बड़े बड़े शहरों में कुछ हो न हो, गगनचुम्बी अट्टालिकायें जरूर होती है जो कि सैकड़ो लोगों के लिए रोजगार के साधन के साथ साथ वहाँ के पर्यटन का भी एक आकर्षण बन जाती हैं, इनमें से सबसे ऊँची इमारत को सामान्यतः धरोहर का दर्जा दे दिया जाता है।
एम्पायर स्टेट बिल्डिंग भी इसी श्रेणी में आती है, ये इस समय न्यूयार्क की सबसे ऊँची इमारत है, लगभग ३५ लाख लोग एक साल में इसकी सैर करते हैं, इसकी छत से रात के समय न्यूयार्क ऐसा लगता है जैसे आसमान में सितारे चमक रहे हों, जहाँ तक आपकी नजर जायेगी वहाँ तक आपको रंगबिरंगी चमकती रोशनी की प्रतिछाया ही नजर आएगी। यहाँ हर कोई बात करता है ऊर्जा बचाने और प्रदूषण कम करने की - पर अनन्त तक फैली असीमित रोशनी तो शायद ऐसा बयां नहीं करती।
रात के समय चाहे मैं पेरिस में आइफल टावर पर था, या फिर शिकागो में सीयर्स या फिर जॉन हैनकोक इमारत की छत पर - दूर दूर तक फैले शहर और जगमग रोशनी के अलावा और क्या दिखेगा, पर इन शहरों में और रखा भी क्या है देखने - शिवाय इस चमक दमक के - फिर औपचारिकता भी होती है शहर को नापने की परिभाषा में इन सबको एक बार छूने और वहाँ फोटो खिचाने की !! हम भी वही करने निकले थे दो बच्चो के साथ - ये गौर करने लायक बात है क्यूंकि इन इमारतों पर जाना इतना आसान नहीं, टिकट से लेकर एअरपोर्ट जैसी सुरक्षा जांच से गुजरने तक और फिर लिफ्ट के अंदर जाने कि पंक्ति तक - लगभग २ घंठे तो लग जाना सामान्य बात है।
रात के २ बजे तक खुला था ये टॉवर लोगों के स्वागत के लिए और जब १० बजे हम बाहर निकले तब सड़क तक लंबी लाइन थी, लोग क्या कहूँ क्रेजी थे अंदर जाने के लिए - ये बात सप्ताहांत की नहीं बल्कि बुधवार की है, वीक एंड में तो और भी बुरा हाल होता है, यहीं पुराने अनुभव का लाभ लिया गया और वर्किंग डे में जाया गया - शर्म आती है कि बारबार अंग्रेजी के शब्दों से हिंदी के शब्द याद करता हूँ और कभी कभी अंग्रेजी के ही शब्द लिखने पड़ते हैं जब में नहीं ढूँढ पाता उपयुक्त शब्द ! पर खैर इतना भी हटधर्मिता क्या कि हम अंगरेजी के शब्द उपयोग न करें, बस इस अंग्रेजी के चक्कर में हिंदी को भूल ना जायें, असी लक्ष्मण रेखा खींचनी होगी।
हम शायद ८६वें माले पर थे जब एलिवेटर ने कुछ ही सेकंड्स में हमें धरातल से छत पर ला पटका - कुछ बाते नोट करी इस दरम्यान -
१ साल और ४५ दिन इस गगनचुम्बी इमारत को बनाने में लगे - इस हिसाब से इसकी निर्माण दर एक सप्ताह में थी ४.५ माले !! |
६० हजार टन स्टील , एक हजार मील जितनी लंबी टेलीफोन केबल, १२० मील लंबे पाईप, ६५०० खिड़कियाँ, ७३ लिफ्ट जो कि ४२७ मीटर एक मिनट में तय करते हैं |
इसको बनाने मे लगभग ५० मिलियन डॉलर का खर्चा आया, पर इसके पुनर्निमाण (renovation) में अब तक १०० मिलियन डॉलर खर्च हो चुके हैं |
इसने २.६६ एकड़ जमीन घेरी हुई है |
नवम्बर ३०, १९३० में ये विश्व की सबसे ऊँची इमारत के रूप में दर्ज की गयी थी, इसी साल ये बनकर तैयार हुई ! |
