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सोमवार, 12 अप्रैल 2010

आदत - पार्ट २

आदत पार्ट १ यहाँ पढिये...

अब ब्लॉग्गिंग की आदत ही देख लीजिये , एक ब्लॉग से दूसरे पर और दूसरे से तीसरे पर कूदते कूदते लिखने का टाइम ही नहीं बच पाता। कभी कभी लगता है की हमें आदत उस चीज की लगती है जो स्वभाववश सरल होती है, जैसे लिखने और पढ़ने से ज्यादा देखने की आदत जल्दी लगती है।

टीवी बच्चे इसलिए ज्यादा देखते है क्यूंकि देखना सबसे सरल काम है , लिखना और पढ़ना उससे थोडा कठिन । टीवी देखने की आदत मुझे तो टीवी वाले रोग जैसी लगती है , एक बार लग जाए तो टीवी की बीमारी जैसे शरीर को सुखा देती है, टीवी देखने की आदत आपके दिमाग को बिलकुल बंद कर देती है। मुझे याद है टीवी घर में लाने से पहले में काफी पत्रिकाएँ पड़ता था और जबसे टीवी की आदत लगी, पड़ने की आदत ही चली गयी, एक बार सोफे पर बैठो तो फिर चैनलों की कोई कमी ही महसूस नहीं होती । मेने अपना पहला टीवी ख़रीदा २००० में , १ साल दिल्ल्ली में जॉब करने के बाद, हम लोग - में और मेरा भाई उन दिनों आश्रम (दिल्ली में एक जगह का नाम है - किसी गुरु जी का आश्रम नहीं :) ) में रहते थे जब ये पहला टीवी लिया और उन दिनों स्टार प्लस 'कौन बनेगा करोड़पति' की वजह से बहुत मशहूर हो रहा था। तब से पढ़ना बंद है और लिखना तो बिलकुल ही ख़त्म :(

कुछ लोगो को सिर्फ अपनी ही बात सुनाने की आदत पड़ जाती है और या फिर खुद के समर्थन में ही सुनने ऐसी आदत पड़ती है की फिर वो अपनी दुनिया को ही, अपने बनाए या कहे हुए को ही सच मानते है, जैसे कुएं में रहने वाला मेंडक कुए को ही संसार मानने लगता है। और इस आदत से फिर जन्म होता है अहंकार या ईगो का - हमारे हिंदी ब्लोग्गेर्स भी कभी कभी कुछ ऐसे आदत के लोगो से आपस में तू तू में में करने लगते है और उद्देश्य से भटककर फालतू बहसों में उलझ जाते है । परिवार में लड़ाई झगड़े और प्यार दोनों चलते रहते है। हमें ब्लॉग्गिंग में हर तरह की कमेंट्स सुनने के लिए तैयार रहना चाहिए , कुछ लोग तंग आकर ब्लॉग्गिंग से विदा होने का मन बना लेते है और मेरे हिसाब से वो फैसला ठीक नहीं। सोसल नेट्वोर्किंग पर विचारो का आदान प्रदान खुले में होता है और हमें उसके लिए खुद को परिपक्व बनाना ही होगा।

इन्टरनेट पर बैठने की आदत हो जाए और किसी दिन ये न मिले तो एसा लगता है की जीवन में कोई रस ही नहीं, चाय पीने वालो को चाय न मिले तो सर में दर्द होने लगता है और पीने वालो को एक बार पीने मिले जाए तो फिर .....!

अति सर्वत्र वर्जते - इसलिए किसी भी आदत को अति की दहलीज़ से नीचे ही रखें तो हो सकता है की वो आदत हमारे लिए रोग या परेशानी का शबब न बनेगी अन्यथा पीछा छुड़ाना मुस्किल हो सकता है ! इसी के साथ और ढेर सारी शुभकामनाओ के साथ आदत पार्ट २ की समाप्ति करते है :)

1 टिप्पणी:

Udan Tashtari ने कहा…

अति सर्वत्र वर्जते - बस, यही ध्यान देने वाली बात पर चूक हो जाती है.