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रविवार, 28 नवंबर 2010

धोबी का कुत्ता घर का न घाट का

confused-monkey1 बाईक चलाना तो जैसे भूल ही गया हूँ, क्लिच के साथ गियर पर नियंत्रण और इधर उधर से रेंडम क्रम में आने वाले व्यक्तियों और वाहनों की कस्साकस्सी में मैं जैसे फिर से शहर के लिए गांव से आने वाला एक सीधा साधा इन्सान बन गया हूँ, मेरे छोटे भाई मुझे बाईक पर बैठने नहीं देते कि कहीं मैं हाथ - पैर ना तोड़ लूं !   इतना बुरा भी नहीं चलाता पर लोगों की फीडबैक ऐसी है कि कोई सुन ले तो साथ पीछे बैठेगा ही नहीं, अर्धांगिनी तो पहले ही हाथ जोड़ बैठी कि हम तो ऑटो कर लेंगे … पर फिर भी मन है कि खुद को सर्वश्रेष्ठ मानता है, लगता है थोड़े प्रयास और भरसक अभ्यास की जरूरत है. 

कार चलाना में भी वही संघर्ष, यहाँ भी क्लिच और गियर का मिश्रण और ऊपर से बाजारों की भीड़ मुझे अनियंत्रित सा कर देती है, भले ही अमेरिका और जर्मनी में गाडी की गति उड़न खटोले जैसी करके फिर भी नियंत्रण संभव है पर यहाँ वही हाथ डगमगा रहे हैं, सुविधा ने संघर्ष को मात दे दी और हम कुछ ज्यादा ही सरल जीवन जीने के आदी हो गए हैं,  बाथरूम में से बदबू आती है तो धूल से छींक ही छींक - जैसे हम अपने ही घर में बेगाने से हो गए !  इस कहते हैं कि धोबी का कुत्ता न तो अब घर का रहने वाला है और न घाट का…अमेरिका में भारतीय जीवन जीते हैं और भारत में आकर जैसे स्पीड में कही पिछड़ रहे होते हैं,  यहाँ आकर हर मोड पर मेरा और सबका बहाना होता है कि अब वो यहाँ नहीं रहते ना, तो आदत नहीं रही !!

ट्रेन और बस में धक्कामुक्की है पर अगले ही पल बातों में अपनापन लिए पुरानी सौंधी खुशबू लिए प्रेम झलक पड़ता है.  सकल घेरलू उत्पाद की दर का प्रभाव लोगों के जीवन पर भी प्रतिलक्षित होता दिखता है, सब लोग व्यस्त है, बच्चे स्कूल के बोझ से पस्त हैं और हर कोई आगे बढ़ने की होड़ में मस्त है, हर हाथ की उँगलियाँ मोबाइल के पैड पर हैं, और शहरों के बाजारों की गलियाँ विदेशी रंग में रंगने के लिए उतावली हैं,  देश परिवर्तन के लिए तेजी से आगे बढ़ रहा है और कहीं  न कहीं मौलिकता बाजारू और दिखावे का साधन मात्र होकर रह गयी है, मैं स्तब्ध सा खड़ा मंहगी होती चीजों को बस निहारता रहता हूँ, खुद को गरीब अनुभव करता हूँ और असमर्थ भी यहाँ के बाजारों में !  इतनी महँगाई अगर प्रगति के साथ गेहूं के साथ खरपतवार की तरह आती रही तो क्या एक दिन ये देश बंजर नहीं हो जाएगा ? 

250px-Swami_haridas_TANSEN_akbar_minature-painting_Rajasthan_c1750_crpकल दैनिक भास्कर समाचार पत्र में एक समाचार था,  तानसेन समारोह जल्द ही ग्वालियर में शुरू होने वाला है,  हर साल दिसंबर में ये समारोह होता है. अकबर के नवरत्नों में से एक तानसेन जी ग्वालियर के पास ४० कि मी दूर बेहट नामक गाँव में जन्मे थे और समाचार पत्र के अनुसार इस गाँव का बच्चा बच्चा ध्रुपद गायन जानता है, ये कला उनके खून में बसती है,   250px-Tomb_of_Tansenपर सरकार की और से आज तक ना तो बेहट के लिए और ना ही इस गाँव के लोगों की कला को आगे लाने के लिए कुछ किया है ! मैं शिवराज सरकार और भाजपा से निवेदन करूँगा कि इस और कुछ ध्यान दें !    हो सकता है कि तानसेन समारोह को भी ग्वालियर से बेहट में ले जाकर इस स्थान पर एक उत्साह पैदा करे !!

ब्लॉग्गिंग से कमाया धन

हिन्दी ब्लॉग्गिंग विधा ने एक वातावरण पैदा किया है जहाँ पर कई ब्लॉगर एक परिवार की तरह एक दूसरे के दुःख सुख और वैचारिक आदान प्रदान में शामिल है.  कुछ लोग ब्लॉग्गिंग से धन कमाने की अपेक्षा करते हैं तो कुछ देश सुधार की !  मुझे लगता है कि हिन्दी ब्लोगिंग से कुछ तो सार्थक हुआ है :

१. एक अमूल्य धन की कमाई जिसमें कई अनजान लोग विचारों के आदान प्रदान से एक दूसरे के नजदीक आये, घनिष्ठ मित्र बने.

२. हिन्दी का एक तरह से विकास हुआ है, हिन्दी में लेखन से इन्टरनेट पर हिन्दी में उपलब्ध सामग्री की प्रचुरता बढ़ी है

३. जिन लोगों की हिन्दी लेखन में रूचि थी उनको एक वातावरण मिला है, प्रोत्साहन मिला है, रूचि जागी है और प्रतिस्पर्धा ने कई लोगों में लिखने और पढने का जुनून पैदा किया है

मेरी इस बार की भारत यात्रा का एक पहलू ब्लॉग्गिंग मित्रों से मिलना भी था, अब तक फोन पर कई मित्रों से बात हुई और हर एक से आत्मीयता भरे सम्बन्ध ही बने हैं,  मैं पहली बार किसी ब्लॉगर से मिला था २००९ में, तब मैं मुरैना निवासी भुवनेश शर्मा से मिला था,  भुवनेश से बात करना और उनके लेखो को पढना दोनों से ही मुझे कुछ न कुछ सीखने को मिलता था और जब मिला तो और भी अच्छा लगा, कल वो फिर मिलने ग्वालियर आये और घंटो हम बात करते रहे, कई विषयों पर ! कल उन्होंने माननीय दिनेशराय द्विवेदी से भी फोन पर बात कराई, द्विवेदी जी के ब्लॉग पर मेरा तो नियमित जाना बना रहता है पर बात करके और भी ज्यादा अच्छा लगा ! 

इसी तरह प्रवीण पाण्डेय के हिन्दी लेखन का में बड़ा प्रशंशक हूँ,  एक-दो बार फोन पर अल्प समय के लिए बात हुई है !   समीर लाल से कनाडा में हुई मुलाकात ने एक और घनिष्ट मित्र दिया तो पाबला जी, बिल्लोरे जी, महफूज मियां इन सबसे बात करके भी इनको और नजदीकी से जानने का मौका मिला !  रवींद्र प्रभात,  राज भाटिया जी, जय झा  से भी फोन पर बात हुई है और शायद ये सिलसिला चलता रहेगा ! अर्चना चाव जी, और अजित गुप्ता जी से भी बात करके आशीर्वाद लिया है.  अनूप शुक्ल जी,  शिखा जी, अभिषेक झा, अजय झा और अन्य लोगों से भी चेट पर बात होती रहती है.

इसी सिलसिले को आगे बढ़ाया इस शुक्रवार को ललित जी और खुशदीप जी ने,  एक संकट मोचक की तरह निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन पर एक आत्मीय मुलाकात ने मुझे दो और मित्र दिए.  दिल्ली महानगर में वर्किंग डे के दिन सुबह ८ बजे स्टेशन कौन आ सकता है, पर हमारे देश भावना प्रधान है जहाँ आलस या फिर और विकार भावों के सामने हावी नहीं रह पाते !   मेरे पास कुल मिलाकर छोटे से लेकर बड़े तक १० बैग थे और दो बच्चे :)  …कुली सामान को स्टेशन के बाहर से प्लेटफोर्म पर रखकर जा चुका था और जब गाडी आकर लग गयी तो फिर जद्दोजहद थी की कैसे सामान को अंदर रखा जाय, किसी एक को बाहर रखवाली भी करनी थी, पर समय बहुत था – लगभग ३५ मिनट तो सोचा कि धीरे धीरे खुद ही चढाते हैं पर तभी दो संकटमोचक मित्र उस समय आते हैं और सब काम एक मिनट में हो जाता है, बच्चे भी खुश हो गए और फिर बातों का सिलसिला ऐसा चला कि लगभग २५ घंटे की थकान कब दूर हो गयी - पता ही नहीं चला - बातों में ऐसे मग्न हुए कि ट्रेन जब चलने लगी तब मैं भागते भागते चढा !

कौन कहता है कि ब्लॉग्गिंग से कमाई नहीं होती :)

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बुधवार, 24 नवंबर 2010

एक युद्ध की तैयारी - भारत आने के लिए !!

