साधा इन्सान बन गया हूँ, मेरे छोटे भाई मुझे बाईक पर बैठने नहीं देते कि कहीं मैं हाथ - पैर ना तोड़ लूं !   इतना बुरा भी नहीं चलाता पर लोगों की फीडबैक ऐसी है कि कोई सुन ले तो साथ पीछे बैठेगा ही नहीं, अर्धांगिनी तो पहले ही हाथ जोड़ बैठी कि हम तो ऑटो कर लेंगे … पर फिर भी मन है कि खुद को सर्वश्रेष्ठ मानता है, लगता है थोड़े प्रयास और भरसक अभ्यास की जरूरत है. 

कार चलाना में भी वही संघर्ष, यहाँ भी क्लिच और गियर का मिश्रण और ऊपर से बाजारों की भीड़ मुझे अनियंत्रित सा कर देती है, भले ही अमेरिका और जर्मनी में गाडी की गति उड़न खटोले जैसी करके फिर भी नियंत्रण संभव है पर यहाँ वही हाथ डगमगा रहे हैं, सुविधा ने संघर्ष को मात दे दी और हम कुछ ज्यादा ही सरल जीवन जीने के आदी हो गए हैं,  बाथरूम में से बदबू आती है तो धूल से छींक ही छींक - जैसे हम अपने ही घर में बेगाने से हो गए !  इस कहते हैं कि धोबी का कुत्ता न तो अब घर का रहने वाला है और न घाट का…अमेरिका में भारतीय जीवन जीते हैं और भारत में आकर जैसे स्पीड में कही पिछड़ रहे होते हैं,  यहाँ आकर हर मोड पर मेरा और सबका बहाना होता है कि अब वो यहाँ नहीं रहते ना, तो आदत नहीं रही !!

ट्रेन और बस में धक्कामुक्की है पर अगले ही पल बातों में अपनापन लिए पुरानी सौंधी खुशबू लिए प्रेम झलक पड़ता है.  सकल घेरलू उत्पाद की दर का प्रभाव लोगों के जीवन पर भी प्रतिलक्षित होता दिखता है, सब लोग व्यस्त है, बच्चे स्कूल के बोझ से पस्त हैं और हर कोई आगे बढ़ने की होड़ में मस्त है, हर हाथ की उँगलियाँ मोबाइल के पैड पर हैं, और शहरों के बाजारों की गलियाँ विदेशी रंग में रंगने के लिए उतावली हैं,  देश परिवर्तन के लिए तेजी से आगे बढ़ रहा है और कहीं  न कहीं मौलिकता बाजारू और दिखावे का साधन मात्र होकर रह गयी है, मैं स्तब्ध सा खड़ा मंहगी होती चीजों को बस निहारता रहता हूँ, खुद को गरीब अनुभव करता हूँ और असमर्थ भी यहाँ के बाजारों में !  इतनी महँगाई अगर प्रगति के साथ गेहूं के साथ खरपतवार की तरह आती रही तो क्या एक दिन ये देश बंजर नहीं हो जाएगा ? 

250px-Swami_haridas_TANSEN_akbar_minature-painting_Rajasthan_c1750_crpकल दैनिक भास्कर समाचार पत्र में एक समाचार था,  तानसेन समारोह जल्द ही ग्वालियर में शुरू होने वाला है,  हर साल दिसंबर में ये समारोह होता है. अकबर के नवरत्नों में से एक तानसेन जी ग्वालियर के पास ४० कि मी दूर बेहट नामक गाँव में जन्मे थे और समाचार पत्र के अनुसार इस गाँव का बच्चा बच्चा ध्रुपद गायन जानता है, ये कला उनके खून में बसती है,   250px-Tomb_of_Tansenपर सरकार की और से आज तक ना तो बेहट के लिए और ना ही इस गाँव के लोगों की कला को आगे लाने के लिए कुछ किया है ! मैं शिवराज सरकार और भाजपा से निवेदन करूँगा कि इस और कुछ ध्यान दें !    हो सकता है कि तानसेन समारोह को भी ग्वालियर से बेहट में ले जाकर इस स्थान पर एक उत्साह पैदा करे !!