जब हम रास्ते में थे तो एक महाशय मिले, जैसे अन्तर्यामी हों - हमारी पलटन को देखकर बोले कि क्या आप एम्पायर स्टेट बिल्डिंग की तरफ जा रहे हैं, हम उसको ज्यादा भाव नहीं दे रहे थे पर फिर भी महाशय पीछे पड़े थे, ९६ डॉलर में हम दम्पत्ति को किसी एक्सप्रेस लाइन से ऊपर भेजने का ऑफर दे रहे थे, मुश्किल से पीछे छुड़ाया कि भाई किसी और को देखो - हमें हमारा रास्ता नापने दो अपनी दर से ! गले में पट्टा भी डाल रखा था कुछ। पर, किसी भी कोण से या उस उस पट्टे से अधिकारिक एजेंट नहीं लग रहा था, वहाँ जाकर देखा तो २० डॉलर में ही एक आदमी का टिकट था, इस हिसाब से हम ४० डॉलर में ही निबट लिए। हर जगह हर तरह के लोग होते हैं - ये कहना कि ऐसा भारत में ही होता है गलत है - जहाँ भी मांग ज्यादा और चीजें कम होंगी वहाँ अव्यवस्था होती ही है - इसलिए न्यूयार्क में भी हर जगह भारत कि अव्यवस्थाओं का आभास होता रहता है। पेरिस में आइफल टावर के पास भी आपको अपनी जेबें संभाल कर रखनी होती हैं। ये था अमेरिकन भाई !
वापस लौटते समय ट्रेन में बगल में एक भारतीय परिवार बैठा था, लग रहा था कि एक महाशय के माता पिता भारत से आये हुए थे और वो उनको घुमाने जर्सी सिटी से न्यू यार्क आये हुए थे, जर्सी सिटी को दिल्ली का नॉएडा या गुडगाँव मान लिया जाये यहाँ पर। इस ट्रेन में बमुश्किल आप ५ से १५ तक बैठते हैं - ज्यादा से ज्यादा एक छोर से दूसरे छोर तक २० मिनट - इसलिए खाना पीना या गन्दगी करना मना होता है , इतना समय भी नहीं होता कि आप खाना खत्म कर सकें - जल्दी से आपका गंतव्य स्थान आ जाता है , ये परिवार जैसे ही ट्रेन में बैठा अपने पिज्जा, सैंडविच जो भी था - सब खोलकर बैठ गये। सब देखकर यही सोच रहे होंगे कि ये भारतीय लोग भी हर जगह गन्दगी करने बैठ जाते है। मेरे हिसाब से ये देश के ऊपर नहीं व्यक्ति विशेष कि मानसिकता और परिस्थिति के ऊपर निर्भर करता है - नहीं तो ऊपर वाला अमेरिकन उदहारण ऐसे लोग पढ़ ले - खैर जो भी था ये परिवार भी गलत ही कर रहा था - ७-८ मिनट में हम उतर लिए - शायद उनका स्टेशन अगला था !!
निकुंज तो आज बहुत खुश था, बिल्डिंग का रोमांच और मैकडोनाल्ड के हैप्पी मील में उसको एक प्यारा सा नन्हा दोस्त भी मिल गया था - खैर इससे हमारी मुश्किल बढ़ गयी थी क्यूंकि दोनों भाईयों में इसको हथियाने का युद्ध चरम पर था!!
11 टिप्पणियां:
sir baat hai.........
deshatan me ek kitab likhiye.....
अट्टालिकाओं की ऊँचाईयाँ,
नगरों पर उनकी परछाईयाँ,
ट्रेनों में खटक रही हों,
संस्कृति की गहराईयाँ।
मन मयूर सा नाच रहा है,पा निकुंज एक दोस्त।
बड़ी सरलता से कही एक मधुर सी पोस्ट।
वर्किंग डे ??? कार्य-दिवस कह और लिख सकते हैं आप .
बिलकुल सही लिखते हैं आप हर तरह के व्यक्ति हर जगह मिल जाते हैं.तुरंत दर्शन या कोई ऑफिशल-वर्क हो शोर्ट कर से ले जाने वाले वहाँ भी हैं,होंगे,होने ही चाहिए
मनुश्य अपनी मूल प्रवृति थोड़े ही छोड़ता है. कही भी रहे वो चाहें.