 

बच्चों के साथ यात्रा करना भी युद्ध पर जाने से कम नहीं,  उनकी तमाम फरमाईशों पर गौर फरमाने के साथ जो पेकिंग हो रही है उसको यथावत रखने का संघर्ष भी अनवरत करते रहना पडता है,  उसके बाद उनकी अति प्रसन्न वाली मुद्रा को शांत करने की कला में भी पारंगत होना पडता हैं -  अति उत्साह में अनगिनत प्रश्न और अनगिनत आकांक्षाएं !  बस एक बार उनको बता दिया कार्यक्रम के बारे में तो उनको लगता है कि समय को फेर कर गंतव्य समय को वर्तमान में मोड दिया जाये ! ऐसे में खुद की तैयारियां और जरूरी काम तो बस जैसे युद्ध में पैदल सेना को टैकल करना हो बस !

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बच्चों की संख्या एक से अधिक है तो तुलनात्मक वस्तुओं से बच्चों में उपने खीजपन को भी संयमित करने का गुण सीखना पड़ेगा नहीं तो आप अभिमन्यु की तरह खीज गलियों के चक्रव्यूह में घुमड़ते रहोगे !  इस उत्साह को यहाँ के शिक्षक भी चार चाँद लगा देते हैं ये बोलकर कि वाह जाओ और मजे करो वत्स - यात्रा का वृतांत लिखना - बस यही तुम्हारी पढाई होगी  ! उनके अनुसार ये अमूल्य स्मृतियाँ मानसपटल पर हमेशा अंकित रहेंगी इसलिए ये तो पढाई से भी बढकर है - अब तो युद्ध में इन बच्चों को और भी शस्त्र मिल गए और हमेशा की तरह अपनी हार इन बच्चों के सामने अपेक्षित सी लगती है, जीतने का उपाय सोचना ही होगा क्यूंकि आगे १८-२० घंटे , रात दिन, सुईयों के साथ प्रथ्वी का ध्रुवीकरण भी परिवर्तित होगा और उससे उपजे जेट लेग रुपी विकार को भी झेलना होगा ! 

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खैर युद्ध की पूरी तैयारी कर ली गयी है, सारी बैटरियों को चार्ज कर लिया गया है,  सारे उपकरण मुस्तैद कर लिए गए हैं, विभिन्न खेलों से लेकर किताबों तक के पूरे इलेक्ट्रोनिक लश्कर के साथ हम भी युद्ध भूमि में उतरने तैयार हैं, पूरे रास्ते के रथों का इंतजाम हैं , कहीं सड़क खटोला तो कहीं उड़न खटोला तो कहीं पर प्रवीण (रेल) खटोले का इंतजाम है बस  देर सवार होने की है  !

जब ये लेख पढ़ा जा रहा होगा तब हम तो शिकागो के अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर बच्चों को सांत्वना दे रहे होंगे की बस थोडा सा इन्तजार और - बस उड़न खटोला लगने वाला है पार्किंग में , फिर बैठे और उड़े !  उन दो घंटो में भी हमें एक छद्म युद्ध ही लड़ना पड़ेगा,  अकेले में तो पहुँच गए एअरपोर्ट ३० मिनट पहले पर अब तो करीब २ घंटे पहले ही रवाना होना पडेगा और फिर वहाँ इन्तजार में बच्चे बेचारे कैसे जिज्ञासा को शांत रखें, मन में उद्वेलन है अपनों से मिलने का,  जेल से बाहर जाकर उनका भी स्वछन्द होकर, उमुक्त होकर आवारा होने का मन है !

airport-securityपिछले २-३ सालों में मैंने १ लाख मील से भी ज्यादा हवाई यात्रा की है, इस यात्रा में करीब १५ देश तय किये होंगे,  करीब ९० उड़न खटोले बदले होंगे और हजारों मील की सड़क नाप दी होगी !   सोचता हूँ अब पुराने दिनों को जब स्कूल के मैदान से या घर की छत से आकाश में उडता हवाई जहाज देखते थे तो मन करता था कि बस एक बार बैठ जाऊं इसमें, एक बार तो पिताजी ने पुरुष्कार के रूप में ग्वालियर से दिल्ली की हवाई यात्रा का प्रलोभन भी दिया था पर तब तक शायद यात्रा अपने आप ही संभव हो गयी थी , अब मन करता है कि कौन हवाई यात्रा के तामझाम में पड़े  - तब नहीं पता था कि १ घंटे की यात्रा के लिए एअरपोर्ट पहुँचने से लेकर और बाहर निकलने तक कितने तामझाम - सुरक्षा जांच इत्यादि के बोरिंग प्रोसेस से गुजरना पडता है - इसलिए तब एक बार की आकांक्षा वाला व्यक्ति अब हवाई यात्रा से बचने का कोई न कोई बहाना ढूँढता रहता है और उसे एक युद्ध समझता है - ये भी एक यात्रा  है !

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इस युद्ध के बाद १ महीने तक अमन और मस्ती का माहौल रहने वाला है - बस आनंद का इन्तजार है जो संतुष्टि और संतृप्ति देगा !! आप में से भी कई लोगों के दर्शन होंगे इसलिए भी इस यात्रा का रोमांच हावी है !!!

मिलते हैं ….

मंगलवार, 23 नवंबर 2010

अरुंधती रॉय पर बहस (जारी …)

 

पिछली बार की बहस क्या सिर्फ अरुंधती रॉय ही देशद्रोही हैं ?  से कुछ सवाल उठे थे जिनका जिक्र करना जरूरी था.

बाकी सब लोग तो एक सुर में बोल रहे थे पर हमारे एक मित्र है भवदीप सिंह,  वो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सहारे अरुंधती राय के सारे गुनाहों पर ऐसे ही पर्दा डाल रहे थे जैसे भ्रष्ट (जनसेवक नेता) लोग कोई न कोई बहाना बनाकर अपने आप को हर बार बचा ले जाते हैं !

पिछले लेख में जो प्रतिक्रियायें आयीं उनमें से कुछ यहाँ देखते हैं -

भवदीप सिंह ने कहा…

आप इसलिए उनको देशद्रोही बोल रहे हैं क्योंकि उन्होंने देश के खिलाफ ब्यान दिए हैं? ये तो भाई गलत बात है.
उन्होंने अपनी वाक्-स्वतंत्रता (Freedom of Speech) का उपयोग किया है. बुरा न मानिए पर मुझे इसमें कुछ गलत नहीं दिखा.
उन्होंने जो बोला. वो आप या मैं (या फिर हमारे देश की अधिकतर जनता) नहीं सुनना पसंद करेंगे. उन्होंने हमारे विचारो से हट कर बोला है. ये बात में मानूंगा. लेकिन, मुझे कोई क़ानून भंग होता नहीं दिखा.
Freedom of Speech तो है न हमारे देश में.. या फिर वो "खट्टा मीठा" के गाने वाली बात हो गए.. "यहाँ पर बोलने की आजादी तो है. पर बोलने के बाद आजादी नहीं है" ?
में उनके विचारो से सहमत होयुं या न होयुं. पर में इस बात से सहमत जरूर हूँ के उन्होंने क़ानून में रहा कर बोला है जो बोला है. अगर हमें उनकी बात पसंद नहीं आती तो क़ानून हमें पूरी आजादी देता है के हम उसके खिलाफ बोले. जैसा की इधर बोल रहे हैं.

राम त्यागी ने कहा…

पहले तो सभी का बहुत बहुत धन्यवाद इस ज्वलंत मुद्दे पर बहस के लिए !
जहाँ एक और भवदीप ने स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति के सहारे रॉय मैडम को सही ठहराने की कोशिश की है वही अन्य सभी लोगों ने एक मत से अरुंधती के गैर जिम्मेदाराना रवैये के साथ साथ नेताओं, मीडिया और अन्य खुले आम घूम रहे लोगों पर भी अंकुश लगाने पर भी जोर दिया !

भवदीप सिंह ने कहा…

पहली बात.. मैंने रॉय मैडम को सही नहीं बोला. मैंने बोला के तुम और हम उनके विचारो से सहमत नहीं हैं. पर उनको अपने विचार रखने की पूरी स्वंत्रता है.
दूसरी बात. अगर उनको बोलने का मकसद हिंसा भड़काना होता तो Sedition के अंतर्गत उनको गिरफ्तार करना बनता था. उन्होंने जो बोला उस से न तो हिंसा भड़की न ही ऐसा कुछ करना उनका मकसद था.
तो संछेप में फिर से बोलूँगा के. मैडम ने जो बोला उस से हम सहमत हो या न हों... पर उन्होंने क़ानून में रहा कर बोला .तुमको और हमको उनकी बात जमी नहीं तो हमें भी पूरा हक है उनके विपरीत बोलना का.

 

अब भवदीप और आप सब से मैं पूछना चाहूँगा कि क्या हम दंगे होने तक इन्तजार करेंगे और देश की अखंडता पर कश्मीर को अलग करने वाले तथाकथित बुद्धिजीवियों को उसी तरह गुनाह करने देंगे जैसे हम अपने कुछ भ्रष्ट नेताओं को उनके बुरे कामों का इनाम उनको वोट देकर करते हैं ?