ब्लॉग्गिंग से कमाया धन

हिन्दी ब्लॉग्गिंग विधा ने एक वातावरण पैदा किया है जहाँ पर कई ब्लॉगर एक परिवार की तरह एक दूसरे के दुःख सुख और वैचारिक आदान प्रदान में शामिल है.  कुछ लोग ब्लॉग्गिंग से धन कमाने की अपेक्षा करते हैं तो कुछ देश सुधार की !  मुझे लगता है कि हिन्दी ब्लोगिंग से कुछ तो सार्थक हुआ है :

१. एक अमूल्य धन की कमाई जिसमें कई अनजान लोग विचारों के आदान प्रदान से एक दूसरे के नजदीक आये, घनिष्ठ मित्र बने.

२. हिन्दी का एक तरह से विकास हुआ है, हिन्दी में लेखन से इन्टरनेट पर हिन्दी में उपलब्ध सामग्री की प्रचुरता बढ़ी है

३. जिन लोगों की हिन्दी लेखन में रूचि थी उनको एक वातावरण मिला है, प्रोत्साहन मिला है, रूचि जागी है और प्रतिस्पर्धा ने कई लोगों में लिखने और पढने का जुनून पैदा किया है

मेरी इस बार की भारत यात्रा का एक पहलू ब्लॉग्गिंग मित्रों से मिलना भी था, अब तक फोन पर कई मित्रों से बात हुई और हर एक से आत्मीयता भरे सम्बन्ध ही बने हैं,  मैं पहली बार किसी ब्लॉगर से मिला था २००९ में, तब मैं मुरैना निवासी भुवनेश शर्मा से मिला था,  भुवनेश से बात करना और उनके लेखो को पढना दोनों से ही मुझे कुछ न कुछ सीखने को मिलता था और जब मिला तो और भी अच्छा लगा, कल वो फिर मिलने ग्वालियर आये और घंटो हम बात करते रहे, कई विषयों पर ! कल उन्होंने माननीय दिनेशराय द्विवेदी से भी फोन पर बात कराई, द्विवेदी जी के ब्लॉग पर मेरा तो नियमित जाना बना रहता है पर बात करके और भी ज्यादा अच्छा लगा ! 

इसी तरह प्रवीण पाण्डेय के हिन्दी लेखन का में बड़ा प्रशंशक हूँ,  एक-दो बार फोन पर अल्प समय के लिए बात हुई है !   समीर लाल से कनाडा में हुई मुलाकात ने एक और घनिष्ट मित्र दिया तो पाबला जी, बिल्लोरे जी, महफूज मियां इन सबसे बात करके भी इनको और नजदीकी से जानने का मौका मिला !  रवींद्र प्रभात,  राज भाटिया जी, जय झा  से भी फोन पर बात हुई है और शायद ये सिलसिला चलता रहेगा ! अर्चना चाव जी, और अजित गुप्ता जी से भी बात करके आशीर्वाद लिया है.  अनूप शुक्ल जी,  शिखा जी, अभिषेक झा, अजय झा और अन्य लोगों से भी चेट पर बात होती रहती है.

इसी सिलसिले को आगे बढ़ाया इस शुक्रवार को ललित जी और खुशदीप जी ने,  एक संकट मोचक की तरह निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन पर एक आत्मीय मुलाकात ने मुझे दो और मित्र दिए.  दिल्ली महानगर में वर्किंग डे के दिन सुबह ८ बजे स्टेशन कौन आ सकता है, पर हमारे देश भावना प्रधान है जहाँ आलस या फिर और विकार भावों के सामने हावी नहीं रह पाते !   मेरे पास कुल मिलाकर छोटे से लेकर बड़े तक १० बैग थे और दो बच्चे :)  …कुली सामान को स्टेशन के बाहर से प्लेटफोर्म पर रखकर जा चुका था और जब गाडी आकर लग गयी तो फिर जद्दोजहद थी की कैसे सामान को अंदर रखा जाय, किसी एक को बाहर रखवाली भी करनी थी, पर समय बहुत था – लगभग ३५ मिनट तो सोचा कि धीरे धीरे खुद ही चढाते हैं पर तभी दो संकटमोचक मित्र उस समय आते हैं और सब काम एक मिनट में हो जाता है, बच्चे भी खुश हो गए और फिर बातों का सिलसिला ऐसा चला कि लगभग २५ घंटे की थकान कब दूर हो गयी - पता ही नहीं चला - बातों में ऐसे मग्न हुए कि ट्रेन जब चलने लगी तब मैं भागते भागते चढा !

कौन कहता है कि ब्लॉग्गिंग से कमाई नहीं होती :)

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