फिर अर्निंग का एक जरिया ये काम तो हमेशा रहा ही है.
भाई घूमते तो ही, हमे भी 'घुमा देते' हो
राम! आपके बच्चों के दोस्त को तो मैं भी लेना चाहूंगी.
हा हा हा
प्यार.तुम्हे भी और तुम्हारे बच्चों को भी
इसे कहते हैं हींग लगे न फिटकरी रंग चोखा ही चोखा....न पासपोर्ट न वीसा, फिर भी घूम लिए अमरीका- आपकी बदौलत! भई मज़ा आ गया, त्यागी जी .
बहुतों के पैसे बचा रहे हैं :)
दिल्ली में तो मेट्रो साफ सुथरी दिख रही है
वाह वाह मजा आ गया. Empire State Building के ऊपर से न्यू योर्क शहर के दर्शन करवा दिए तुमने तो..
निकुंज बहुत खुश लग रहा है. चलो मजे करने दो. फिर विद्यालय आरम्भ हो जायेंगे तो बच्चे को २० तक पहाड़े याद करने होंगे. वक़्त ही कहाँ होगा घुमने फिरने का.
रही बात भारतीय परिवार के पिज्जा खाने की. तो यार हो सकता है के उनको पता न हो के रेलगाड़ी में खाना खाने का प्रचालन नहीं है. अब घुमने आये हैं तो ये सब थोड़े पता कर के आएंगे. हो सकता है बेटा जेर्सी में ही काम करता हो. मोटर गाडी से आता जाता हो. रेलगाड़ी में बैठने की जरुरत नहीं पड़ती हो. तो उसे भी न पता हो.
इतना गुस्सा मात करो उस परिवार पर यार.
हा ये अलग बात है के भाभीजी उस परिवार के पास बैठीं हैं और निकुंज एक दम पास में खड़ा है. तो हो सकता है के तुम्हारा गुस्सा इस बात पर है के भाई अकेले क्यों खा रहे हो? मेरे बीवी बचो से इक बार पुच तो लेते !!
बहुत बढ़िया प्रस्तुति। अच्छी जानकारी मिली।आभार।
सच कहा आप ने बहुत बडे बडे नमुने हम ने भी देखे है देशी ओर विदेशी भी, हमे भी रोम मै कुछ ठग मिले कलोसियम मै, एक अफ़्रीकी मिला रोम के स्टेशन पर जो आम को ऎसे खा रहा था, जेसे भारत मै चीले ओर कुते किसी मरे जानवर को चीर फ़ाड कर खाते है...
बहुत बढ़िया पोस्ट...सच में अगर हिन्दी को जिन्दा रखना है तो अंग्रेजी के आम बोलचाल के शब्द इस्तेमाल करने से गुरेज नहीं करना चाहिये वरना क्लिष्टता के चलते भाषा दम तोड़ देगी...बोलचाल की भाषा ही जिन्दा भाषा है वरना साहित्य का जयकारा लगाने वले बहुत हैं, चिन्ता न करो बस देवनागरी में लिखते चलो. एक एक शब्द समुन्द्र भर रहा है.
रक्षा बंधन की हार्दिक शुभकामनाएँ.
रक्षा बंधन की हार्दिक शुभकामनाएँ.
हिन्दी ही ऐसी भाषा है जिसमें हमारे देश की सभी भाषाओं का समन्वय है।
हम आज पुरानी फ़ीड पढ़ रहे थे तो आज ही पहुँच पाये आपकी इतनी अच्छी पोस्ट पर...
जानकारी पूर्ण और यह देखकर भी खुशी हुई कि अमेरिकन दूतावास भारतियों से बचने की सलाह देता है और लूट के तरीकों पर ट्रेनिंग भी (जैसा कि हमने सुना है) जब अमेरिकन भारत आते हैं, अब भारतीय दूतावास को भी ऐसी ट्रेनिंग देनी होगी।
मेकडॉनल्ड्स में जाते ही हमारे बेटेलाल की भी टॉय की फ़रमाईश शुरु हो जाती है।
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