मंसूर अली हाशमी जी ने बहुत ही सही बात कही थी  -
उसका 'गीला', 'नी' लगे, 'गंदा' उन्हें !
'अंधी' 'रुत' है, दोस्तों अब क्या करे?
कैसी आज़ादी उन्हें दरकार है,
अपने ही जो देश को रुसवा करे !!

अनुराग जी की बात सही है कि कब तक सहेंगे -  

जिस हमाम में सब नंगे हों वहां हर नंगा दूसरे का ही उदाहरण सामने रखेगा| लेकिन इस देश पर हक सिर्फ इन नंगों का नहीं है| देश के सीधे सच्चे नागरिक कल चुप थे, आज चुप हैं इसका मतलब यह नहीं है की वे हमेशा चुप रहेंगे| कहीं न कहीं से तो आरम्भ करना ही पडेगा.

अभिव्यक्ति की स्वच्छन्दता और अखंड भारत में से आपको क्या चुनना है ?

सोमवार, 22 नवंबर 2010

दिवाली की रौनक अभी भी बरकरार है

भारत आने की तैयारी से बच्चों में उत्साह और उत्सुकता पूरे सबाब पर है, इधर हमारी तैयारियाँ जोरो पर हैं तो उधर भारत में घरवाले भी हर पल इन्तजार में पलक पांवड़े बिठाकर बैठे हैं ! भारत आने का दुःख भी होता है क्यूंकि एक महीने बाद जब लौट कर आयेंगे तो फिर से एक लम्बा इन्तजार, अकेलापन और अपनो से दूर रहने की वेदना ! पर जो लोग नौकरी करते हैं वो कब स्वतंत्र होते हैं तो अगर भारत में होते तो भी कहीं न कहीं घर से दूर रह रहे होते - किसी महानगर में जद्दोजहद कर रहे होते, भीड़ में धक्के खा रहे होते ! छोटे शहरों की सौम्यता, सरलता और हल्का सा सूनापन पसंद है पर हम पलायन कर जाते हैं स्वावलंबन की चाह में, कहीं न कहीं ये पलायन हमें स्वावलंबन के बदले एकाकीपन भी दे देता है और फिर हम आते हैं सूचना तकनीक के विभिन्न सहारों पर कुछ तलाशते - पर असली तलाश तो बस परसों ग्वालियर में ख़त्म होगी जब भावनाएं स्वार्थ की सीमायें लांघकर परिवार को परिभाषित कर रहीं होंगी !

इस शनिवार को स्थानीय निरंकारी संत मिसन  और देसी जंक्सन रेडियो द्वारा पास के ही एक कस्बे  में दिवाली मेले का आयोजन किया गया था,  मेले में संस्कृतिक कार्यक्रमों के साथ साथ भारतीय खाने का भी पूरा इंतजाम किया गया था. चाय, ब्रेड पकोड़े, पपड़ी चाट, नान-पूरी-सब्ज्जी, गुलाबजामुन, समोसे, कचोडी सब कुछ उपलब्ध था !  निकुंज का एक स्टेज प्रोग्राम था तो बस बॉलीवुड गानों, भजन और चाट सब का मजा साथ लिया गया !  मजेदार रही ये शाम भी !


शनिवार, 20 नवंबर 2010

शोध का सोच और आत्मनिर्भरता पर प्रभाव - भाग ३

शोध का सोच और आत्मनिर्भरता पर प्रभाव - भाग १

शोध का सोच और आत्मनिर्भरता पर प्रभाव - भाग २

पिछले दो लेखों में आपने भारत में शोध की दशा, राजनीतिक उदाशीनता और इसका शिक्षा पर असर के बारे में पढ़ा,  उसी क्रम को थोडा और आगे बढाता हूँ -

भारत में सबसे बड़ी समस्या है हर क्षेत्र में ज्यादा शोध न होने की ! बिना शोध के हम पुरानी पगडंडियों पर बिना सुधार और उन्नयन के चलते रहते हैं और हाथ लगता है तो बस कठिन परिश्रम - आईडिया तो शोध से ही आते हैं , उन्नयन तो शोध से ही आता है अन्यथा मानसिक तनाव और कठिन परिश्रम के दो किनारों के बीच झुलसते रहते हैं हम !!

अब देखिये कि कोई भी काम करना हो तो कारीगर को जरूर बुलाना पड़ेगा,  खिड़की का शीशा हटाना हो या नया दरवाजा लगाना हो, हर चीज  के लिए किसी न किसी को बुलाना पडता है पर पश्चिमी देशों में क्यूंकि मजदूर बुलाना आसान नहीं, और जैसा कि बोलते हैं कि “आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है”  इस बात की आवश्यकता ने कि खुद ही कैसे घर का रख रखाव किया जाये - यहाँ की सरकारों ने और विभिन्न निजी संस्थाओं ने नए नए तरीके खोजने के लिए अपने अपने स्तर पर प्रयास किये और इसका नतीजा है कि आज यहाँ दरवाजा भी आप खुद फिट कर सकते हैं और खिड़की के शीशे भी कुछ ही समय में आप खुद फिट कर सकते हैं और बाकी का काम यू ट्यूब इत्यादि ने सरल बना दिया , हर चीज के विडियो आप यू ट्यूब पर देख सकते हैं कि कैसे कौन सा काम किया जाये !

मैं चाहता हूँ की यू ट्यूब का आईडिया, ऐसे खिड़की और ग्लास बनाने के आईडिया हमारे भारत से आये, क्रियान्वयन तो हो ही जाता है, जरूरत है दिमाग में ये नुकीलापन लाने की जिससे हम सोच सकें कि करना क्या है ! 

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आज भारत को अपनी सुरक्षा जरूरतों के लिए उच्च तकनीक के लिए कई गुना कीमत चुकानी पड़ती है,  देश आजाद ६० साल पहले हुआ पर अब भी हम विदेशों के गुलाम हैं, अब भी हमारा अधिकतर विदेशी मुद्रा भण्डार तेल और रक्षा प्रणाली की जरूरतों में खर्च हो जाता है,  प्राकृतिक संसाधनों के आधुनिक संसाधन हमारे पास नहीं हैं और हालत ये है कि हम सिर्फ सूचना तकनीक में आई आंधी से खुद को विकसित समझ रहे हैं, आँधियाँ जितने वेग से आती हैं उतने ही वेग से चली भी जाती हैं , हमें विकास का सुनामी नहीं बल्कि एक सुव्यवस्थित, क्रमबद्ध और स्वनियंत्रित वाहक बनना होगा अन्यथा हम आजादी के बाद से हो रहे प्रतिभा के पलायन को रोक नहीं पायेंगे !

एक पत्रिका में लिखे लेख के अनुसार -

“While defence trade in the region is dominated by China, in terms of both exports and imports, India is becoming increasingly significant as an importer. “

चीन दोनों तरफ से अपना संतुलन बना कर रखता है , कहीं अपनी चीजें बेच रहा है तो कहीं वो खरीद रहा है , अगर हम (केवल) खरीददार ही बने रहे तो कैसे संतुलन का गणित हमें सफल करेगा ?

गुरुवार, 18 नवंबर 2010

शोध का सोच और आत्मनिर्भरता पर प्रभाव - भाग २

 

शोध का सोच और आत्मनिर्भरता पर प्रभाव - भाग १

कुछ दिन पहले यहाँ के एक बच्चों के म्यूजियम द्वारा (निकुंज के) प्राथमिक विद्यालय में पहली और दूसरी कक्षा के विद्यार्थियों के लिए गणित पर एक कार्यशाला रखी गयी जिसमें विद्यालय के बाद शाम को बच्चे को अपने माता-पिता के साथ आकर भाग लेना था,  मैं भी बड़ा उत्सुक था इसलिए समय से ही निकुंज के साथ विद्यालय पहुँच गया !  वहाँ पहली और दूसरी कक्षा के विद्यार्थीगणों को (जो घर पर बात तक नहीं मानते)  मैंने उनके स्वनिर्मित चक्रव्यूह को हल करते पूरी संलग्नता से देखा तो समझ में आया कि अगर हम बच्चों को एक समस्या दें और उसमें खुद बच्चे के साथ लगकर हल करने की कोशिश करें तो बच्चा पूरी तन्मयता से और सक्रियता से सीखता है और ऐसा सीखा हुआ पाठ उसके मानस पटल पर उम्र भर अमिट रहता है. 

अब सोचिये के इस गणित कार्यशाला का भले ही आज कोई परिणाम न मिले पर एक  दिन जब आप उस तरह की किसी समस्या का हल खोज रहे होंगे और आपका बालक अचानक से जबाब देगा तब आपको इस का जो सुख मिलेगा वो आनन्दमय होगा और ये ज्ञान बच्चे को अवश्य ही उसकी आगे चलकर उसकी तार्किक सोच में तीखापन लाने के लिए सहायक होगा.

इस कार्यशाला में जो प्रयोग किये गए उनमें से कुछ को में नीचे उल्लेखित कर रहा हूँ :

  1. एक बोर्ड रख दिया गया जिसको समुद्र या नदी बताया गया और उस पर बच्चे को पुल बनाना है,  कुछ अंक बोर्ड पर अंकित थे जो ५ के गुणा में थे,  इन १०-१५ अंको में से दो अंक चुनकर उनको जोड़कर जो अंक आएगा उस पर पहला स्तंभ खड़ा करना है और अगले स्तंभ के लिए ऐसे दो अंक बोर्ड में अंकित अंको से लेने होंगे जिनका जोड़ पिछले स्तंभ के आसपास हो, जिससे दो consecutive स्तंभों को जोड़ा जा सके. इस समस्या में बच्चे जल्दी से जल्दी अपना पुल इमानदारी से पूरा करने के चक्कर में पूरी इमानदारी और तन्मयता से लगे थे और हम पालक भी यथासंभव सहायता कर रहे थे.
  2. दीवाल पर हर अक्षर को एक सेंट या डॉलर अंकित कर दिया था, अब हर बच्चे को (जिसकी इच्छा हो ये समस्या हल करने की ) अपने नाम की कीमत बतानी थी, इस समस्या के जरिये डॉलर और सेंट को जोडने, सेंट को डॉलर में तब्दील करने और २ और ५, १० और २० के पहाडो के जरिये कैसे पैसो का हिसाब जल्दी किया जाए.  निकुंज को N, I, K, U, N और J पर लिखे डॉलर और सेंट को जोड़कर उसके नाम की कीमत बतानी थी.
  3. कुछ रंग बिरंगे पेपर रख दिए गए थे और दीवाल पर अलग अलग तरह के द्वि - विमीय और त्रि-विमीय आकार बनाने के तरीके लिखे थे, जिन बालको ने वहाँ पर वर्ग, त्रिकोण, क्यूब इत्यादी बनाए वो कैसे कभी भूल सकते हैं उन आकारों को!
  4. बच्चो को तराजू बनाने के लिए दिया गया और फिर दोनों तरफ उसको बेलेंस करने के लिए कुछ प्रयोग करने को बोला गया
  5. एक प्रयोग ऐसा था कि कुछ अंक एक बक्से में डाल दिए गए और फिर उनमें से जो ४ अंक आप निकालो उनमे से सबसे बड़ा अंक कैसे बना सकते हैं  इस प्रयोग से उनकी इकाई, दहाई और सैकडा में अंको को इधर उधर कर अंको के बदलाव की ज्ञान वृद्धि पर जोर दिया गया
  6. विभिन्न आकारों का उपयोग कर उन आकारों को अन्य आकारों में बदलने और उनसे चित्र में दी गयी कुछ तस्वीरें बनाने के लिए प्रयोग दिया गया

इस तरह के कई और भी प्रयोग थे, ये सब कार्यक्रम University of Chicago  के गणित विभाग द्वारा किये गए शोध पर आधारित थे,  विद्यालय की तरफ से ऐसे कई पुस्तिका घर पर भेजी जाती है जो University of Chicago  द्वारा तैयार की गयी है और बच्चों के ज्ञान को समृद्ध ही नहीं, तार्किक, तीखा, तीक्ष्ण और प्रायोगिक भी बनाती हैं, बच्चे समस्या के हिसाब से सोचते हैं, पहले समस्या और फिर हल !   ये एक छोटा सा उदहारण है शोध के बाद किसी चीज को बेहतर बनाने का, सरल बनाने का !

कैसे बिना दबाब के और बिना मानसिक तनाव के रोजमर्रा की चीजों के जरिये गणित और उससे सम्बंधित चीजें सिखाई जाए, ये सब एक दिन में निर्धारित नहीं हो सकता.  पर अगर आज शुरुआत की जाए तो हो सकता है कि हम भी भारत में आने वाले वर्षों में बस्ते का बोझ कम कर पायें.  हम अपनी शिक्षा प्रणाली से नौकरी करने लायक तो बन जाते हैं पर कहीं न कहीं वो आईडिया दुनिया को नहीं दे पाते जो फेसबुक, ऐपल इत्यादि के संस्थापक दुनिया को दे रहे हैं, ये स्वीकार करना ही होगा, ये प्रश्न खुद से पूछना ही होगा कि हम क्यों नोबल पुरुष्कारों को अपने घर नहीं ला पाते ! हम क्रियान्वयन में महारत रखते हैं क्यूंकि हम वो कर सकते हैं जो कोई पहले ही कर चुका है, हमें रास्ते तय करने वाले, रास्तों का निर्धारण करने वाले बच्चे विद्यालय से निकालने होंगे.  निश्चय ही भारत में परिवर्तन आ रहा है पर सरकार को और अधिक सक्रीय होना होगा जिससे हम वाकई में विकसित कहलाये जा सकें !  हम केवल विज्ञान, भौतिक और रसायन में ही प्रायोगिक परीक्षा न रखें बल्कि हमें हर विषय को प्रायोगिक बनाकर पढाने की व्यवस्था करनी होगी और प्रयोग को आम जिंदगी का हिस्सा बनाना ही होगा,  मुझे ध्यान है कि किस तरह १०वीं और १२वीं कक्षा में निर्धारित प्रायोगिक परिक्षा महज एक औपचारिकता होती थी.

यहाँ मैंने देखा है कि बच्चे पांचवे क्लास (अभी यहीं तक का पता है ) तक बिना बस्ते और बिना ड्रेस के विद्यालय जाते है पर ज्ञान के हिसाब से सिर्फ प्रोजेक्ट और रीडिंग के बल पर जो उच्च स्तर पढाई का दिखा उसे बेस्ट नहीं तो बेहतर जरूर कहूँगा !   कुछ मेरे दोस्त इसलिए भारत चले गए क्योंकि उनका बच्चा यहाँ किसी क्रमबद्ध कोर्स के जरिये नहीं पढ़ रहा था, बस्ते भरकर विद्यालय नहीं जा रहा था, पर कब तक हम नयी पीढ़ी पर ये दबाब डालेंगे गधे की तरह बस्ते ढोने का, ये बच्चे घोड़े से भी तेज मस्तिष्क रहते हैं इसलिए इन्हें बस्तों के बोझ से इन्हें मुक्त करना ही होगा, इन्हें बचपन को जीते जीते, आनंद करते करते ही सरलता से प्राथमिक शिक्षा की परिपाटी पर चलाना होगा !

छोटे छोटे बच्चे यहाँ अभी से लिखना सीख रहे हैं , लेखक बन रहे हैं और अपने रूचि के हिसाब से एक विषय विशेष में पारंगत बन रहे हैं पर इस तरह की स्वच्छंद पढाई में घर ध्यान न दिया जाए तो बच्चा पिछड भी सकता है क्यूंकि यहाँ बच्चे पर पढाई के लिए दबाब नहीं डाला जाता !  इसलिए यहाँ अमेरिका में स्कूल ड्रॉप आउट की समस्या बहुत है, घर पर और विद्यालय की गतिविधियों में पालक का सम्मिलित रहना अनिवार्य है अन्यथा ये स्वच्छंदता कई बुराइयों, आलसों और बहानों को जन्म दे देती है, पर गौर करने वाली बात है के शोध के जरिये कैसे बच्चे को सरलता से और सहजता से कठिन से कठिन बात सिखाई जा सकती है !!

ये बात में सरकारी विद्यालयों की कर रहा हूँ इसलिए अगर आप DPS या किसी अन्य विद्यालय से तुलना करेंगे तो फिर हम आम आदमी के बच्चे की बुनियादी शिक्षा की बात नहीं कर पायेंगे, ये बात में खुद के परिवेश ओर आज भी उसी ढर्रे पर चल रहे सरकारी विद्यालयों की कर रहा हूँ, क्या उन में परिवर्तन समय के साथ अपेक्षित नहीं ?  जब अमेरिका का सरकारी विद्यालय हमारे प्राईवेट विद्यालय से बेहतर है तो हमें ओर हमारी सरकारों को इस विषय में सोचना ही होगा अन्यथा हम विकासशील से विकसित होने का फासला तय नहीं कर पायेंगे!

भारत में सबसे बड़ी समस्या है हर क्षेत्र में शोध की ! बिना शोध के हम पुरानी पगडंडियों पर बिना सुधार और उन्नयन के चलते रहते हैं और हाथ लगता है तो बस कठिन परिश्रम - आईडिया तो शोध से ही आते हैं , उन्नयन तो शोध से ही आता है अन्यथा मानसिक तनाव और कठिन परिश्रम के दो किनारों के बीच झुलसते रहते हैं हम !!

(जारी …)

मंगलवार, 16 नवंबर 2010

शोध का सोच और आत्मनिर्भरता पर प्रभाव - भाग १

मैं अपनी पिछली कई पोस्ट में लिख चुका हूँ कि भारत में शोध पर बहुत कम पैसा खर्च किया जाता है और उसका असर इस बात से ही दिखता है कि हम उच्च तकनीक की प्रणाली के लिए, रक्षा उपकरणों के लिए और बड़ी परियोजनाओं के क्रियान्वयन के लिए हमेशा से ही विदेशों पर निर्भर रहे हैं और निर्भरता के इन आकडों में विगत कई वर्षों से कोई कमीं नहीं आई है. अपरोक्ष रूप से आत्मनिर्भर न होना विकास में सबसे बड़ा बाधक है.

चीन और भारत दोनों ही आने वाले दशक की महाशक्ति बोले जा रहे हैं, चीन की प्रगती आर्थिक स्तर पर तो उन्नत है ही, चीन अन्य स्तरों पर भी भारत को पीछे छोड़ रहा है, चीन की तेल और रक्षा उपकरणों के लिए विदेशों पर निर्भरता बहुत कम है और इसका कारण है कि चीन ने अपने सकल घरेलु उत्पाद का एक बड़ा हिस्सा अनुसंधानों पर खर्च किया है,  कोई भी बाहर की कंपनी चीन में व्यवसाय तभी कर सकती है जब वह कुछ हिस्सा चीन के बौद्धिक विकास में लगाए ! यही हाल अमेरिका, जापान,  जर्मनी, इस्रायल और अन्य विकसित देशों का है.

नीचे उल्लेखित ग्राफ भारत और चीन के बीच सकल घरेलु उत्पाद का शोध पर खर्च के प्रतिशत की तुलना दर्शाता है :

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पुराने आकंडो पर नजर दौडाई जाए तो पता चलता है कि जो देश विकसित है वो शोध और अनुसंधानों पर खर्च के प्रति हमेशा से ही गंभीर रहे, २००४ के आकंडो के अनुसार नीचे दिए गए पांच देश सकल घरेलु उत्पाद के ५ प्रतिशत के लगभग शोध पर खर्च कर रहे थे और इसलिए ही ये सभी  रक्षा उपकरणों और अन्य उच्च तकनीक के मामले में आत्मनिर्भर है :

 

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इस श्रेणी में भारत का क्रम बहुत नीचे आता है क्योंकि २००४ में भारत अपने सकल घरेलू उत्पाद का सिर्फ ०.७ प्रतिशत के आसपास शोध कार्यक्रमों पर खर्च कर रहा था जो कि २००७ तक सिर्फ ०.८ प्रतिशत हो पाया.  ये आंकड़े इतनी तेजी से विकास कर रहे देश के लिए निराशाजनक है,  मनमोहन सिंह जी से अर्थशाश्त्र के विशेषज्ञ होने के नाते ये अपेक्षित नहीं था.

इस साल के शुरू में प्रथ्वीराज चव्हाण (जो कि उस समय विज्ञान और तकनीकी विभाग में राज्य मंत्री थे) ने भारत सरकार की और से एक बयान में कहा था कि इस साल भारत सरकार शोध पर खर्चे को  सकल घरेलु उत्पाद के १ प्रतिशत से बढाकर २ प्रतिशत पर लाना चाहेगी, इसका मतलब कांग्रेस के सरकार ने पिछले ६० सालों में ये जाकर २०१० के जनवरी में सोच पाया कि बाकी के विकसित देश आत्मनिर्भर क्यों है और हम क्यों अपना पैसा और बहुमूल्य प्रतिभाएं विदेशो को खोये जा रहे हैं !!

"Govt to increase its expenditure on R&D from 1% of GDP to 2%: Prtihviraj Chavan

Friday, 08 January 2010

New Delhi: We know that the next wealth generation and employment generation opportunity will come from science. Therefore the Government plans to increase its expenditure on R&D from 1% of GDP to 2%, said Dr Prithviraj Chavan, Minister for Science & Technology.”

गौरतलब है कि मुझे भारत सरकार से उम्मीद नहीं है  कि वो २ प्रतिशत का आंकड़ा हासिल कर पायेंगे, सबसे बड़े रोडे हैं हमारी तत्काल परिणाम पाने की सोच और लाल फीताशाई का नए विकास कार्यक्रमों में रोडे अटकाना और इसका परिणाम ये होता है कि आज भी उच्च तकनीक के लिए शिक्षा के लिए हमारे यहाँ के लोगों को विदेशों का ही रुख करना होता है, बड़े बड़े उद्योगपति,  राजनेता लोग तो अपने बच्चों को पैसे का बल पर बाहर भेजकर इस काम की भरपाई कर देते हैं पर आम नागरिक क्या करे ? जब तक शोध के जरिये हम आम विद्यालयों में दी जाने वाली शिक्षा को मजबूत नहीं करेंगे तब तक बुनियादी तौर पर शिक्षा के स्तर को उन्नत और उच्च कोटि की बनाना संभव नहीं है !

ऐसा मुझे तो कई बार अनुभव हुआ है कि हम लोग जो सरकारी विद्यालयों में पड़े हैं, मेहनत से अपनी मंजिल तो बना पाए पर हर मोड पर अब कठिन परिश्रम ही करना पडता है, सोच समस्या के हिसाब से विकसित नहीं हो पायी, सेन्स ऑफ ह्यूमर को विकसित करने के लिए कोई कदम नहीं उठाये गए और हमने सिर्फ परीक्षा में अच्छे अंक लाने के लिए पढाई करी, जबकि पढाई समस्या को आगे रखकर उसके हल की दिशा में होनी चाहिए थी !

कुछ दिन पहले यहाँ के एक बच्चों के म्यूजियम द्वारा निकुंज के प्राथमिक विद्यालय में पहली और दूसरी कक्षा के विद्यार्थियों के लिए गणित पर एक कार्यशाला रखी गयी जिसमें विद्यालय के बाद शाम को बच्चे को अपने माता-पिता के साथ आकर भाग लेना था,  मैं भी बड़ा उत्सुक था इसलिए समय से ही निकुंज के साथ विद्यालय पहुँच गया !  

(जारी …)

भारत आने का समय नजदीक आ रहा है,  अगले सप्ताह इस समय शिकागो के अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर भारत के लिए उड़न खटोला पकड़ रहे होंगे - सबसे मिलने का बेसब्री से इन्तजार है !!

रविवार, 14 नवंबर 2010

राजू याद आ गया आज बाल दिवस पर

 

सबसे महत्वपूर्ण दिन उनके नाम जो कल के नायक हैं, जो आज पौधे हैं और कल वृक्ष बन हमें छाया,  नेतृत्व और नया जीवन देंगे एक नयी सोच देंगें !

कल मैंने संयोगवस अपने कविता संग्रह ब्लॉग पर एक कविता बालक की उर्जा, उसके समर्पण के ऊपर लिखी थी -

 

एक बालक

खिलौने की तलाश में

अपनी मंजिल तलाशता

खोजता, उतरता, चढ़ता

सूर्य, चंद्र और आकाश

को भी पाने की अभिलाषा रखता

हर राह को उकेरता

आशामय हो निहारता

उद्वेलित हो मग्न रहता

किड्स

जब ज्येष्ठ को देखता

जीतने की आशा दोहराता

मंजिल पाने तक

प्रयासरत ही रहता

चींटी की भाँती

जीत कर ही विश्राम लेता !!! 

जहाँ मेरे पिताजी की पोस्टिंग है वहाँ पर एक गरीब परिवार था, बच्चों को पढाने की कोई व्यवस्था तो दूर,  एक रहने का ठिकाना भी नहीं था, पिताजी ने अन्य आर्थिक सहयोग के अलावा उस परिवार के एक बच्चे को अपने घर ले आये जिससे उसको शिक्षा का एक माहौल मिल सके, अब तो राजू परिवार के एक सदस्य जैसा ही हो गया है ! OgAAAKMltl_16hNxbIyPtIAHjulxbXHKANjmqPgFVFklCFxfKjYqbcHCFJItHTXrzgrSBR2nby0NnIW0q3yDZrDzIp4Am1T1UDwX_QNY_yWtCxN2nf5PMrynSpnO

आप भी किसी एक राजू को आगे बढाने का बीड़ा उठायें तो ये बाल दिवस मनाना सार्थक हो जाए !

कुछ दिन पहले दोनों बच्चों को एक दूसरे को नक़ल करते पकड़ा था ..उसी का ये विडियो बोनस में :)

शनिवार, 13 नवंबर 2010

हिन्दी बोलने में असमंजस क्यूं ?

हम भारतीय उत्सव मनाने के बड़े शौक़ीन होते हैं,  शादी का जश्न हो या फिर पुरुस्कार वितरण का मंच, हर जगह दो चीजें जरूर प्रभावी रहती हैं - एक तो जगमग रौशनी और हिन्दी फिल्मों के गाने और दूसरा अंग्रेजी में वार्तालाप करते लोग !

अमेरिका में सामान्यतः लोग मंदिरों में मिलते हैं या फिर घरों में पौटलक के दौरान एक दूसरे से मिलते हैं, जब मिलेंगे तो अभिवादन से लेकर हर चर्चा में अंग्रेजी हावी रहती है, चलो एक बहाना हो सकता है विभिन्न क्षेत्रों से आये लोग एक कॉमन भाषा समझते हैं इसलिए चलो अंग्रेजी को ही तरजीह दी जाए !  मंदिरों में सांस्कृतिक कार्यक्रम के दौरान हर चीज अंग्रेजी में ही बोली जायेगी पर सब थिरकते या कला का प्रदर्शन हिंदी में ही या हिंदी गानों पर ही करते दिखेंगे.  अभी हाल ही में जब निकुंज का मंच से पहला कार्यक्रम था तो तकरीबन ३०-३५ विभिन्न तरह के कार्यक्रम प्रस्तुत किये गए और ९८ प्रतिशत हिंदी में ही थे, बाकी २ प्रतिशत में वाध्य  यन्त्र इत्यादि के कार्यक्रम थे जिसको किसी भाषा के मोहताज होने की आवश्यकता नहीं है,  हालांकि इस मंदिर में ५० प्रतिशत से भी अधिक लोग दक्षिण भारत से आते हैं पर हिंदी गानों की लोकप्रियता सबको एक सूत्र में बांध देती है, पर एक गौर करने वाली बात रहती है कि जब स्टेज पर किसी को बुलाया जाने वाला हो या किसी नृत्य या कला की व्याख्या मंच संचालक कर रहा हो तब हिंदी के शब्द उनके मुंह पर क्यूं नहीं आते ?  इतना असमंजस क्यों उस समय हिंदी बोलने में  ? तब विभिन्न क्षेत्र से आये लोगों का हवाला दे अंग्रेजी ही क्यूं होटों पर आती है ?

हमारे यहाँ पास में ही हिंदू स्वयंसेवक संघ की एक शाखा हर रविवार को लगती है, एक दिन परिवार सहित इस आशा के साथ मैं भी गया के अब नियमित हर रविवार को आया करूँगा जिससे बच्चे भी कुछ अलग सीख सकेंगे और संस्कृति के पास रहने के एक और मौका हाथ से नहीं जाएगा.  ये शाखा यहाँ बहुत सारे कार्यक्रमों का संचालन छोटे छोटे स्तर पर कर स्वयंसेवकों को सार्थक कार्य में हाथ बंटाने के एक अवसर देती है और बच्चों के लिए भी पठन और अध्ययन की व्यवस्था है पर यहाँ भी अंग्रेजी बीच में आ गयी, हर कोई अंग्रेजी में ही परिचय से लेकर योग और धर्म की शिक्षा और कक्षा लेता दिखा, जैसे हम हिंदी को भी तोड़ मरोड़ कर हिंदी में घुसाने की कोशिश कर रहे हों , वही हिंदी में संचालन का असमंजस यहाँ भी दिखा !!

ये तो रही अमेरिका में रह रहे लोगों की बात !

अब अगर मैं हिंदुस्तान की बात करूँ तो वहाँ भी कार्यक्रमों के संचालन में हिंदी बोलने में बड़ा संकोच दिखाई देता है,  जैसे बॉलीवुड के हर पुरुस्कार वितरण समारोह में संचालन अंग्रेजी में ही होगा, हिंदी फिल्मो के पुरुस्कार वितरण में क्या हिंदी किसी की समझ में नहीं आती ?  या हिंदी बोलने से कार्यक्रम की महत्ता घट जायेगी या फिर क्या अंग्रेजी में बोलना समाज में आपके स्तर को ऊँचा दिखाता है ?  जो भाषा मुंबई को इतना व्यवसाय दे रही है क्या उसको लोग समझते नहीं, जब हम ही इतनी असमंजस में है तो आगे आने वाली पीढ़ी तो हिंदी के बारे  में और भी ज्यादा संशय में रहेगी !!

शायद इसलिए ही हिंदी केवल (symbolic) राजभाषा बन कर रह गयी है, राष्ट्रभाषा का सपना अगर असंभव नहीं तो असमंजस भरा जरूर लगता है !!   हम शायद भूल गए कि …

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मंगलवार, 9 नवंबर 2010

अमेरिकन बाबू बेचे जात है ….

 

पिछले लेख में ओबामा की भारत यात्रा के कुछ पहलुओं के बारे में मैंने विश्लेषण किया था,  ये महत्वपूर्ण आलेख यहाँ पढ़ा जा सकता है -

एक विश्लेषण - ओबामा की भारत यात्रा के परिपेक्ष्य में

अब जबकि अंकल सेम बहुत कुछ बेच कर और हम भावुक भारतियों को लुभा कर चले गये हैं, एक बात पर गौर करना जरूर है जो मैंने उपरोक्त लेख में भी संदर्भित किया था कि भारत को अगर वाकई में विकसित देशों के श्रेणी में खड़ा होना है तो हमें अपनी सकल घरेलु उत्पाद का एक बहुत सारा भाग शोध पर खर्च करना होगा!

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जी ई और बोईंग जैसी कम्पनियाँ ओबामा के साथ बिलियन डॉलर का सामान एकतरफा बेच कर चले गये, जैसे ओबामा भारत से अमेरिका में रोजगार पैदा करने की बात करते हैं उसी तरह हमें भी अमेरिका से डील डन करते समय इस तरह की शर्तें रखना चाहिए के हमें सामान भारत में ही बना कर दीजिए ! इससे ये बड़ी बड़ी कम्पनियाँ कम से कम कुछ पैसा शोध पर भी भारत में खर्च करेंगी और उससे अप्रत्यक्ष रूप से आगे आने वाले वर्षों में भारत को ही फायदा होगा !  आई टी के क्षेत्र में ऐसा हो रहा है, अब ये सब अन्य क्षेत्रों में भी होना चाहिए. अगर एक आई टी  क्षेत्र में हमारी सक्रियता के जरिये इतने रोजगार, प्रतिष्पर्धा और सम्पन्नता आयी है तो सोचिये के अगर अन्य क्षेत्रों में भी ऐसा हो तो भारत कहाँ से कहाँ होगा !

अभी हम विशिष्ट तकनीक के लिए पूरी तरह से विदेशों पर निर्भर हैं , रक्षा बजट से लेकर उर्जा बजट तक देश का ५० प्रतिशत से ज्यादा पैसा विदेशों की झोली में चला जाता है ….क्या बिना आत्मनिर्भर हुए हम विकसित हो सकते हैं ?

पिछले आलेख में राज भाटिया जी ने बहुत अच्छा प्रश्न उठाया था -

राज भाटिय़ा जी ने कहा था … “इस बंदर बांट मे कुछ नही होने वाला, ओर अमेरिका ईस्ट ईडिया की तरह से एक कपनई ही बना कर जायेगा भारत मे, यह अपने बम पटाखे बेच कर जायेगा, ओबामा गाधी का पुजारी हे तो इस मै बडी बात क्या हे,सारे काग्रेसी भी तो इसी बापू के पुजारी हे, बाकी बात मै honesty project democracy जी से सहमत हुं, यह मामा हमारा कुछ भला नही करने वाला, “

रवीन्द्र प्रभात जी भी कुछ ऐसी ही व्यथा रखते हैं - “यह सही तथ्य है कि ओबामा ने महसूस किया है मार्टिन लूथर और गांधी को, किन्तु एक सच यह भी है कि ओबामा और हमारे देश के सफ़ेद पोश में यह एक समानता है दोनों महसूसते हैं गांधी को मगर करते वाही जो उनकी फितरत में शामिल होता है ! ओबामा की अग्नि परीक्षा वहीँ असफल हो जाती है जब वह पाकिस्तान और भारत को एक ही तराजू पर तौलने का प्रयास करते हैं अन्य अमेरिकी राष्ट्रपतियों की तरह. …”

वहीं जय कुमार झा भी बहुत झल्लाए दिखे…”अच्छे आकडे प्रस्तुत किये हैं आपने लेकिन एक बात तो तय है की लोकतंत्र ना तो अमेरिका में अब जिन्दा है और भारत में तो लोकतंत्र एक भयानक त्राशदी जैसा हो गया है | ओबामा की भारत यात्रा कोमनवेल्थ और आदर्श घोटालों से इस देश की जनता का ध्यान और उनके रोष को भटकाने और खयाली तथा कागजी विकाश के लोलीपोप चूसने को इस देश के लोगों को प्रेरित करने के सिवा कुछ भी नहीं करेगा ...”

समीर लाल और प्रवीण पाण्डेय भी कुछ ज्यादा आशावान नहीं दिखे ओबामा से !

 

ओबामा की इस यात्रा के अन्त में पीपली लाइव फ़िल्म का गाना सही फिट बैठता है:

 

भैया भारत लगता तो बड़ा संपन्न है

पर विदेशी लोग खाए जात हैं

और अमेरिकन बाबू अपनी चीजें बेचे जात है

जनता बेचारी कान पकडे ही जात है

और कांग्रेस पार्टी राज करे ही जात है

देश को घोटालों से लूटे ही जात है

अमेरिकन बाबू अपनी चीजें बेचे जात है

देश की प्रतिभा पलायन करे ही जात है

और एक प्रतिभा राष्ट्रपति बने ही जात है

पर कुछ करे नहीं पात है

देश गरीब होये जात है

अमेरिकन बाबू अपनी चीजें बेचे जात है

विपक्ष खूब सीटें जीते जात है

पर संसद में ये भी सोये रहत है

बात बात पर धक्का मुक्की होती रहत है

वोट करते में खुद ही बिक जात है

अमेरिकन बाबू अपनी चीजें बेचे जात है ….

 

इस दिवाली पर निकुंज ने यहाँ के एक मंदिर में अपना पहला स्टेज कार्यक्रम किया, चिन्ता की बात थी कि समय की कमी और प्रोग्राम में कुछ परिवर्तन की वजह से उसने तैयारी ज्यादा नहीं कर पायी पर खचाखच भरे सभागार की तालियों ने ये सब संशय दूर कर दिया , सोचा आपके साथ भी बाँट लिया जाए ये गर्वोनुभूति का पल -


रविवार, 7 नवंबर 2010

क्षमा करें पंडित जी

 

अब जबकि इन्टरनेट पर आरती संग्रह से लेकर पूजा करने की विधि सब कुछ केवल एक क्लिक की दूरी पर संभव है,  भगवान की पूजा और हवन के लिए पंडित जी के नखरे कौन सहे ? 

यहाँ अमेरिका में मंदिर और पंडितों की कमी नहीं है,  पर अगर आप एक पंडित जी को कथा वाचन के लिए आमंत्रित कर रहे हैं, या फिर मंदिर में कोई पूजा आपके सौजन्य से होना है या फिर नयी कार की पूजा करानी है या फिर गृह प्रवेश जैसा यादगार पल पूजा से प्रारम्भ करना है तो पंडितो के नखरे और आसमान छूती फीस कभी कभी आपको सोचने पर मजबूर करेगी कि क्यूँ ना इन्टरनेट का उपयोग इसके लिए किया जाए !

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बहुत दिन से सत्यनारायण कथा कराने का मन था, इस बहाने दिवाली की गेट - टुगेदर भी हो जाती है ! जब पंडित जी को फोन किया तो उनके पास समय ही नहीं हैं,  फिर सलाह आई कि आब शाम को ८ बजे कथा करा लीजिए,  रात में कथा का फीलिंग कैसे आये अब ?  वीक डेस से लेकर वीक एंड तक रोज उनकी अपोइंटमेंट पहले से ही तय हैं !  मंदिर में भी स्लोट आसान नहीं है लेना !

एक बार गृह प्रवेश के मौके पर एक पंडित जी को ऐसे ही पूछ लिया कि आपकी फीस वगैरह बता दें तो कृपा होगी, तब हम नए थे तो पंडित के नखरे और भी आसमान पर थे,  बाद में शायद फीस और हमारी श्रद्धा कम लगी तो पंडित जी सर्दी का बहाना बना गये कि गला बहुत खराब है - ऐसे में मंत्रोचार करना उनके लिए संभव नहीं !

ज्यादातर पंडित जी बंधू किसी ना किसी मंदिर से सम्बंधित रहते हैं,  इनको ग्रीन कार्ड भी विशेष केटेगरी में जल्दी से मिल जाता है यानी रोजगार का उत्तम और सुरक्षित तरीका ! उसके बाद मंदिर से आमदनी के अलावा अगर व्यक्तिगत रूप से किसी के घर कथा /पूजा में जाना हो तो अलग से कमाई हो जाती है, सामान्यतः मंदिर प्रशाशन पंडितों को मंदिर की बिना अनुमति के व्यक्तिगत तौर पर पूजा करने करने के अनुमंती नहीं देता. अगर आप मंदिर से पंडित बुलाते हैं तो मंदिर की फीस बहुत रहती है और उसके बाद पंडित जी को भी श्रद्धावस (बहुत) कुछ देना पड़ेगा. आने जाने का खर्चा अलग, पंडित जी अगर अपनी कार से आयेंगे तो जिजमान पर एक और बड़ा अहसान.  व्यक्तिगत रूप से अगर पंडित जी को बुलायेंगे तो आप अपनी फीस फिक्स कर सकते हैं पर ऐसे में उचित दिन और समय मिलाना मुश्किल हो जाता है क्यूंकि वो पहले ही बुक रहते हैं !

जब पंडित जी घर आयेंगे तो समय के कमी अलग रहती है तो जल्दी जल्दी पंडित जी के उपलब्ध समय के अनुसार सब करो, वैसे भी हम भारतियों की आदत किसी के घर समय से पहुंचने की नहीं होती तो ऐसे में समय का पालन करना असंभव सा होता है !  अगर आप महाम्रत्युन्जय या कुछ और विशेष पूजा कराना चाहते हैं तो फिर उसका अलग से समय और समय की कीमत !

लग रहा है पोस्ट मार्टम कुछ ज्यादा ही हो गया, खैर ! मुझे कोई बुरे नहीं लगती इसमें क्यूंकि पंडित जी भी एक आम इंसान हैं और सात समुन्दर दूर अपने परिवार के साथ रह रहे हैं और परिवार पालना है तो फिर व्यवसाय से समझौता कैसा ?

बात इन्टरनेट पर उपलब्ध सामग्री से शुरू हुई थी , तो आजकल बहुत सारे लोग यहाँ पर खुद ही इन्टरनेट के सहारे घर पर कथा, हवन और पूजा करने की कोशिश कर रहे हैं और इसमें आनन्द भी आ रहा है बस आयोजक को थोडा सा समय पढने में, डाउनलोड करने में और प्रिंट आउट लेने में देना पडता है !

कुछ दिन पहले एक मित्र ने सत्यनारायण कथा पर आमंत्रित किया और उस दिन हमने कथा से लेकर हवन को उस आनन्द से ही किया जिस आनन्द से पंडित जी के साथ करते हैं बल्कि मन्त्र और स्पष्ट रूप से पढ़े गये और बच्चों ने भी खुद मन्त्र पढकर एक नया ही आनन्द लिया !  जब इस बार पंडित जी व्यस्त थे तो हमने भी वही किया , कुछ इष्ट मित्रों के साथ कथा वाचन किया और फिर सबने मिलकर गृह्शुद्धि और आत्मशुद्धि के लिए हवन किया ! 

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क्षमा करें पंडित जी, आप भी अब रिप्लेसेबल लगते हैं पर फिर भी आपका अपना महत्व है - आपको भी कथा में आमंत्रित करेंगे बस आप थोडा फ्री हो लें  और हाँ कथा और हवन सायंकाल थोड़े अजीब से लगते हैं :( 

शुक्रवार, 5 नवंबर 2010

एक विश्लेषण - ओबामा की भारत यात्रा के परिपेक्ष्य में

 

कुछ लोग कहते हैं कि शिकागो की राजनीती इतनी काम्प्लेक्स है जिसमें साधारण आदमी का डेमोक्रटिक या रिपब्लिक पार्टी में आगे बढ़ना बहुत ही दुष्कर है, इसलिए भी इसको विंडी शहर कहा जाता है !  ओबामा भी इस राजनीतिक पुश्त से ही निकले हैं!  विंडी शहर के ओबामा अगले सप्ताह भारत दौरे पर हैं, देखते हैं भारत के धुआंधार नेताओं के सामने ये कैसे टिक पाते हैं !!  ओबामा पिछले ३२ साल में  ऐसे पहले राष्ट्रपति हैं जो अपने पहले ही कार्यकाल में भारत यात्रा पर आ रहे हैं, इससे भारत की विश्व स्तर पर आर्थिक और कूटनीतिक तौर पर बढ़ रही शक्ति का अहसास तो लग ही रहा हैं !

ओबामा मार्टिन लूथर किंग जूनियर और महात्मा गाँधी को अपना प्रेरणा श्रोत मानते हैं और ऐसे में उनके लिए ये यात्रा व्यक्तिगत रूप से उनके जीवन के लिए बहुत अहम है. वो गाँधी की समाधि पर जाकर खुद को अपने प्रेरणाश्रोत के पास अनुभव करने के पल का बेसब्री से इन्तजार कर रहे होंगे,  जबकि अमेरिका में उनकी लोकप्रियता का ग्राफ दिनोंदिन नीचे जा रहा है और कल हुए चुनाव में विपक्षी पार्टी ने house of representative पर फिर से कब्ज़ा कर लिया है, ऐसे में गाँधी से सत्य और सतत प्रयास की सीख ओबामा के लिए इस समय अति महत्वपूर्ण है!

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नीचे दिया गया ग्राफ अमेरिका और भारत की GDP growth में तुलना दर्शाता है जो मैंने विश्व बैंक की वेबसाइट से डाटा लेकर  बनाया है, इससे स्पष्ट है कि भारत प्रगति की दर में अमेरिका से बहुत आगे है, बस डर है ग्राफ के नीचे ऊपर होने की दर से, ग्राफ में देखे तो भारत की सकल घरेलु उत्पाद की दर में उतार चढाव एक स्थिर दिशा में न होकर ऊपर नीचे तेज गति से हो रहा है, जो कि अस्थिरता का सूचक है.

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कुछ  डाटा मुझे संयुक्त राष्ट्र की वेबसाइट पर भी मिला उससे नीचे वाला ग्राफ बनाया गया है , ये ग्राफ हाल के ही वर्षों में भारत और अमेरिका के सकल घरेलू उत्पाद की तुलना करता है -

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मैंने विश्व बैंक के आकंडो को थोडा और खंगाला और कुछ ग्राफ यहाँ विश्लेषण के लिए प्रस्तुत कर रहा हूँ -

आश्चर्यजनक ढंग से खेती में सक्रिय रूप से रोजगार में लगे लोगों कि संख्या में पिछले सालों की तुलना में इजाफा हुआ है और अब ये संख्या २६ करोड हैं जो कि १९८० में सिर्फ १८ करोड के लगभग थी, ये संख्या कृषि, मछलीपालन, मुर्गीपालन, मधुमक्खी पालन इत्यादी में लगे लोगों की संख्या दर्शाती है -

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अब एक नजर भारत में उर्जा की खपत और पैदावार के ऊपर डाली जाए :

 

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इस ग्राफ में सबसे नीचे वाली ग्राफ लाइन गौर करने लायक है जो कि कुल बिजली उत्पादन में से न्यूक्लीयर श्रोतों से बिजली के उत्पादन के प्रतिशत को दर्शाती है, ये प्रतिशत १९७१ में  १.८ प्रतिशत था, जो कि २००७ में २.०८ प्रतिशत हो पाया है, ये बहुत ही धीमी प्रगति है और मुझे लग रहा है ओबामा - मनमोहन इस ग्राफ लाइन के प्रतिशत को बढाने की दिशा में कुछ कदम बढायेंगे.  नीचे वाला ग्राफ विभिन्न श्रोतों से  बिजली उत्पादन  के प्रतिशत को  और अधिक स्पष्ट रूप से दर्शाता है -

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भारत को अभी आने वाले २० वर्षों तक तो कम से कम उच्च तकनीक के लिए अमेरिका, रसिया और यूरोप पर निर्भर रहना पड़ेगा क्यूंकि हम अपने सकल घरेलू उत्पाद का बहुत कम अनुसंधानों पर खर्च करते हैं, जबकि चीन इस मामले में बहुत आगे है!  देखिये ये ग्राफ -

 

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ओबामा की इस यात्रा को लेकर कुछ प्रश्न आ रहे हैं दिमाग में -

१. क्या ओबामा कश्मीर का राग अलाप कर भारत की नाराजगी का कारण बनेंगे ? चीन में जाकर भारत को एक बार नाराज कर चुके ओबामा शायद ही कश्मीर के प्रथकतावादियों से मिलेंगे !

२. क्या परमाणु संधि पर और और बातें होंगीं ?

३. क्या ओबामा भारत को परमाणु अप्रसार के लिए बने समूह में शामिल होने और ऐसी संधियों पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर करेंगे ?

४. क्या ओबामा खुलकर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के विस्तार में भारत का समर्थन करेंगे ?

५. देखते हैं कि आतंकवाद पर भारत को अमेरिका क्या भासण देता है ?

६. पाकिस्तान पर ओबामा की राय क्या सिर्फ भारत को खुश करने वाली होगी ? क्यूंकि अभी तक असल में तो ये २ साल में पाकिस्तान के खिलाफ कुछ कर नहीं पाये हैं, हाँ हर साल कई बिलियन डॉलर पाकिस्तान को ओबामा भी अन्य अमेरिकन राष्ट्रपतियों की तरह भेज रहे हैं.

आशा  करते हैं कि भारत और अमेरिका के रिश्तों में ओबामा एक स्फूर्ति भरा परिवर्तन लायेंगे, आपकी क्या राय है ?

 

ग्राफ श्रोत : डाटा विश्व बैंक और संयुक्त राष्ट्र की वेबसाइट से लेकर लेखक ने खुद ही विभिन्न तरीकों से विश्लेष्णात्मक ग्राफ तैयार किये हैं

गुरुवार, 4 नवंबर 2010

घर घर दीप जले - चहुँ और खुशी फैले

 

प्रिय मित्रों और पाठको,

दीपावली - दीपों की श्रंखला से सजी, रोशनी से जगमग, प्रकाशमय महापर्व भारतीय संस्कृति का विश्व में ध्वजवाहक है, ये केवल एक पर्व नहीं, ये तो हमारी उर्जा को नवस्फूर्ति से संजोने वाला एक प्रतीक है !  जब बात भावों से जुडी हो तो शब्द भी कभी कभी व्याख्या के लिए कम पड़ जाते हैं, दिवाली भी एक ऐसा पर्व है जो बचपन से लेकर अब तक हर वर्ष खुशियों का, आनन्द का, सपनों का और सम्रद्धता का सन्देश हमें देता आया है !  

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बुराई पर अच्छाई की विजय, असत्य पर सत्य की मेधा और अन्धकार पर प्रकाश की ये बेला विश्व में भारतीय सूर्य की चमक है !  जब घरों की और दिलों की सफाई कर हर आँगन को हम नया नवेला बनाने के लिए उत्सुक रहते हैं, आर्थिक, सामाजिक प्रगति के सोपानो को संजोते, अभिलाषा के दीप जला हम असाध्य और असंभव को भी कर्म से पा लेने की द्रढता का वचन लेते हैं - उस पल को ही दिवाली कहते हैं, अहंकार , क्रोध और आलस्य पर विजय को रोशनी देने वाला ये महापर्व  जैसे सारे  अच्छे, महान और सार्थक उद्देश्यों का महासंगम हो !

कितनी यादें हैं इस पर्व के साथ, हर वर्ष कुछ न कुछ सकारात्मक ही हम जोडते हैं ! बचपन में पूरे घर की पुताई, कलई और चूने का गलाना और फिर पुताई के बाद हाथो का फटना कौन भूल सकता है, फिर जब लिपे पुते आँगन और दीवारे परिणाम के रूप में दिखतीं थी तो मन प्रप्फुल्लित हो उठता था, कुछ रुपयों के पटाखे – चकरी, राम बाण,  नाग, सुतली बम और पता नहीं क्या क्या ….रात में परिवार के साथ लक्ष्मी की मूर्ति दीवार पर काढ कर कुछ तेल के और कुछ घी के दिए जलाना और फिर पड़ोसियों, स्वजनों का लक्ष्मी पूजन के बाद हमारे घर पर दिए रखने आना और हमारा उनके घर सूप में दिए रखकर ले जाकर उनके घर रखना जैसे एक दूसरे की सम्रद्धि के लिए , सामंजस्य के लिए और समग्रता के लिए, सामजिक एकता के लिए बुने हुए स्तंभ हों जिस पर समाज नाम का ढांचा टिका है !  एक दिन बाद सारे परिवार जन का एक साथ मिलकर गोवर्धन परिक्रमा का क्रम एकसूत्र में बंधने के प्रेरणा देता है !   जगमग रौशनी से घर सब कुछ प्रकाशमय बना देते थे, बिजली नहीं तो दीप श्रंखला ही अन्धकार को प्रकाश में बदलने के लिए पर्याप्त थी !

अब शिकागो में दशहरे से ही घर को सजा दिया गया है, पहले तो स्कूल की छुट्टियाँ भी दशहरे से दिवाली तक हो जाती थी, पर शायद धीरे धीरे वो क्रम अब बंद हो गया है !  दिवाली की छुट्टियों में शहर से घर जाने का आनन्द अविस्मरणीय है !

कल ग्वालियर में भाई बाईक से फिसल गया तो उसके हाथ में गहरी चोट आई, वो भी दायें हाथ में, उसके CAT परीक्षा से कुछ ही दिन पहले ऐसा होना उसके लिए बहुत दर्द देने वाला है, शायद हाथ के दर्द से भी ज्यादा, पर आशा है कि दिवाली का प्रकाश जब अमावश्या को भी पूनम बना देता है तो वो अवश्य ही उसको भी नयी प्रेरणा और शक्ति देकर  आने वाले रास्ते के लिए उसे आत्मविश्वास देगा !  इस दिवाली के अवसर पर यहाँ शिकागो के ही एक मंदिर में निकुंज का एक मंच पर कार्यक्रम है, कुछ और नयी सुखद यादें जो संजोना है इस दिवाली पर !!

मैंने फेसबुक पर किसी के स्टेटस पर पढ़ा था :

“आई दीवाली फिर इक बार, हो जाओ सब तैयार
सबको हर बार देते हैं,इस बार खुद को दो उपहार”

नारायणांशो भगवान् स्वयं धन्वन्तरिर्ममहान्। पुरा समुंद्रमथने समत्तस्थौ महोदधेः।।  सर्व वेदेषु निष्णातो मंत्र तंत्र विशारदः। शिष्यो हि बैनतेयस्य शंकरस्योपशिष्यक।।

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आप सभी को ये प्रकाशमय महापर्व सम्रद्धि, संतुष्टि, आत्मविश्वाश और खुशियों का खजाना दे ! मेरी हार्दिक शुभकामनायें आप सभी दोस्तों और पाठकों के साथ हैं !

सादर,

राम त्यागी

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मंगलवार, 2 नवंबर 2010

बदलता मौसम

 

अचानक से दो दिन से २०-३० मील प्रति घंटे के हिसाब से ठंडी तेज हवाओं ने परेशान कर रखा है ! रात में ऐसा लगता है कि जैसे ये आँधी कहीं खिडकी और छत को उड़ा ही न ले जाए !   गमले भी घर से दूर पीछे बैकयार्ड में दूर दूर उड़े मिले !  भारत में गर्मी के मौसम में जैसे लू परेशान करती है वैसे ही शिकागो में सर्दी के मौसम में ये तेज हवाएं !  इसलये ही शिकागो को विंडी शहर के नाम से भी जाना जाता है ! 

ये मौसम भी अजब से रंग दिखाए

देखो कब गर्म से ये सर्द हो जाए

शिकागो की तूफानी सर्दियाँ 

घर को उड़ाते हवाओं के रेले

चेहरे को भुनाते सर्दी के थपेले

ठंडी हवायें बनकर सर्दबाण

चुभकर शरीर को कर दे मृतप्राय

कौन कहता है कि ये शहर बन जाएगा सहरा

ये तो गतिमान है कर्म का जज्बा लिए

थमता नहीं ये आँधियों के वेग से

आग आगे अग्रसर होते रहने की

शायद कर देती है कडकती सर्दी को भी पस्त !

 

गजब की बात है कि चाहे मौसम कितना भी खराब हो, पर लोगों का काम करने का जज्बा कम नहीं होता,  अभिलाशायें, सपने बस अनवरत लगाए ही रखते हैं !